जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ॥ सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाधँ बरि डोरी॥ चौपाई का अर्थ और विस्तृत विश्लेषण। रामचरितमानस ।
यह रहा "जननी जनक बंधु सुत दारा" से प्रेरित एक अद्भुत चित्र, जो भगवान श्रीराम के चरणों में भक्ति और ममता के त्याग का दृश्य दर्शाता है। |
जननी जनक बंधु सुत दारा। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ॥ सब कै ममता ताग बटोरी। मम पद मनहि बाधँ बरि डोरी॥- अर्थ और विश्लेषण
यह चौपाई गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस से लिया गया है, जिसमें भगवान श्रीराम कहते हैं कि भक्ति के मार्ग में सभी प्रकार की ममता को त्यागना आवश्यक है। इसका अर्थ और भावार्थ इस प्रकार है:
शब्दार्थ:
- जननी: माता
- जनक: पिता
- बंधु: भाई
- सुत: पुत्र
- दारा: पत्नी
- तनु: शरीर
- धनु: धन
- भवन: घर
- सुहृद: मित्र
- परिवारा: कुटुंब
- ममता: मोह, आसक्ति
- ताग बटोरी: मोह के तागों को इकट्ठा करना
- मम पद: मेरे चरण
- मनहि बाधं: मन को बाँधना
- बरि डोरी: श्रेष्ठ डोरी
अर्थ:
भगवान श्रीराम कहते हैं कि मनुष्य को अपनी माता, पिता, भाई, पुत्र, पत्नी, शरीर, धन, घर, मित्र, और परिवार के प्रति जो ममता (मोह) है, उसे त्याग देना चाहिए। सभी प्रकार की ममता रूपी तागों को समेटकर उन्हें एक श्रेष्ठ डोरी (भक्ति) में बांधकर मेरे चरणों में मन को स्थिर करना चाहिए।
भावार्थ:
- यह चौपाई त्याग और समर्पण का महत्व समझाती है। भगवान कहते हैं कि यदि मनुष्य भक्ति के मार्ग पर अग्रसर होना चाहता है, तो उसे सभी सांसारिक मोहों को छोड़कर स्वयं को भगवान के चरणों में समर्पित करना होगा।
- ममता (आसक्ति) सभी बाधाओं का मूल है। इसे त्यागकर ही सच्ची भक्ति प्राप्त हो सकती है।
- भगवान से गहरा संबंध तभी संभव है जब मनुष्य का मन सांसारिक आसक्तियों से मुक्त हो और ईश्वर की ओर एकाग्र हो।
यह दोहा भक्ति और वैराग्य का आदर्श रूप प्रस्तुत करता है। माता-पिता, भाई-बंधु, स्त्री-पुत्र, अपना शरीर, धन, मकान, मित्र और परिवार ये ही सब ममता के आस्पद हैं।
सब कै ममता ताग बटोरी
माता, पिता, भाई, पुत्र, पत्नी, शरीर, धन, भवन, प्रेमी जन और परिवार, इन सबकी ओर जो हमारे मन की भावना आकर्षित होती है, इन सब भावनाओं को इकठ्ठा करके एक मोटी रस्सी बना ली जाय।
मम पद मनहिं बाँधि वर डोरी
ममता के तागे इकट्ठे करके और एक ऐसी रस्सी बना लें। जिस रस्सी से भगवान को बांध लें। मन से मेरे चरणों को बाँध लें, या उन चरणों से बंध जायँ। और देखो अगर हम संसार में बंधते हैं तो आसक्ति है और भगवान में बंधते हैं तो भक्ति है।
जननी जनक बंधु सुत दारा
जननी जनक वंधु सुत दारा - ये पांच हुए। तनु धनु भवन सुहृद परिवारा - पांच यह, पूरे दस हैं और मुझे लगता है इन दसों को भगवान से जोड़ दें।
अतः भगवान कहते हैं- इन सब की ममता का कच्चा धागा बटोरकर उसकी एक मज़बूत रस्सी बट लो और मेरे चरण कमल में बाधँ दो। यहाँ कच्चा धागा इसलिये कहा गया कि इन प्राणि पदार्थों में जो ममता है, अपनापन है वह स्वार्थपूर्ण है।
स्वार्थ की टकराहट
इसलिये यह कच्चा धागा है, जो कभी भी स्वार्थ की टकराहट से टूट सकता है, परंतु प्रभु में जो प्रेम होता है वह कभी टूटता नहीं। स्त्री-पुत्र, भाइ-बंधु, मित्र आदि में कभी प्रेम और कभी वैर भी हो जाता है। कभी प्रेम की कमी और कभी अधिकता हो जाती है, परंतु भगवान में वह सदा-सर्वदा एकरस निरतिशय रहता है। क्योंकि जैसे सूर्य प्रकाश का उद्गम स्थान या प्रकाश स्वरूप ही है, वैसे ही भगवान भी प्रेम के उद्गगम-स्थान या प्रेम स्वरूप ही हैं। इसलिये इन्हें प्रेम (रस) - सागर भी कहा जाता है। यह रस सागर बड़ा अनुपम, अतुल और विलक्षण है। इस में प्रेम, प्रेमी और प्रेमास्पद वस्तुतः एक भगवान ही होते हैं, पर सदा ही तीनों बनकर रसास्वाद कराते रहते हैं ।
परमेश्वर में प्रेम होना ही विश्व में प्रेम
वस्तुतः परमेश्वर में प्रेम होना ही विश्व में प्रेम होना है और विश्व के समस्त प्राणियों में प्रेम ही भगवान् में प्रेम है, क्योंकि स्वयं परमात्मा ही सबके आत्म स्वरूप से विराजमान हैं। जो व्यक्ति इस भगवत्प्रेम के रहस्य को भली-भाँति समझ लेता है, उसका सभी प्राणियों के साथ अपनी आत्मा के समान प्रेम हो जाता है। ऐसे प्रेमी की प्रशंसा करते हुए भगवान् ने कहा है-
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन ।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः ॥
हे अर्जुन! जो योगी अपने ही समान सम्पूर्ण भूतों में सम देखता है और सुख अथवा दुःख में भी सम देखता है, वह योगी परम श्रेष्ठ माना गया है। अपनी सादृश्यता से सम देखने का यही अभिप्राय है कि जैसे मनुष्य अपने सिर, हाथ, पैर और गुदा आदि अगों में भिन्नता होते हुए भी उनमें समान रूप से आत्मभाव रखता है अर्थात सारे अंगों में अपनापन समान होने से सुख और दुःख को समान ही देखता है, वैसे ही सम्पूर्ण भूतों में जो समभाव देखता है, इस प्रकार के समत्वभाव को प्राप्त भक्त का हृदय प्रेम से सरोबर रहता है। उसकी दृष्टि सबके प्रति प्रेम की हो जाति है। उसके हृदय में किसी के साथ भी घृणा और द्वेष का लेश भी नहीं रहता। उसकी दृष्टि में तो सम्पूर्ण संसार एक वासुदेव रूप ही हो जाता है।
मनुष्य का राग-द्वेष कब तक
इस परमतत्त्व को न जानने के कारण ही प्रायः मनुष्य राग-द्वेष करते हैं तथा परमात्मा को छोड़ कर सांसारिक विषय-भोगों की ओर दौड़ते हैं और बार-बार दुःख को प्राप्त होते हैं। मनुष्य जो स्त्री-पुत्र, धन आदि पदार्थों में सुख समझ कर प्रेम करते हैं, उन आपातरमणीय विषयों में उन्हें ही जो सुख की प्रतीति होती है, वह केवल भ्रांति से होती है। वास्तव में विषयों में सुख है ही नहीं, परंतु जिस प्रकार सूर्य की किरणों से मरुभूमि में जल के बिना हुए ही उसकी प्रतीति होती है और प्यासे हिरण उसकी ओर दौड़तें हैं तथा अंत में निराश होकर मर जाते हैं, ठीक इसी प्रकार संसारिक मनुष्य संसार के पदार्थों के पीछे सुख की आशा से दौड़ते हुए जीवन के अमूल्य समय को व्यर्थ ही बिता देते हैं और असली नित्य परमात्म- सुख से वञ्चित रह जाते हैं।
आत्मा के संसार परिभ्रमण का कारण है कर्म
हमारी आत्मा संसार में परिभ्रमण कर रही है, इसका कारण है कर्म। आत्मा कर्म से बंधी होने के कारण संसार में बार-बार जन्म लेती है और मृत्यु को प्राप्त होती है। राग और द्वेष कर्म बंध का बीज होता है। राग और द्वेष भाव के कारण आदमी पाप करता है और अपनी आत्मा को कर्मों से भारित करता है। कर्मों से बंधी आत्मा ही संसार में बार-बार जन्म लेती है और मृत्यु को प्राप्त होती है। जन्म-मृत्यु को दुःख कहा जाता है। पाप कर्मों का जिम्मेदार मोह होता है। मोह राजा तो राग और द्वेष उसके सेनापति हैं। मनुष्य कभी राग तो कभी द्वेष में चला जाता है। अनुकूल स्थिति में राग भाव में तो प्रतिकूल परिस्थिति में द्वेष भाव में चला जाता है। इसके कारण आत्मा कर्मों के बंधन में बंध जाती है और जन्म-मृत्यु रूपी दुःख को बार-बार प्राप्त होती है। आदमी राग-द्वेष मुक्ति की साधना करे तो मोक्ष मार्ग को प्राप्त कर सकता है।
राग और जीव का संसार चक्र
राग ऐसा गंभीर रोग है, जिसके कारण जीव संसार चक्र में उलझा रहता है। यह मीठे जहर की तरह आत्मा को गर्त में ले जाता है। राग संक्रमण रोग है। जो बढ़ता रहता है। मनुष्य दो तरह से ही अपने कर्म बांधता है। एक राग और दूसरा द्वेष के कारण। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या स्थान के प्रति राग कर्म बंधन का कारण बनता है। मनुष्य उम्र पूरी करने साथ दो ही चीजे साथ लेकर जाता है। पाप और पुण्य। पाप का कारण राग और द्वेष होता है। धर्म की आराधना हमें पाप कर्म से दूर कर पुण्य की ओर ले जाती है।
आनंदो ब्रह्मेति व्यजानाति
प्रेम-साधना' प्रेम भगवान का साक्षात स्वरूप ही है। जिसे विशुद्ध सच्चे प्रेम की प्राप्ति हो गयी, उसे भगवान मिल गये यह मानना चाहिये। प्रेम न हो तो रूखे-सूखे भगवान भाव जगत की वस्तु रहें ही नहीं ।
आनंदो ब्रह्मेति व्यजानाति।
ब्रह्म ही आनंद है। वास्तव में प्रभु रस रूप हैं। श्रुतियों में भी परम पुरुष की रस रूपता का वर्णन मिलता है- रसौ वै स: - इस वाक्य का अर्थ जो (दास्य साख्य वात्सल्य माधुर्य तथा प्रेम) रस से परिपूर्ण हो।
छह रूपों में परमात्मा का प्रकटीकरण
स्फुरणात्मक, विमर्शात्मक, विस्फुरणात्मक लालसात्मक, क्रियात्मक और द्रव्यात्मक- छह रूपों में परमात्मा प्रकट हुआ। स्वयं प्रकाश रूप एक और स्फूरणरूप द्वितीय, स्पर्श रूप तृतीय और इच्छारूप चतुर्थ और क्रियारूप पञ्चम और द्रव्यरूप षष्ठ, इन रूपों में परमात्मा प्रकट हो रहा है, द्रव्य परमात्मा है, सब क्रिया परमात्मा है, सब इच्छा परमात्मा है, सब विमर्श परमात्मा है, सब स्फुरण परमात्मा है।
अंगनामंगनामन्तरे माधवो, माधवं माधवं चान्तरेणांगना
यह देखो, यह रासलीला क्या है?
अंगनामंगनामन्तरे माधवो, माधवं माधवं चान्तरेणांगना ।
प्रेम का निजी रूप रस स्वरूप परमात्मा ही है। इसलिये जैसे परमात्मा सर्वव्यापक है, वैसे ही प्रेम तत्त्व (आनंदरस) भी सर्वत्र व्याप्त है। हर एक जंतु में तथा हर एक परमाणु में आनंद अथवा रस स्वरूप प्रेम की व्याप्ति है। संसार में बिना प्रेम या आनंद रस के एक-दूसरे से मिलना नहीं हो सकता। स्त्री, पुत्र, मित्र, पिता, भ्राता, पुत्रवधु तथा पशु-पक्षी आदि से भी प्रीति या स्नेह इस प्रेम रस की व्याप्ति के कारण ही है।
'स्व' के सम्बंध से संसार की वस्तुओं में प्रीति
कहते हैं कि गुड़ के सम्बंध से नीरस बेसन में मिठास आ जाती है। इसी प्रकार 'स्व' के सम्बंध से अर्थात अपने पन के सम्बंध से संसार की वस्तुओं में भी प्रीति होती है। संसार की जिस वस्तु में जितना अपनापन होगा, वह वस्तु उतनी ही प्यारी लगेगी। उस में राग होना स्वभाविक है। संसार की वस्तुओं में जहाँ राग है वहाँ द्वेष भी है। जहाँ द्वेष है वहाँ राग है- ये द्वंद्व हैं। द्वंद्व अकेला नहीं रहता। राग-द्वेष ये दोनों साथ रहते हैं, इसलिये इसका नाम द्वंद्व है, पर एक बात बड़ी विलक्षण है, वह है रस (प्रेम) - साधना की।
रस-साधना का प्रारम्भ कैसे
रस- साधना का प्रारम्भ भगवान में अनुराग को लेकर ही होता है। एकमात्र भगवान में अनन्य राग होने पर अन्यान्य वस्तुओं में राग का स्वभाविक ही अभाव हो जाता है। उन वस्तुओं में से राग निकल जाने के कारण उनमें कहीं द्वेष भी नहीं रहता। कारण ये राग-द्वेष साथ-साथ ही तो रहते हैं। प्रेमीजन द्वन्द्वों से अपने लिये अपना कोई सम्पर्क नहीं रखकर उन द्वंद्वों के द्वारा अपने प्रियतम को सुख पहुँचाते हैं और प्रियतम को सुख पहुँचाने के जो भी साधन हैं, उनमें से कोई सा साधन भी त्याज्य नहीं है तथा कोई भी वस्तु हेय नहीं । कारण उन वस्तुओं में कहीं आसक्ति रहती नहीं जो मन को खींच ले, इसलिये रस की साधना में कहीं पर कड़वापन नहीं है।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा॥
इस प्रकार हम इस चौपाई के माध्यम से जान पाते हैं कि ममता के कारण ही जीव बँधता है। संसार से बँधकर संसारी और परमात्मा से बँधकर परमात्म तत्व को प्राप्त कर लेता है। अतः इस मन की रस्सी को परमात्मा से बाँध देना चाहिए और हरि स्मरँ करना चाहिए। इसीलिए तुलसीदास जी ने सही कहा है कि -
जननी जनक बंधु सुत दारा।
तनु धनु भवन सुहृद परिवारा ॥
सब कै ममता ताग बटोरी।
मम पद मनहि बाधँ बरि डोरी॥