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छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।

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  जैसी दृष्टि वैसा नजर आता है संसार । संसार बुरा तब लगता है जब हमारा मन इसे बुरी दृष्टि से देखता है। मन का स्वभाव दुख पकड़ने का है। संसार को ...

  जैसी दृष्टि वैसा नजर आता है संसार । संसार बुरा तब लगता है जब हमारा मन इसे बुरी दृष्टि से देखता है। मन का स्वभाव दुख पकड़ने का है। संसार को कैसे देखा जाए इसके लिए श्रीराम किष्किंधाकांड में बालि की रोती हुई विधवा तारा को समझाते हैं। 

  शास्त्र में अधम का तात्पर्य बुराइयों से है या फिर अधम का मतलब पापी भी कह सकते हैं इंसान , पाप इंद्रियों के वशीभूत करता है और इंद्रिया हाड़ मांस से बनी हुई है इसलिए इस शरीर को पापी कहा गया है जब की आत्मा को शुद्ध की संज्ञा दी जाती है क्यों कि वो बहते हुए जल के समान शुद्ध है ,जो कि शरीर रूपी वस्त्र को बदलता रहता है।वैसे प्राण निकलने के बाद शरीर का कोई मूल्य नहीं है।

  शायद इसीलिए अधम कहा गया है। परिवर्तन संसार का नियम है। इस संसार में कोई भी चीज स्थाई नहीं है. जो आया है वह जाएगा. जिसने जन्म लिया है उसका एक दिन अंत भी होगा. लेकिन व्यक्ति इन बातों को भूल जाता है. पद और शक्ति के घमंड में वह इन बातों को भूल जाता है. व्यक्ति के कष्ट का कारण भी यही है. जो व्यक्ति इस तथ्य को समझ लेता है वह जीवन के अर्थ का समझ लेता है और जीवन का आनंद उठाता है. व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारियों का सही तरह से निर्वाहन करना चाहिए. कल क्या होगा इस फेर में नहीं फंसना चाहिए. जो वर्तमान को अच्छा बनाते हैं और आज पर विश्वास करते हैं वही सफल होते हैं. इसे अच्छी तरह से समझ लेना चाहिए कि जो आज है वो कल नहीं होगा. मेरा तेरा ये सब व्यर्थ है. इस जंजाल से जितना जल्दी हो सके निकलने का प्रयास करना चाहिए। 

सब यहीं रह जाता है, कुछ भी संग नहीं जाता है। जीवन में कुछ भी तुम्हारा नहीं  है। ये शरीर भी पंच तत्वों से बना है। एक समय के बाद जब आत्म इस शरीर से आजाद हो जाएगी ये शरीर वापिस उसी आग, हवा, पानी, मिट्टी और आकश में मिल जाएगा। इसलिए लालच को त्यागकर व्यक्ति को जीवन का आनंद उठाना चाहिए। ये जीवन अनमोल है। इसे दूसरों की सेवा में समर्पित कर देना चाहिए। प्रभु इसी से खुश होते हैं। जो व्यक्ति ऐसा नही कर पाते हैं वे आपने आप को धोखा दे रहे हैं। कुछ भी साथ नहीं जाता है. सब यहीं रह जाता है। व्यक्ति को इसी जन्म अच्छे और बुरे कर्मों का फल प्राप्त होता है।

 तारा को व्याकुल देखकर श्रीरघुनाथजी ने उसे ज्ञान दिया और उसकी माया (अज्ञान) हर ली। उन्होंने कहा - पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु इन पांच तत्वों से यह शरीर रचा गया है।

 प्रगट सो तनु तव आगें सोवा।

जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा।। 

 वह शरीर तो प्रत्यक्ष तुम्हारे सामने सोया हुआ है और जीव नित्य है। फिर तुम किसके लिए रो रही हो? श्रीराम ने तारा को समझाया कि यह जो शरीर निष्प्राण तुम्हारे सामने पड़ा है यह इसके पूर्व तुम्हारे पति का था। शरीर का अंत होने पर पांचों तत्व अपना हिस्सा ले जाते हैं, लेकिन इसके भीतर जो आत्मा है वह कभी नहीं मरती।

तारा बिकल देखि रघुराया।

दीन्ह ग्यान हरि लीन्ही माया।।

 श्रीराम तारा को समझाते हैं कि जिस शरीर के लिए तुम रो रही हो क्या इसमें से आत्मा निकल जाने पर इसको रख सकती थी? इस पूरे वार्तालाप से हम यह समझें कि संसार हमें उसकी समझ के कारण अच्छा या बुरा लगता है।

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय

नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। 

तथा शरीराणि विहाय जीर्णा

न्यन्यानि संयाति नवानि देही।। 

  आत्मा की प्रकृति की व्याख्या करना जारी रखते हुए, श्रीकृष्ण पुनर्जन्म की अवधारणा को दोहराते हैं, इसकी तुलना एक दैनिक गतिविधि से करते हैं। जब कपड़े फटे और अनुपयोगी हो जाते हैं, तो हम उन्हें नए के पक्ष में त्याग देते हैं, लेकिन ऐसा करने से हम अपने आप को नहीं बदलते। इसी प्रकार आत्मा जब अपने जीर्ण-शीर्ण शरीर को त्याग कर कहीं और नए शरीर में जन्म लेती है तो अपरिवर्तित रहती है।

श्रीराम की दृष्टि से देखें, तो जो आया है वह जाएगा। 

 भगवान तो कहते हैं कि मेरा कण-कण में वास है। इस बात को हवन का एक उदाहरण देते हुए समझा रहे हैं कि वो जो कर्मकांड है, वो मैं ही हूं, उसमें यज्ञ मैं हूं, यज्ञ की लकड़ियां मैं हूं, यज्ञ में डालने वाली औषधियां मैं हूं, फिर जिन मंत्रों के साथ यज्ञ किया जाता है, वो मंत्र भी मैं ही हूं।

 यदि संसार के कण-कण में परमात्मा देखने लगें तो फिर जब हमें अपनों से बिछड़ना पड़े या कभी अपनों से धोखा खाना पड़े तब हम दुख को अलग ढंग से लेने लगेंगे, क्योंकि परमात्मा प्रत्येक निर्णय में समाया हुआ है। उसे जितना देना था, उसने दिया और जितना लेना था ले लिया। फिर किस बात का शोक करें, क्यों दुख मनाएं। हम उसके हिस्से हैं उसी की तरह प्रसन्न रहें।

 इसलिए केवल प्रभु का ही सहारा लो, बाकी सब मिथ्या है, मृग मरीचिका है दिखाई कुछ देता है होता कुछ और है। महाभारत काल की एक छोटी सी कहानी है जो आपको बताता हूं।

केवल परमात्मा का सहारा लो। 

 अभिमन्यु की पत्नी उत्तरा महल में झाड़ू लगा रही थी तो द्रौपदी उसके समीप गई उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोली, "पुत्री भविष्य में कभी तुम पर घोर से घोर विपत्ति भी आए तो कभी अपने किसी नाते-रिश्तेदार की शरण में मत जाना। सीधे भगवान की शरण में जाना। उत्तरा हैरान होते हुए माता द्रौपदी को निहारते हुए बोली, आप ऐसा क्यों कह रही हैं माता ? 

  द्रौपदी बोली, "क्योंकि यह बात मेरे ऊपर भी बीत चुकी है। जब मेरे पांचों पति कौरवों के साथ जुआ खेल रहे थे, तो अपना सर्वस्व हारने के बाद मुझे भी दांव पर लगाकर हार गए।

  फिर कौरव पुत्रों ने भरी सभा में मेरा बहुत अपमान किया। मैंने सहायता के लिए अपने पतियों को पुकारा मगर वो सभी अपना सिर नीचे झुकाए बैठे थे। पितामह भीष्म, द्रोण धृतराष्ट्र सभी को मदद के लिए पुकारती रही मगर किसी ने भी मेरी तरफ नहीं देखा, वह सभी आँखें झुकाए आँसू बहाते रहे। सबसे निराशा होकर मैंने श्रीकृष्ण को पुकारा।

"आपके सिवाय मेरा और कोई भी नहीं है, तब श्रीकृष्ण तुरंत आए और मेरी रक्षा की।" 

  जब द्रौपदी पर ऐसी विपत्ति आ रही थी तो द्वारिका में श्री कृष्ण बहुत विचलित होते हैं। क्योंकि उनकी सबसे प्रिय भक्त पर संकट आन पड़ा था। रूकमणि उनसे दुखी होने का कारण पूछती हैं तो वह बताते हैं मेरी सबसे बड़ी भक्त को भरी सभा में नग्न किया जा रहा है।

 रूक्मणि बोलती हैं, "आप जाएँ और उसकी मदद करें।" श्री कृष्ण बोले, "जब तक द्रोपदी मुझे पुकारेगी नहीं मैं कैसे जा सकता हूँ। एक बार वो मुझे पुकार लें तो मैं तुरंत उसके पास जाकर उसकी रक्षा करूँगा।

  तुम्हें याद होगा जब पाण्डवों ने राजसूर्य यज्ञ करवाया तो शिशुपाल का वध करने के लिए मैंने अपनी उंगली पर चक्र धारण किया तो उससे मेरी उंगली कट गई थी। उस समय "मेरी सभी पत्नियाँ वहीं थी। कोई वैद्य को बुलाने भागी तो कोई औषधि लेने चली गई।मगर उस समय मेरी इस भक्त ने अपनी साड़ी का पल्लू फाड़ा और उसे मेरी उंगली पर बाँध दिया।

 आज उसी का ऋण मुझे चुकाना है, लेकिन जब तक वो मुझे पुकारेगी नहीं मैं जा नहीं सकता।"अत: द्रौपदी ने जैसे ही भगवान कृष्ण को पुकारा प्रभु तुरंत ही दौड़े गए।

  हम लोगो को पुकारना कहां आता हैं हम तो बस मांग या हुक्म देते हैं उसे हे भगवान मुझे गाड़ी दें,मेरी शादी कराओ, मुझे पैसे दे,मुझे बड़ा घर दें । सब माया के चक्कर में परेशान हैं। कुछ को तो अपनी आने वाली सात पीढ़ियों की चिंता है।

  धन सम्पत्ति इकट्ठा करो, चाहे, धर्म से मिलें या अधर्म से, लेकिन इकट्ठा करो, एक काम करते हैं आज अपने बच्चों से उनके परदादा का नाम पूछते हैं, देखिए कितने बच्चे जबाब दे पाते हैं, शायद कुछ ही, तो सोचो आपने जो यह सोचकर इकट्ठा किया है कि हमारे बच्चे हमारा नाम रोशन करेंगे, उनको आपका नाम भी नहीं मालूम है, हा नाम रोशन का एक तरीका है सकता है अपने जीते जी अपनी फोटो के नीचे मरक्यूरी बल्व आप ही लगा दो, अभी से आपका नाम और फोटो दोनों रोशन हो जायेगी।

अभी भी समय है ईश्वर का सहारा लो। 

  ऐसा हो ही नही सकता की भक्त पुकारे और भगवान न सुने। पुकार ही गलत हैं,पुकार में व्यक्ति का घमंड हैं।

जेहिके जेहि पर सत्य सनेहू। 

 सो तेहि मिलय न कछु सन्देहू।। 

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भागवत दर्शन: छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा।।
भागवत दर्शन
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