श्रीमद्भागवतकथा दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध) श्री बलरामजी का व्रजगमन श्रीशुक उवाच बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान् रथमास्थितः । सुहृद्दिदृक्षुरुत्कण्ठ...
श्रीमद्भागवतकथा
दशम स्कन्ध (उत्तरार्ध)
श्री बलरामजी का व्रजगमन
श्रीशुक उवाच
बलभद्रः कुरुश्रेष्ठ भगवान् रथमास्थितः ।
सुहृद्दिदृक्षुरुत्कण्ठः प्रययौ नन्दगोकुलम् ॥
भगवान बलराम जी के मन में व्रज के नन्दबाबा आदि स्वजन सम्बन्धियों से मिलने की बड़ी इच्छा और उत्कण्ठा थी। अब वे रथ पर सवार होकर द्वारका से नन्दबाबा के व्रज में आये। इधर उनके लिये व्रजवासी गोप और गोपियाँ भी बहुत दिनों से उत्कण्ठित थीं। उन्हें अपने बीच में पाकर सबने बड़े प्रेम से गले लगाया।
विष्णु पुराण में भी बलराम के श्री वृन्दावन जाने का वर्णन मिलता है-
कस्यचिदथ कालस्य स्मृत्वा गोपेषु सौहृदम्।
जगामैको व्रजं राम: कृष्णस्यानुमते स्थित: ॥
“ग्वालों के साथ प्रगाढ़ मैत्री का स्मरण करके एक बार भगवान् बलराम भगवान् कृष्ण से अनुमति लेकर अकेले ही व्रज गये।” वृन्दावन के भोले-भाले वासी व्यथित थे कि भगवान् कृष्ण अन्यत्र जाकर रहने लगे हैं इसलिए भगवान् बलराम उन लोगों को सान्त्वना देने वहाँ गये थे।
श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने इस प्रश्न का उत्तर दिया है कि शुद्ध प्रेम के महासागर भगवान् कृष्ण भी व्रज क्यों नहीं गये। उसकी व्याख्या करने के लिए उन्होंने दो श्लोक उद्धृत किये हैं—
प्रेयसी: प्रेमविख्याता: पितरावतिवत्सलौ।
प्रेमवश्यश्च कृष्णस्तांस्त्यक्त्वा न: कथमेष्यति ॥
इति मत्वैव यदव: प्रत्यबध्नन् हरेर्गतौ।
व्रजप्रेमप्रवर्धि स्वलीलाधीनत्वमीयुष: ॥
“यदुओं ने सोचा, “भगवान् की प्रेमिकाएँ अपने शुद्ध आह्लादमय प्रेम के लिए विख्यात हैं और उनके माता-पिता उनके प्रति अतीव वत्सल हैं। भगवान् कृष्ण शुद्ध प्रेम के वशीभूत हैं अतएव यदि वे उन्हें देखने जाते हैं, तो फिर वे किस तरह उन्हें छोडक़र हमारे पास वापस आ सकेंगे?” इस विचार से यदुओं ने भगवान् हरि को जाने से रोका। वे जानते थे कि वे उन लीलाओं के अधीन हो जाते हैं जिनमें वे व्रजवासियों के नित्यवर्धमान प्रेम का आदान-प्रदान करते हैं।”
परिष्वक्तश्चिरोत्कण्ठैर्गोपैर्गोपीभिरेव च ।
रामोऽभिवाद्य पितरावाशीर्भिरभिनन्दितः ॥
बलराम जी ने माता यशोदा और नन्दबाबा को प्रणाम किया। उन लोगों ने भी आशीर्वाद देकर उनका अभिनन्दन किया।
चिरं नः पाहि दाशार्ह सानुजो जगदीश्वरः ।
इत्यारोप्याङ्कमालिङ्ग्य नेत्रैः सिषिचतुर्जलैः ॥
यह कहकर कि ‘बलराम जी! तुम जगदीश्वर हो, अपने छोटे भाई श्रीकृष्ण के साथ सर्वदा हमारी रक्षा करते रहो, उनको गोद में ले लिया और अपने प्रेमाश्रुओं से उन्हें भिगो दिया। इसके बाद बड़े-बड़े गोपों को बलराम जी ने और छोटे-छोटे गोपों ने बलराम जी को नमस्कार किया।
समुपेत्याथ गोपालान् हास्यहस्तग्रहादिभिः ।
विश्रान्तं सुखमासीनं पप्रच्छुः पर्युपागताः ॥
वे अपनी आयु, मेल-जोल और सम्बन्ध के अनुसार सबसे मिले-जुले। ग्वालबालों के पास जाकर किसी से हाथ मिलाया, किसी से मीठी-मीठी बातें कीं, किसी को खूब हँस-हँसकर गले लगाया। इसके बाद जब बलराम जी की थकावट दूर हो गयी, वे आराम से बैठ गये, तब सब ग्वाल उनके पास आये। इन ग्वालों ने कमलनयन भगवान श्रीकृष्ण के लिये समस्त भोग, स्वर्ग और मोक्ष तक त्याग रखा था। बलरामजीने जब उनके और उनके घरवालोंके सम्बन्धमें कुशलप्रश्र किया, तब उन्होंने प्रेम-गद्गद वाणीसे उनसे प्रश्र किया -
कच्चिन्नो बान्धवा राम सर्वे कुशलमासते ।
कच्चित्स्मरथ नो राम यूयं दारसुतान्विताः ।।
‘बलराम जी! वसुदेव जी आदि हमारे सब भाई-बन्धु सकुशल हैं न? अब आप लोग स्त्री-पुत्र आदि के साथ रहते हैं, बाल-बच्चेदार हो गये हैं; क्या कभी आप लोगों को हमारी याद भी आती है? यह बड़े सौभाग्य की बात है कि पापी कंस को आप लोगों ने मार डाला और अपने सुहृद्-सम्बन्धियों को बड़े कष्ट से बचा लिया। यह भी कम आनन्द की बात नहीं है कि आप लोगों ने और भी बहुत-से शत्रुओं को मार डाला या जीत लिया और अब अत्यन्त सुरक्षित दुर्ग (किले) में आप लोग निवास करते हैं’।
गोप्यो हसन्त्यः पप्रच्छू रामसन्दर्शनादृताः ।
कच्चिदास्ते सुखं कृष्णः पुरस्त्रीजनवल्लभः ॥
भगवान बलराम जी के दर्शन से, उनकी प्रेम भरी चितवन से गोपियाँ निहाल हो गयीं,उन्होंने हँसकर पूछा- ‘क्यों बलराम जी! नगर-नारियों के प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण अब सकुशल ही हैं न ?
क्या कभी उन्हें अपने भाई-बन्धु और पिता-माता की भी याद आती है? क्या वे अपनी माता के दर्शन के लिये एक बार भी यहाँ आ सकेंगे? क्या महाबाहु श्रीकृष्ण कभी हम लोगों की सेवा का भी कुछ स्मरण करते हैं।
मातरं पितरं भ्रातॄन् पतीन् पुत्रान् स्वसॄनपि ।
यदर्थे जहिम दाशार्ह दुस्त्यजान् स्वजनान् प्रभो।।
आप जानते हैं कि स्वजन-सम्बन्धियों को छोड़ना बहुत ही कठिन है। फिर भी हमने उनके लिये माँ-बाप, भाई-बन्धु, पति-पुत्र और बहिन-बेटियों को भी छोड़ दिया। परन्तु प्रभो! वे बात-की-बात में हमारे सौहार्द और प्रेम का बन्धन काटकर, हमसे नाता तोड़कर परदेश चले गये; हम लोगों को बिलकुल ही छोड़ दिया। हम चाहतीं तो उन्हें रोक लेतीं; परन्तु जब वे कहते कि हम तुम्हारे ऋणी हैं- तुम्हारे उपकार का बदला कभी नहीं चुका सकते, तब ऐसी कौन-सी स्त्री है, जो उनकी मीठी-मीठी बातों पर विश्वास न कर लेतीं’।
एक गोपी ने कहा -
कथं नु गृह्णन्त्यनवस्थितात्मनो
वचः कृतघ्नस्य बुधाः पुरस्त्रियः ।
गृह्णन्ति वै चित्रकथस्य सुन्दर-
स्मितावलोकोच्छ्वसितस्मरातुराः ॥
‘बलराम जी! हम गाँव की गँवार ग्वालिनें ठहरीं, उनकी बातों में आ गयीं। परन्तु नगर की स्त्रियाँ तो बड़ी चतुर होती हैं। भला, वे चंचल और कृतघ्न श्रीकृष्ण की बातों में क्यों फँसने लगीं; उन्हें तो वे नहीं छका पाते होंगे।’
दूसरी गोपी ने कहा -
किं नस्तत्कथया गोप्यः कथाः कथयतापराः ।
यात्यस्माभिर्विना कालो यदि तस्य तथैव नः ॥
‘नहीं सखी, श्रीकृष्ण बातें बनाने में तो एक ही हैं। ऐसी रंग-बिरंगी मीठी-मीठी बातें गढ़ते हैं कि क्या कहना! उनकी सुन्दर मुसकुराहट और प्रेम भरी चितवन से नगर-नारियाँ भी प्रेमावेश से व्याकुल हो जाती होंगी और वे अवश्य उनकी बातों में आकर अपने को निछावर कर देती होंगीं’।
तीसरी गोपी ने कहा -
किं नस्तत्कथया गोप्यः कथाः कथयतापराः ।
यात्यस्माभिर्विना कालो यदि तस्य तथैव नः ॥
‘अरी गोपियों! हम लोगों को उसकी बात से क्या मतलब है? यदि समय ही काटना है तो कोई दूसरी बात करो। यदि उस निष्ठुर का समय हमारे बिना बीत जाता है तो हमारा भी उसी की तरह, भले ही दुःख से क्यों न हो, कट ही जायेगा’।
अब गोपियों के भाव-नेत्रों के सामने भगवान श्रीकृष्ण की हँसी, प्रेमभरी बातें, चारु-चितवन, अनूठी चाल और प्रेमालिंगन आदि मुर्तिमान् होकर नाचने लगे। वे उन बातों की मधुर स्मृति में तन्मय होकर रोने लगीं।
सङ्कर्षणस्ताः कृष्णस्य सन्देशैर्हृदयंगमैः ।
सान्त्वयामास भगवान्नानानुनयकोविदः ॥
भगवान बलराम जी नाना प्रकार से अनुनय विनय करने में बड़े निपुण थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के हृदयस्पर्शी और लुभावने सन्देश सुना-सुनाकर गोपियों को सान्त्वना दी।
विष्णु पुराण भी गोपियों के लिए बलराम द्वारा लाए गए कृष्ण के सन्देशों को बताने का वर्णन मिलता है -
सन्देशै साममधुरै प्रेमगर्भैरगर्वितै।
रामेणाश्वासिता गोप्य: कृष्णस्यातिमनोहरै ॥
“भगवान् बलराम ने गोपियों को भगवान् कृष्ण का सर्वाधिक मोहक सन्देश देकर सान्त्वना दी जिनमें मधुर अनुनय-विनय था और जो उनके प्रति शुद्ध प्रेम से प्रेरित थे और जिनमें रंचमात्र भी गर्व नहीं था।” श्रील जीव गोस्वामी यह भी टीका करते हैं कि संकर्षण नाम से यह अभिप्रेत है कि बलराम ने कृष्ण को अपने मन में प्रकट होने के लिए आकर्षित किया और इस तरह गोपियों को श्रीकृष्ण का दर्शन कराया। बलराम ने इस प्रकार से श्रीकृष्ण की प्रेमिकाओं को सान्त्वना दी।
द्वौ मासौ तत्र चावात्सीन्मधुं माधवं एव च ।
रामः क्षपासु भगवान् गोपीनां रतिमावहन् ॥
वसन्त के दो महीने- चैत्र और वैशाख वहीं बिताये। वे रात्रि के समय गोपियों में रहकर उनके प्रेम की अभिवृद्धि करते।
पूर्णचन्द्रकलामृष्टे कौमुदीगन्धवायुना ।
यमुनोपवने रेमे सेविते स्त्रीगणैर्वृतः ।।
क्यों न हो, भगवान राम ही जो ठहरे! उस समय कुमुदिनी कि सुगन्ध लेकर भीनी-भीनी वायु चलती रहती, पूर्ण चन्द्रमा की चाँदनी छिटककर यमुना जी के तटवर्ती उपवन को उज्ज्वल कर देती और भगवान बलराम गोपियों के साथ वहीं विहार करते।
वरुणप्रेषिता देवी वारुणी वृक्षकोटरात् ।
पतन्ती तद्वनं सर्वं स्वगन्धेनाध्यवासयत् ।।
वरुणदेव ने अपनी पुत्री वारुणी देवी को वहाँ भेज दिया था। वह एक वृक्ष के खोडर से बह निकली। उसने अपनी सुगन्ध से सारे वन को सुगन्धित कर दिया। मधु धारा की वह सुगन्ध वायु ने बलराम जी के पास पहुँचायी, मानो उसने उन्हें उपहार दिया हो। उसकी महक से आकृष्ट होकर बलराम जी गोपियों को लेकर वहाँ पहुँचे गये और उनके साथ उसका पान किया।
श्रीधर स्वामी बतलाते हैं कि "वारुणी शहद के आसवन से प्राप्त एक द्रव है।"
श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती कहते हैं कि वरुण-पुत्री देवी वारुणी उस विशेष दैवी पेय की अधिष्ठात्री है। वे श्री हरिवंश से निम्नलिखित उद्धरण भी देते हैं—"समीपं प्रेषिता पित्रा वरुणेन तवानघ।"
यहाँ देवी वारुणी बलराम से कहती है, “हे निष्पाप! मेरे पिता वरुण ने मुझे आपके पास भेजा है।
उपगीयमानचरितो वनिताभिर्हलायुध ।
वनेषु व्यचरत्क्षीवो मदविह्वललोचनः ॥
उस समय गोपियाँ बलराम जी के चारों ओर उनके चरित्र का गान कर रही थीं, और वे मतवाले-से होकर वन में विचर रहे थे। उनके नेत्र आनन्दमद से विह्वल हो रहे थे। गले में पुष्पों का हार शोभा पा रहा था। वैजयन्ती की माला पहने हुए आनन्दोन्मत्त हो रहे थे। उनके एक कान में कुण्डल झलक रहा था। मुखारविन्द पर मुसकराहट की शोभा निराली ही थी। उस पर पसीने की बूँदें हिमकण के समान जान पड़ती थीं।
स आजुहाव यमुनां जलक्रीडार्थमीश्वरः ।
निजं वाक्यमनादृत्य मत्त इत्यापगां बलः ॥
अनागतां हलाग्रेण कुपितो विचकर्ष ह ॥
सर्वशक्तिमान् बलराम जी ने जलक्रीड़ा करने के लिये यमुना जी को पुकारा। परन्तु यमुना जी ने यह समझकर कि ये तो मतवाले हो रहे हैं, उनकी आज्ञा का उल्लंघन कर दिया,वे नहीं आयीं, तब बलराम जी ने क्रोधपूर्वक अपने हल की नोक से उन्हें खींचा और कहा -
पापे त्वं मामवज्ञाय यन्नायासि मयाहुता ।
नेष्ये त्वां लाङ्गलाग्रेण शतधा कामचारिणीम्।।
‘पापिनी यमुने! मेरे बुलाने पर भी तू मेरी आज्ञा का उल्लंघन करके यहाँ नहीं आ रही है, मेरा तिरस्कार कर रही है! देख, अब मैं तुझे तेरे स्वेच्छाचार का फल चखाता हूँ। अभी-अभी तुझे हल की नोक से सौ-सौ टुकड़े किये देता हूँ’,जब बलराम जी ने यमुना जी को इस प्रकार डाँटा-फटकारा, तब वे चकित और भयभीत होकर बलराम जी के चरणों पर गिर पड़ीं और गिड़गिड़ाकर प्रार्थना करने लगीं -
राम राम महाबाहो न जाने तव विक्रमम् ।
यस्यैकांशेन विधृता जगती जगतः पते ।।
‘लोकाभिराम बलराम जी! महाबाहो! मैं आपका पराक्रम भूल गयी थी। जगत्पते! अब मैं जान गयी कि आपके अंशमात्र शेष जी इस सारे जगत् को धारण करते हैं।
परं भावं भगवतो भगवन्मामजानतीम् ।
मोक्तुमर्हसि विश्वात्मन् प्रपन्नां भक्तवत्सल ॥
भगवन्! आप परम ऐश्वर्यशाली हैं। आपके वास्तविक स्वरूप को न जानने के कारण ही मुझसे यह अपराध बन गया है। सर्वस्वरूप भक्तवत्सल! मैं आपकी शरण में हूँ। आप मेरी भूल-चूक क्षमा कीजिये, मुझे छोड़ दीजिये’,यमुना जी कि प्रार्थना स्वीकार करके भगवान बलराम जी ने उन्हें क्षमा कर दिया और फिर जैसे गजराज हथिनियों के साथ क्रीडा करता है, वैसे ही वे गोपियों के साथ जलक्रीड़ा करने लगे।
कामं विहृत्य सलिलादुत्तीर्णायासीताम्बरे ।
भूषणानि महार्हाणि ददौ कान्तिः शुभां स्रजम् ॥
जब वे यथेष्ट जल-विहार करके यमुना जी से बाहर निकले, तब लक्ष्मी जी ने उन्हें नीलाम्बर, बहुमूल्य आभूषण और सोने का सुन्दर हार दिया।
श्रीधर स्वामी ने विष्णु पुराण से उद्धरण देकर यह दर्शाया है कि यहाँ पर उल्लिखित देवी कान्ति वास्तव में देवी लक्ष्मी हैं—
वरुणप्रहिता चास्मै मालामम्लानपङ्कजाम्।
समुद्राभे तथा वस्त्रे नीले लक्ष्मीरयच्छता ॥
“वरुण द्वारा भेजी गई देवी लक्ष्मी ने उन्हें न मुरझाने वाले कमल-पुष्पों की माला तथा समुद्र की भाँति नीले रंग वाले वस्त्रों की जोड़ी भेंट की।”
भागवत के महान् टीकाकार श्रीधर स्वामी ने देवी लक्ष्मी द्वारा बलराम से कहे गये कथन को श्री हरिवंश से भी उद्धृत किया है---
जातरूपमयं चैकं कुण्डलं वज्रभूषणम्।
आदिपद्मं च पद्माख्यं दिव्यं श्रवणभूषणम्।
देवेमां प्रतिगृह्णीष्व पौराणीं भूषणक्रियाम् ॥
“हे स्वामी! आप दैवी आभूषणों के रूप में अपने कानों के लिए यह हीरे से जड़ा हुआ सोने का एक कुण्डल और पद्म कहलाने वाला यह आदि कमल स्वीकार करें। कृपया इन्हें स्वीकार करें क्योंकि अलंकरण का यह कार्य परम्परागत है।”
वसित्वा वाससी नीले मालामामुच्य काञ्चनीम् ।
रेये स्वलङ्कृतो लिप्तो माहेन्द्र इव वारण: ॥
बलराम जी ने नील वस्त्र पहन लिये और सोने की माला गले में डाल ली। वे अंगराग लगाकर, सुन्दर भूषणों से विभूषित होकर इस प्रकार शोभायमान हुए मानो इन्द्र का श्वेतवर्ण ऐरावत हाथी हो।
अद्यापि दृश्यते राजन् यमुनाकृष्टवर्त्मना ।
बलस्यानन्तवीर्यस्य वीर्यं सूचयतीव हि ॥
यमुना जी अब भी बलराम जी के खींचे हुए मार्ग से बहती हैं और वे ऐसी जान पड़ती हैं, मानो अनन्तशक्ति भगवान बलराम जी का यश-गान कर रही हों।
एवं सर्वा निशा याता एकेव रमतो व्रजे ।
रामस्याक्षिप्तचित्तस्य माधुर्यैर्व्रजयोषिताम् ॥
बलराम जी का चित्त व्रजवासिनी गोपियों के माधुर्य से इस प्रकार मुग्ध हो गया कि उन्हें समय का कुछ ध्यान न रहा, बहुत-सी रात्रियाँ एक रात के समान व्यतीत हो गयीं। इस प्रकार बलराम जी व्रज में विहार करते रहे।
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