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अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥ नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥

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   ऐसे विकार रहित प्रभु के हृदय में रहते हुए भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी हैं। नाम का निरूपण करके (नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्...

   ऐसे विकार रहित प्रभु के हृदय में रहते हुए भी जगत के सब जीव दीन और दुःखी हैं। नाम का निरूपण करके (नाम के यथार्थ स्वरूप, महिमा, रहस्य और प्रभाव को जानकर) नाम का जतन करने से (श्रद्धापूर्वक नाम जप रूपी साधन करने से) वही ब्रह्म ऐसे प्रकट हो जाता है, जैसे रत्न के जानने से उसका मूल्य॥

द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्चाक्षर एव च ।

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थोऽक्षर उच्यते ॥

 जीव दो प्रकार हैं - च्युत तथा अच्युत भौतिक जगत् में प्रत्येक जीव च्युत (क्षर) होता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रत्येक जीव अच्युत कहलाता है । रहता कहां है भगवान ? अस प्रभु हृदय अक्षत अविकारी

ऐसा प्रभु सबके हृदय देश में वास करता है । अविकारी, आपके विकारों से कोई लेना-देना नहीं है। हृदय में निवास करता है। फिर भी लोग दीन और दुखी हैं। भला इसे प्राप्त कैसे करें जो सुखी हो जांय।

नाम निरुपन नाम यतन ते ।

सो प्रगटत जिमि मोल रतन ते ॥

पहले नाम का निरुपण करो, नाम है। किस प्रकार ? खेत की निराई करते हो तो अनुकूल फसल रखते हो प्रतिकूल हटा देते हो।

 नाम भी एक जंजाल हो गया। पहले उसकी निराई करो, निरुपण करो कि नाम होता किस प्रकार है ? और जब समझ काम कर जाय तो यत्न करो, अभ्यास करो सर्मपण, श्रद्धा के साथ। वो प्रगट हो जायेगा। भगवान को ढूढ़ने के लिए किसी धाम जाने की जरुरत नहीं। जब कभी किसी ने पाया तो हृदय देश में पाया ।

  उक्त चौपाई निर्गुण निराकार ब्रह्म के समर्थक -

ब्यापकु एक ब्रह्म अबिनासी।

सत चेतन घन आनंद रासी ॥

और सगुण साकार ब्रह्म के समर्थक -

नाम निरूपन नाम जतन तें।

सोउ प्रकटत जिमि मोल रतन तें ॥

के बीच संवाद की कड़ी है -

उभय प्रबोधक चतुर दुभाषी।

 नाम और रूप की गति की कहानी (विशेषता की कथा) अकथनीय है। वह समझने में सुखदायक है, परन्तु उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। निर्गुण और सगुण के बीच में नाम सुंदर साक्षी है और दोनों का यथार्थ ज्ञान कराने वाला चतुर दुभाषिया है ।

हम निर्गुण मत वालों से प्रश्न कर रहे हैं कि आप कहते हो कि ब्रह्म तो सर्वव्यापक और एक है, अविनाशी है, सत- तमोगुण, रजोगुण रहित केवल सतोगुण है, चेतन - मनुष्य, पशु पक्षी, वृक्ष आदि में जड़ता है लेकिन ब्रह्म केवल चेतन है। घन - सत, चित, आनंद घन है, आनंद के भंडार है । ब्रह्म हमारे हृदय में विराजमान हैं।

इहैव तैर्जितः सर्गो येषां साम्ये स्थितं मनः।

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्माद्ब्रह्मणि ते स्थिताः ॥

 जिनका मन समत्वभाव में स्थित है, उनके द्वारा यहीं पर यह सर्ग जीत लिया जाता है; क्योंकि ब्रह्म निर्दोष और सम है इसलिये वे ब्रह्म में ही स्थित हैं। तो मैं आपकी बात का खंडन नहीं करता हूं , आपका कथन बिल्कुल सत्य है।लेकिन मेरा एक प्रश्न है कि जब हमारे अंदर अविकारी बैठा हुआ है तो भी हम दुखी क्यों हैं ?

सकल जीव जग दीन दुखारी॥

अर्थात समुद्र के अंदर के सीप प्यासा क्यों है ? स्वयं निर्गुण निराकार ब्रह्म के समर्थक कबीर दास भी कहते हैं कि -

कस्तूरी कुंडली बसै मृग ढूंढै बन माहीं।

ऐसे घटी घटी राम हैं दुनिया देखै नाहीं ॥

  कस्तूरी मृग के नाभि में ही कस्तूरी है, दूध के अंदर ही मक्खन है लेकिन घी प्रकट होने पर ही उपयोगी होगा, काष्ट के अंदर आग है, परंतु आग प्रकट होने पर ही उपयोगी होगा, गन्ने के अंदर ही गुड़ के मूल तत्व है। लेकिन गुड़ की प्राप्ति के लिए गन्ने से मिठास निकालना होगा। परंतु उसे बिना प्रकट किए हम पा सकते हैं क्या ? प्रमाण के लिए प्रकटीकरण आवश्यक है कि नहीं ? हे निर्गुण निराकार समर्थकों! आपके सगुण होने का सबसे बड़ा प्रमाण यही है कि आप भले ही ब्रह्म को निर्गुण निराकार कहते हो लेकिन ब्रह्म के सत्ता को स्वीकार करते हो।

  माना कि मेरे पास सौ ग्राम सोना है और मैं उसे बेच कर साल भर के लिए भोजन खरीद सकता हूं। लेकिन केवल सोचने, मानने से मेरा पेट भरेगा या सोने के बदले अन्न लाने से ? और ये प्रकटीकरण ही तो निर्गुण निराकार को सगुण साकार करना है। मनु सतरूपा ने यही तो किया -

अगुन अखंड अनंत अनादी।

जेहि चिंतहिं परमारथबादी॥

नेति नेति जेहि बेद निरूपा।

निजानंद निरूपाधि अनूपा॥

ऐसेउ प्रभु सेवक बस अहई।

भगत हेतु लीला तनु गहई"॥

आप कहते हो कि ईश्वर निर्गुण निराकार है तो ये सत्य है लेकिन आप ये कैसे कह सकते कि ईश्वर सगुण साकार नहीं हो सकते हैं ?

जो गुन रहित सगुन सोइ कैसें।

जल हिम उपल बिलगु नहिं जैसें॥

  मेरा मानो क्योंकि जैसे जल और बर्फ अलग नहीं हैं उसी प्रकार निर्गुण निराकार और सगुण साकार अलग अलग नहीं हैं।

करम बचन मन छाड़ि छलु जब लगि जनु न तुम्हार।

तब लगि सुखु सपनेहुँ नहीं किएँ कोटि उपचार॥

  जब तक कर्म, वचन और मन से छल छोड़कर मनुष्य आपका दास नहीं हो जाता, तब तक करोड़ों उपाय करने से भी, स्वप्न में भी वह सुख नहीं पाता।

  मन, कर्म और वचन से कपट का त्याग करके जब तक कोई एक परमात्मा का जन नहीं हो जाता, तब तक - सुख सपनेहुँ नाहीं। उसे स्वप्न में भी सुख नहीं मिल सकता है -किएँ कोटि उपचार।

अन्य करोड़ों उपचार करे तब भी नहीं मिल सकता। किन्तु हम उपचार करते हैं। 

सोइ सर्बग्य गुनी सोइ ज्ञाता।

सोइ महि मण्डित पण्डित दाता॥

धर्म- परायन सोइ कुल त्राता।

राम चरन जा कर मन राता॥

   वह सर्वज्ञ है, धर्म का मर्मज्ञ है, विशेषज्ञ है, गुणी और ज्ञाता है, पृथ्वी में सम्मानित पुरुष और दानदाता है (उसके पास देने लायक सामग्री है)। कौन ? 

राम चरन जा कर मन राता। राम, एक परम प्रभु के चरण-कमल में जिसका मन अनुरक्त है।

  परमात्मा बस एक क़दम दूर है पर वह एक दिन नित्य नया होता रहता है। जीव जब परमहंस रामकृष्ण की तरह व्याकुल होता है, जो देवी माँ के सामने फूट फूट कर रो थे कि माँ ! आज का दिन भी चला गया आज भी भगवान नहीं मिले, तब कहीं वह एक दिन भी आता है और फिर जीव भी परमात्मा ही हो जाता है। 

मौत का एक दिन मुयस्सर है।

 नींद क्यों रात भर नहीं आती ॥

अचानक कुछ होता है। सभी के हृदय में एक क़िस्म की प्रसन्नता का आभास होता है। सबसे बड़ा ज्योतिषी व्यक्ति का हृदय होता है। सबसे पहले मंगल या अमंगल की सूचना हमारा हृदय ही देता है, वशर्ते हम उसके क़रीब रहते हो। हम तो अधिकतर दिमाग़ के क़रीब रहते हैं, मन के पास रहते हैं। दिल की बात कम सुनते हैं। यह हमारे दुखों का कारण भी है। सबसे अधिक संवेदनशील उपकरण हमारा हृदय ही है जो भविष्य की सटीक जानकारी रखता है। प्रकृति की भी अपनी मूक भाषा है जो अच्छे बुरे, छोटे बड़े सभी को समान रूप से भविष्य के प्रति सचेत करती रहती है। इसे सगुन या अपसगुन कहते हैं। बस हमारे समझने का फर्क है -

ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।

भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया ॥

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भागवत दर्शन: अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥ नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
अस प्रभु हृदयँ अछत अबिकारी। सकल जीव जग दीन दुखारी॥ नाम निरूपन नाम जतन तें। सोउ प्रगटत जिमि मोल रतन तें॥
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