एक था कंजूस

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  एक नगर के बहुत बड़े सेठ का आज देंहात हो गया। उसका एक बेटा था जो सोचने लगा कि कौन आयेगा मेरे पिताजी की मिट्टी में। जीवन भर तो इन्होनें कोई पुण्य, कोई दान धर्म नही किया बस पैसे के पीछे भागते रहे, सब लोग कहते है ये तो कंजूसों के भी कंजूस थे, फिर कौन इनकी अंतिम यात्रा में शामिल होगा।

 खैर जैसा तैसा कर रिश्तेदार, कुछ मित्र मिट्टी में शामिल हुये पर वहाँ भी वही बात। सब एक दूसरे से कहने लगे बड़ा ही कंजूस शख्स था। कभी किसी की मदद नही की हर वक्त बस पैसा-पैसा। यहाँ तक की घरवालों, रिश्तेदारों, तक को भी पैसे का एक-एक हिसाब ले लेता था। कभी कालोनी के किसी भी कार्यकम्र में एक रूपये नही दिया। हर वक्त बस ताने दिये कि खुद से कर लिया करो। आज देखों दो चार लोग बस इनकी मिट्टी पर आये हैं।

 बहुत देर मिट्टी रोकने के बाद कंजूस सेठ के बेटे को किसी ने कहा - अब कोई नही आयेंगा। इन्हें कोई पसंद नही करता था। एक नम्बर के कंजूस थे,कौन आयेगा इनकी मिट्टी पर। अब श्मशान ले जाने की तैयारी करो बेटे ने हामी भर दीऔर शरीर को लोग उठाने लगें।

  पर एकाएक उनकी नजर सामने आती भीड़ पर पड़ी, कोई अंधा, कोई लगड़ा, हजारो की संख्या में महिलाए, बुजर्ग बच्चें, सामने नजर आने लगें, और उस कंजूस सेठ के शरीर के पास आकर फूट_फूट कर रोने लगे, ये कहकर मालिक अब हमारा क्या होगा। आप ही तो हमारे माई_बाप थे। कैसें होगा अब, सारे बच्चों ने उस कंजूस सेठ का पैर पकड़ लिया और बिलख-बिलख कर रोने लगे। सेठ के बेटे से रहा नही गया, उसने पूछ बैठा कौन है आप सब और क्यूं रो रहें हैं।

  पास ही खड़े कंजूस सेठ के मुनीम ने कहा, ये है तुम्हारे पिता की कमाई, कंजूसीयत, ये लोग देख रहें हो,, कोई अंधा कोई अपाहिज, लड़कियाँ, महिलाएँ, बच्चें तुम्हारे पिता ने ये कमाया है सारी उम्र। 

 तुम जिसें कंजूस कहते हो ये रिश्तेदार, पड़ोसी मित्र जिसे महाकंजूस कहता हैं। इन झुग्गी झोपड़ी वालो से पूछो, ये बताएंगे, ये कितने दानी थे।

  कितने वृद्धाश्रम, कितने स्कूल, कितनी लड़कियों की शादी, कितनो को भोजन कितनो को नया जीवन आपके इस कंजूस बाप ने दिया हैं, ये वो भीड़ है जो दिल से आयी हैं। आपके रिश्तेदार पडोसी जैसे नही, जो रस्म पूरी करने के लिए आये हैं।

  फिर उसके बेटे ने पूछा - पिताजी ने मुझे ये सब क्यू नहीं बताया, क्यूं हमें एक-एक पैसे के लिए तरसाते रहे, क्यूँ, कालोनी के किसी भी कार्यकम्र में एक भी मदद नही की ?

  मुनीम ने कहा - तुम्हारे पिताजी चाहते थे, तुम पैसों की कीमत समझो, अपनी खुद की कमाई से सारा बोझ उठाओ, तभी तुम्हें लगें की हाँ पैसा कहा खर्च करना है और क्यूं ?

फिर मुनीम ने कहा, ये कालोनी वाले ये मित्र, ये रिश्तेदार, कभी स्वीमिंग पूल के लिए, कभी शराब, शबाब के लिए, कभी अपना नाम ऊंचा करने के लिए, कभी मंदिरों में अपना नाम लिखवाने के लिए, चंदा मांगते थे। पूछों इन सब से कभी वो आये इनके पास की सेठ किसी गरीब, बच्ची की शादी, पढाई, भोजन अंधा की ऑख, अपहिजों की साईकिल, किसी गरीब की छत, इनके लिए कभी नही आये, ये तो आये बस खुद को दूसरो से ऊंचा दिखाने के लिए, मौज मस्ती में पैसा उड़ाने के लिए।

  आज ये भीड़ है ना वो दिल से रो रही हैं, क्यूँकि उन्होने वो इंसान खोया हैं, जो कई बार खुद भूखे रहकर, इन गरीबों को खाना खिलाया है, ना जाने कितनी सारी बेटियों की शादी करवाई, कितने बच्चों का भविष्य बनाया, पर हाँ तुम्हारे कालोनी वालो की किसी भी फालतू फरमाईश में साथ नही दिया।

  अगर तुम समझते हो ये कंजूस हैं तो सच हैं, इन्होने कभी किसी गरीब को छोटा महसूस नही होने दिया, उनकी इज्जत रखी, ये कंजूसीयत ही है।

आज हजारों ऑखें रो रही हैं, इन चंद लोगो से तुम समझ रहें हो तुम्हारे पिता कंजूस है तो तुम अभागें हो।

  बेटे ने तुरंत अपने पिता के पैर पकड़ लिए और पहली बार दिल से रोकर कहने लगा, बाबूजी आप सच में बहुत कंजूस थे, आपने अपने सारे नेक काम कभी किसी से नही बाँटे आप बहुत कंजूस थे । किसी महान आदमी ने कहा हैं  - नेकी कर और दरिया में डाल ॥

 नेक काम ऐसा होना चाहिए की एक हाथ से करें, तो दूसरे को पता ना चलें ।

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