अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥

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अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति। सब तजि भजनु करौं दिन राती॥ सुनि बिराग संजुत कपि बानी। बोले बिहँसि रामु धनुपानी॥ हे प्रभो अब तो इस प्रकार...

अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति।

सब तजि भजनु करौं दिन राती॥

सुनि बिराग संजुत कपि बानी।

बोले बिहँसि रामु धनुपानी॥

हे प्रभो अब तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूँ।

  वैराग्य शब्द भी बड़ा अनूठा है। भारतीय संस्कृति में जिन शब्दों की व्याख्या में लोग खूब भ्रम में पड़े हैं, उनमें से एक है वैराग्य। इसको लेकर लोगों ने अपनी-अपनी व्याख्याएं कर रखी हैं। किसी ने कहा संपूर्ण त्याग का मतलब वैराग्य है। कोई कहता है अतिरिक्त संतोष वैराग्य है। 

किसी का मानना है अपना काम जितने में चल जाए, और अधिक की आकांक्षा न रहे, इसका नाम वैराग्य है। भजन-पूजन के क्षेत्र में तो इस शब्द को खूब उछाला जाता है। सुग्रीव भी ऐसा ही कर रहे थे। सुग्रीव श्रीराम के सामने बालि का नाम लेकर वैराग्य की नई व्याख्या कर रहे थे। 

बालि परम हित जासु प्रसादा।

मिलेहु राम तुम्ह समन बिषादा॥

 हे श्रीरामजी, बालि तो मेरा परम हितकारी है जिसकी कृपा से शोक का नाश करने वाले आप मुझे मिले। 

अब प्रभु कृपा करहु एहि भांती।

सब तजि भजनु करौं दिन राती ॥

सुनि बिराग संजुत कपि बानी।

बोले बिहंसि रामु धुनपाती॥

  हे प्रभु, अब तो इस प्रकार कृपा कीजिए कि सब छोड़कर दिन-रात मैं आपका भजन ही करूं। सुग्रीव की वैराग्ययुक्त वाणी सुनकर हाथ में धनुष धारण करने वाले श्रीरामजी मुस्कुराकर बोले। 

  यहां उनका हंसना बड़ा महत्वपूर्ण है। श्रीराम जैसे व्यक्ति किसी पर व्यंग्य नहीं करते, लेकिन जैसे बच्चे की नादानी पर माता-पिता को हंसी आ जाती है, ऐसे ही सुग्रीव के वैराग्य दर्शन को सुनकर श्रीराम मुस्कुरा दिए, क्योंकि यह क्षणिक वैराग्य था।

   इसको लोक भाषा में श्मशान वैराग्य भी कहते हैं। बहुत सारे लोगों को ऐसा ही घटता है। अपनी सुविधा से चीजों को छोड़ा तो वैराग्य नाम दे दिया। अपनी इच्छा से चीजों को प्राप्त कर लिया तो भी वैराग्य नाम दे दिया।

  श्रीराम जी की हँसी क्यों प्रस्फुटित हुई अब इस पर विषय पर विवेचना तो आवश्यक प्रतीत होती है। श्रीराम जी इसलिए हँस देते हैं कि सुग्रीव कितना नादान-सा है। कुछ ही समय पहले जिसे अपने जीवन के क्रिया−कलापों की समझ नहीं आ रही थी, कि उसे क्या करना चाहिए क्या नहीं?

  श्री हनुमान जी के पुनीत भावों के चलते सुग्रीव आज श्रीराम जी के पावन चरणों में है। सुग्रीव के भाव कड़वी तुमड़ी से मीठे शहद तक की यात्रा करते हैं। कहो तो उसे श्रीराम बाली के द्वारा उसे मारने वाले प्रतीत हो रहे थे। कहाँ आज प्रभु बालि को ही मारने वाले पात्रा में सुशोभित हो उठे। विगत अंक के भावों की लड़ी को जोड़ें तो हम पाते हैं कि श्रीराम का बल व सामर्थ्य जानने के पश्चात् सुग्रीव के भीतर वैराग्य की धूनी जग उठी। श्रद्धा सातवें आसमां पर जा बिराजी। और सुग्रीव श्रीराम को माया व जगत की नश्वरता पर बड़े−बड़े व्याख्यान सुनाने लगा।

अब प्रभु कृपा करहु एहि भाँति।

सब तजि भजनु करौं दिन राती।।

  सुग्रीव जो अब तक इसे ही कृपा समझ रहा था कि संसार का मिलना बहुत बड़ी कृपा है। अचानक कह उठा कि प्रभु अब मुझ पर आप कुछ इस प्रकार से कृपा करें कि मैं सारी मोह माया त्याग कर केवल आज आपका भजन करूँ। निःसंदेह सुग्रीव यहाँ बात तो बड़ी ज्ञान व वैराग्य की कर रहा है। और श्रीराम को यहाँ सुंदर आध्यात्मिक अवस्था दिखनी भी चाहिए थी। लेकिन श्रीराम जी की तो उल्टा हँसी ही निकल गई−

सुनि बिराग संजुत कपि बानी।

बोले बिहँसि रामु धनुपानी।।

  श्रीराम जी की हँसी क्यों प्रस्फुटित हुई अब इस पर विषय पर विवेचना तो आवश्यक प्रतीत होती है। श्रीराम जी इसलिए हँस देते हैं कि सुग्रीव कितना नादान-सा है। कुछ ही समय पहले जिसे अपने जीवन के क्रिया−कलापों की समझ नहीं आ रही थी, कि उसे क्या करना चाहिए क्या नहीं?

 वही सुग्रीव अब मुझे यह तक समझाने की समझ रख रहा है, कि कृपा बेशक मुझे करनी है। लेकिन कब और कैसे करनी है? इसका दिशा निर्देश भी अब मुझे सुग्रीव ही देगा।

अब प्रभु कृपा करहु इहि भाँति॥

 इसका यही तो अर्थ हुआ न कि तुम मुझे कृपा करने के तौर तरीके समझाने चले हो। यह देख मुझे हँसी नहीं आएगी तो और क्या होगा? क्योंकि किसी पर कृपा कब और क्यों करनी चाहिए, यह विषय और चिंतन जीव का थोड़ी होता है। यह तो बस प्रभु का मन है, वे चाहें तो किसी कौवे के रूप में काकभुशुण्डि जी से पक्षी राज गरूड़ को भी उपदेश दिलवा देते हैं। और प्रभु न चाहें तो गरूड़ भी एक शुद्र पतंगे की मामूली उड़ान से भी पराजित हो जाता है।

किआ हँसु किआ बगुला जा कउ नदरि करेइ।

जो तिसु भावै नानका कागहु हँसु करेइ।।

जीव को कब और क्या चाहिए यह उसको थोड़ी भान होता है। जीव जिसमें अपना कल्याण समझता है हो सकता है कि उसी में उसका अहित छुपा हो। संसार में कौन जीव दुखों की चाहना व प्राप्ति का प्रयास करता है। सांसारिक सभी अपने समस्त क्रियाकलाप मात्र सुख को केन्द्र बिंदु मानकर ही तो करते हैं। लेकिन फिर भी क्यों संसार में अधिकांश जीव दुःखी हैं। यद्यपि दुःख प्राप्ति का तो उन्होंने प्रयास ही नहीं किया−

यतन बहुत सुख के किए। दुःख का किया न कोय।

तुलसी यह असचरज है अधिक−अधिक दुःख होय।।

  अर्जुन तो चाह रहा है कि कुरूक्षेत्र का युद्ध न हो। मेरे सभी सगे−संबंधी जीवित रहें, कहीं कोई रक्तपात न हो। लेकिन सुंदर से दिखने वाले अर्जुन के इन सुंदर भावों को क्या श्री कृष्ण जी ने माना? नहीं न, अपितु यही कहा कि अर्जुन तू अपनी मन−बुद्धि का त्याग कर दे।

 क्योंकि तू वास्तव में कुछ जानता ही नहीं। तुम संसार में स्वयं से जुड़ी जीवन की एक सीमित-सी काल परिधि के बारे में ही सोच रहे हो। यद्यपि तुम अनभिज्ञ हो कि आज से पहले तुम्हारे और मेरे एक नहीं अपितु असंख्य जन्म हो चुके हैं। तुम्हें उन सबका विस्मरण हो चुका है और मुझे सब कुछ याद है -

बहूनि मे व्यतीतानि जन्मानि तव चार्जुन।

तान्यहं वेद सर्वाणि न त्वं वेत्थ परन्तप।।

  तुम्हें लग रहा है कि अपनों के वध का तुम्हें पाप लगेगा। पाप पुण्य के इन्द्रजाल में तुम पूर्णतः उलझ चुके हो। तुम्हारा चिंतन तो केवल इसी जन्म के अनुभव पर आधरित है। यद्यपि मैं तो सब के असंख्य जन्मों के लेखे−जोखे को जानता हूँ। और उसी आधार पर मुझे निर्णय करना होता है कि किसे मृत्यु देनी है और किसे जीवनदान। इसलिए मुझे व्यर्थ में यह निर्देश मत करो कि मुझे कैसे और क्या करना है ? अपितु तू वह कर जो मैं तुझे आदेश दे रहा हूँ। तू मेरे हाथों का यंत्र बन, सुख, दुःख, लाभ−हानि, जय−पराजय इन सबमें सम रहता हुआ युद्ध को तत्पर हो। निश्चित है कि पाप तुम्हें छूएगा भी नहीं−

सुखदुखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ।

ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।।

  श्री कृष्ण अर्जुन को अनेकों तर्कों व सिद्धांतों से समझा रहे हैं। और अर्जुन है कि प्रभु पर अपने ही सिद्धांत थोपने पर अड़ा हुआ है। जब तक अर्जुन यूं ही अड़ा रहा हम देखते हैं कि अर्जुन का मोह भंग नहीं हुआ। उल्टा मन में विचलता व असमंजस की स्थिति बढ़ती गई। लेकिन जैसे ही अर्जुन ने अपने आधारहीन विचार श्री कृष्ण को देने बंद किए। और उनके आदेश की पालना व अनुसरण धरण किया तो श्री कृष्ण उसे तत्काल परम योग विद्या प्रदान करते हैं। और अर्जुन का मोह भंग होता है। उसी क्षण अर्जुन अपना गांडीव उठा युद्ध को तत्पर हो महान यश व कीर्ति को प्राप्त होता है। 

  ठीक इसी प्रकार श्रीराम जी भी सुग्रीव को यश व कीर्ति प्रदान करना चाहते हैं। बालि के वध व सुग्रीव को किष्किंधा नरेश बनाने का वचन भी दे चुके हैं। और सुग्रीव हैं कि अर्जुन की तरह अपने ही मनगढ़ंत सिद्धांत पर अड़ गए। और प्रभु को ही समझाने लगे हुए हैं कि प्रभु आप तो बस यही कृपा करो कि मैं सब छोड़ कर मात्र आपकी भक्ति करूँ।


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