कर्दम देवहूति विवाह -भागवत

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
0

  स्वयंभू मनु महाराज की पुत्री, जो फूलों में पली राजकुमारी देवहूति, इतने बड़े वैभवशाली महाराज की पुत्री, जिसकी शादी ऐसे पुरुष के साथ हो रही है जिसके पास रहने के लिये मकान तक नहीं, वह भी एक शर्त के साथ कि एक पुत्र होते ही हम गृहस्थ जीवन को छोड़ देंगे, यह बात मंजूर हो तो शादी करें।

  कर्दम को भगवान् श्री हरि ने वरदान दिया था मैं स्वयं पुत्र के रूप में आप के घर जन्म लूंगा, कर्दमजी ने सोचा कि पुत्र तो स्वयं भगवान् ही बनकर आयेंगे, फिर दूसरे पुत्र की कामना क्यों रखूं, इसलिये वो बोले कि एक पुत्र के होते ही हम गृहस्थ जीवन का त्याग कर देंगे, स्वयंभू मनु ने स्वीकृति दे दी, देवहूती का विवाह कर्दम ऋषि के साथ हो गया, राजकुमारी है उनकी पत्नी, अपनी पत्नी को लेकर अपनी पर्णकुटी में आये।

  एकदम नितांत जंगल में घास की छोटी सी पर्णकुटी, देवहूती ने जैसे ही अपने पति की कुटी में प्रवेश किया तो ऊपर की ओर देखने पर, वहां कम से कम पचास घोंसले बने हैं पक्षियों के, उनमें सुन्दर-सुन्दर चिड़ियाँ कलरव कर रही हैं, देवहूति ने पूछा पतिदेव यह क्या है? कर्दम ऋषि बोले देवी ये पक्षी इसे अपनी ही कुटिया समझते है न, इसलिये सब यहीं रहते है।

  नीचे देखा तो पचासों बिल चूहों के बने है, देवहूति ने पूछा- ये क्या है ऋषिवर! कर्दमजी बोले- देवी ये सांप, चूहे, मेंढक सब इस कुटिया को अपना ही समझते है, इसलिये सपरिवार यहीं रहते हैं, देवहूति ने कहा- पतिदेव सात बाई सात फिट की कुटिया में पक्षी रहते है, चुहें भी रहते है, नीचे सैंकड़ों जीव भी इसी में रहते है तो फिर आप कहां रहते हैं? 

  कर्दमजी बोले- वो कोने में डेढ बाई डेढ फुट का जो आसन लगा है, वो मेरी जगह हैं, देवहूति के नेत्र सजल हो उठे, इतना बड़ा त्यागी महापुरुष, इतना बड़ा संत मुझे पति रूप में मिला, देवहूति ने कुटिया की खिड़की से बाहर की ओर नजर डालकर देखा, आश्चर्य से उसकी आँखे खुली रह गयीं, सामने झरना बह रहा है, उसके नीचे गाय, हिरन और शेर तीनों एक साथ पानी पी रहे है।

  कर्दम ऋषि की तपस्या के प्रताप से वहां जीव-जंतुओं में हिंसा की भावना नहीं है, इधर बिल में सांप, मेंढक, चूहे सब एक साथ रह रहे हैं, ये संत की तपश्चर्या का प्रताप हैं, कर्दमजी ने अपनी पत्नी से कहा, तुम्हें अच्छा लगे वैसे कुटिया को संवारो, मैं थोड़ा भगवान् की याद कर लूं, कर्दमजी जैसे ही समाधि में बैठे, उनको तो विचित्र समाधि लग गयी, एक हजार वर्ष तक उनकी समाधि लगी रही।

  विवाह करने के बाद लोग काम विषय में डुबते है, पर धन्य है इन ऋषियों को जो विवाह के बाद राम के ध्यान में डूबे हैं, एक सद्धधर्मिणी के लक्षण देखिये, देवहूति ने सोचा, मेरे पति समाधि में बैठ गये, इनकी सेवा करना ही मेरा परम कर्तव्य है, बैठे हुये पति को गीले वस्त्र से पोंछ देती, आरती करती, कभी फल तोड़कर खा लेती, कभी पत्ते तोड़कर खा लेती, तो कभी कुछ नहीं खाती, दो-चार दिन भूखी ही रह जाती, पानी पीकर ही समय निकाल देती।

  ऐसे एक हजार वर्ष तक देवहूति ने अपने पति की सेवा की, उन वर्षों में देवहूति का शरीर वृद्धा माताओं जैसा हो गया, झुर्रियां पड़ गयीं, सिर के केश जटा के रूप में परिणित हो गये, मन में एक आशा है, जिस दिन मेरे पति की तपश्चर्या पूरी होगी, उसी दिन से मेरा गृहस्थ जीवन आरम्भ होगा।

  एक हजार वर्ष के बाद कर्दम ऋषि की समाधि जैसे ही टूटी, कर्दमजी ने अपनी कुटिया में किसी बुढ़िया को बैठे देखा और पूछा आपका परिचय ? देवहूति ने सोचा- मेरे पतिदेव तो मुझसे मेरा परिचय पूछ रहे हैं, याद कीजिये, एक हजार वर्ष पहले एक राजा आये थे, अपनी बेटी का विवाह आपसे किया था, कर्दमजी ने कहा- हाँ, थोड़ा-थोड़ा याद आ रहा है, वो आप ही हो क्या? देवहूति बोली- जी, मैं ही आपकी धर्मपत्नी हूँ, ऋषि कर्दम बड़े प्रसन्न हुए।

  एक हजार वर्ष का समय बीत गया, इतने वर्षों तक तुम रही कहाँ ? इसी कुटिया में रही, तुम भोजन कैसे करती थी देवी ? माँ देवहूति कहती है - कभी पत्ते खा लेती, कभी फल खा लेती, कर्दमजी ने कहाँ देवी ! तुम अपने पिता के घर क्यों नहीं गयी ? देवहूति बोली- पत्नी के लिये तो पति का घर ही स्वर्ग होता है, पिता का घर नहीं, महात्मा कर्दमजी का ह्रदय विदीर्ण होने लगा।

  मैं तुमसे बड़ा प्रसन्न हूं देवी ! मेरे लिये तुमने इतने कष्ट सहे, तुम्हारा शरीर सूख गया, सैंकड़ों वर्षों तक सूखे पत्ते खा-खाकर तुमने मेरी सेवा की, तुम मन में सोच रही होगी कि कैसे पुरूष से शादी की, न रहने का ठिकाना, न खाने का ठिकाना, जरा, अपनी आँखे बंद करो, देवहूति ने नेत्र बंद कर लिये, कर्दमजी ने कहा- नेत्र खोलकर देखो, देवहूति ने देखा तो एक बहुत सुन्दर सरोवर हैं और उस सरोवर के बीच में नौ मंजिल का महल बनकर तैयार हो गया।

  हजारों आभूषण हो गये, सैकड़ों दास-दासियाँ हो गये, जो वैभव देवहूति ने पिता के घर नहीं देखा वो कर्दमजी के द्वार पर है, देखकर देवहूति बड़ी प्रसन्न हुई, कर्दमजी ने देवहूति का हाथ पकड़कर जैसे ही सरोवर में डुबकी लगायी, कर्दम हो गये बीस वर्ष के और देवहूति हो गयी सोलह वर्ष की, ये तपश्चर्या का दिव्य प्रताप हैं।

  धन्य है माता देवहूति जिनके घर माँ अनुसूयाजी सहित अन्य आठ पुत्री का जन्म भी माता देवहूति के गर्भ से ही हुआ, जिनका विवाह अलग-अलग ऋषियों के साथ हुआ, फिर कपिल भगवान् का प्राकट्य हुआ, ऋषि कर्दमजी भगवान् के प्राकट्य के बाद अपनी शर्त के अनुसार एक पुत्र के बाद गृहस्थ जीवन त्याग दिया और तपस्या के लिये चल दिये।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

thanks for a lovly feedback

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top