जेहि का जेहि पर सत्य सनेहू। सो तेहि मिलहिं न कछु संदेहू॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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manas_mantra
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 जिसको जिस चीज से सच्चा प्रेम होता है उसे वह चीज अवश्य मिल जाती है। यानी सच्चे मन से चाही गई वस्तु अवश्य प्राप्त होती है।

 परम तत्त्व एक ऐसे रूप में हमारे सामने आ सकता है जो खेलने वाला हो, प्रत्यक्ष नाचने वाला हो, हमारे साथ खाने-पीने वाला हो, हँसने-बोलने वाला हो और हमें गले लगाने वाला हो। यह हो सकता है यदि उस स्वरूपके भावमें अनन्यता हो।

ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।

मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या पार्थ सर्वश:॥

 हे अर्जुन। जो मनुष्य मुझे जिस प्रकार भजता है यानी जिस इच्छा से मेरा स्मरण करता है, उसी के अनुरूप मैं उसे फल प्रदान करता हूं। सभी लोग सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं।

 इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृष्ण बता रहे हैं कि संसार में जो मनुष्य जैसा व्यवहार दूसरों के प्रति करता है, दूसरे भी उसी प्रकार का व्यवहार उसके साथ करते हैं।

 उदाहरण के तौर पर जो लोग भगवान का स्मरण मोक्ष प्राप्ति के लिए करते हैं, उन्हें मोक्ष की प्राप्ति होती है। जो किसी अन्य इच्छा से प्रभु का स्मरण करते हैं, उनकी वह इच्छाएं भी प्रभु कृपा से पूर्ण हो जाती है। कंस ने सदैव भगवान को मृत्यु के रूप में स्मरण किया। इसलिए भगवान ने उसे मृत्यु प्रदान की। हमें परमात्मा को वैसे ही याद करना चाहिए, जिस रूप में हम उसे पाना चाहते हैं।

 भारत के पहले राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र बाबू के गुरु थे रामाजी महाराज। वे बिहार के थे। रामाजी महाराज बड़े महात्मा हुए। वे दूल्हा राम के उपासक थे। जहाँ कोई बारात देखते और उसमें दूल्हे को देख लेते तो छाता लेकर दौड़ते और दूल्हे के ऊपर छाता लगाकर उसके पीछे-पीछे चलते। वे राम-विवाह के आगे की रामायण नहीं पढ़ते थे। वे कहते कि मैं राम का वनवास इत्यादि नहीं देखना चाहता हूँ। मैं तो राम को महल में ही देखना चाहता हूँ। उसके आगे के राम से मेरा मतलब नहीं हैं। यह भाव है।

   काकभुशुण्डिजी कहते हैं कि मुझे तो भगवान् का बालकरूप ही प्रिय है। दूसरे राम की कथा कहते रहेंगे परन्तु अपने सामने बालरूप राम ही नाचते हैं। इतने बड़े ज्ञानी काकभुशुण्डिजी से जब पूछा गया कि आप कौआ ही क्यों बना रहना चाहते हैं ? उन्होंने उत्तर दिया कि इस कौआ शरीर के रूप में ही बालरूप राम मुझसे खेलते हैं। इसलिये मुझे कौआ बना रहना ही अच्छा है। मुझे नहीं चाहिये देवता का वेष। यह भावना है।

  एक प्रयागदासजी महात्मा थे। वे बड़े भक्त थे और अपने को जानकीजी का भाई मानते थे। वे कहते हैं-

आमके नीचे खाट बिछी है खाटके नीचे करवा।

 प्रयागदास अलमस्ता सोये रामललाके सरवा॥

  आम के नीचे खाट बिछी है और उस पर रामलला के साले प्रयागदास अलमस्त होकर सो रहे हैं। वे बड़े भारी महात्मा रहे। वे अयोध्या में पानी नहीं पीते थे। भाव है न। लोग कहेंगे कि वे अज्ञानी थे; उन्होंने भगवान् में भेद मान लिया। वे अज्ञानी तो नहीं थे। उनको तो स्वयं जानकीजी और भगवान् राम ने प्रकट होकर दर्शन दिये हैं। इस प्रकार विभिन्न-विभिन्न भावों के द्वारा भगवान् पूजा ग्रहण करते हैं, जो जिस प्रकार से चाहते हैं। यह भगवान् का विचित्र रूप है।

  लेकिन हम तो भगवान से भी स्वार्थ वश लगाव रखते हैं, जैसा हम करते हैं ईश्वर भी हमारे साथ वैसा ही व्यवहार करता है

 हम स्वार्थ के लिये ही यह सब करते हैं। ’स्व’ के अर्थ , स्व मे ही तो आत्मा, परमात्मा, ईश्वर, आस्था, विश्वास है । जब हम ईश्वर को भज रहे होते हैं तो अपने स्व , आत्म, आत्मा, खुद को ही दृढ़ कर रहे होते हैं। अपने आप पर विश्वास कर रहे होते हैं। आत्मविश्वास को सुदृढ़- सबल कर रहे होते हैं। यह भी मनो-विज्ञान है । विज्ञान इसे मनो-विज्ञान कहता है। यह दर्शन भी है ।

 जो दर्शन, धर्म, भक्ति है, मनो-विज्ञान भी है, विश्वास है तो अन्तिम व सर्वश्रेष्ठ रूप में आस्था भी । और आस्था व ईश्वर कृपा की सोच से कर्तापन का मिथ्यादंभ व अहं भी नहीं रहता ।

जो हल जोतै खेती वाकी ।

और नहीं तो जाकी ताकी॥

 खेती उसी की अच्छी होती है जो खुद जुताई करता है। उसी प्रकार प्रभु के प्रति आपकी आस्था भी होनी चाहिए।

अंत में -

सुखार्थं सर्वभूतानां मताः सर्वाः प्रवृत्तयः ।

सुखं नास्ति विना धर्मं तस्मात् धर्मपरो भव ॥

सब प्राणियों की प्रवृत्ति सुख के लिए होती है, (और) बिना धर्म के सुख मिलता नही । इस लिए, तू धर्मपरायण बन ।

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