ramayan यदि परलोक में और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखो। हे भाई! यह मेरी भक्ति का ...
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यदि परलोक में और यहाँ दोनों जगह सुख चाहते हो, तो मेरे वचन सुनकर उन्हें हृदय में दृढ़ता से पकड़ रखो। हे भाई! यह मेरी भक्ति का मार्ग सुलभ और सुखदायक है, पुराणों और वेदों ने इसे गाया है।
सुख कउ मांगै सभु को दुखु न मांगै कोइ।
सुखै कउ दुखु अगला मनमुखि बूझ न होइ॥
सभी मनुष्य सुख चाहते हैं और इसी की ही माँग भगवान से करते हैं, दुःख तो कोई भी नहीं माँगता, दुःख तो कोई भी नहीं चाहता, परन्तु आम संसारी मनुष्य को यह समझ फिर भी नहीं आती कि सुख के बदले दुःख ही उसे क्यों मिलता है?
भक्ति सुतंत्र सकल सुख खानी।
बिनु सतसंग न पावहिं प्रानी ॥
पुन्य पुंज बिनु मिलहिं न संता ।
सतसंगति संसृति कर अंता ॥
भक्ति स्वतंत्र है और सब सुखों की खान है, परंतु सत्संग (संतों के संग) के बिना प्राणी इसे नहीं पा सकते और पुण्य समूह के बिना संत नहीं मिलते। सत्संगति ही संसृति (जन्म- मरण के चक्र) का अंत करती है ॥
यह तो सौभाग्य से जब मनुष्य को सन्त सत्पुरुषों की पावन संगति मिल जाती है, तब उसे समझ आती है कि धन-सम्पदा, पदाधिकार, शारीरिक सुख-सुविधाएं तथा ऐन्द्रिक रसभोग आदि-इनमें से किसी में भी सुख,आनन्द और खुशी नहीं है, अपितु इनमें तो दुःख ही दुःख भरा हुआ है। वह जो इन में सुख आनन्द प्राप्त करने की कोशिश कर रहा था, यह उसकी भूल थी। सुख तो किसी और ही वस्तु में है। और जब सत्पुरुषों की कृपा से यह समझ आ जाती है कि सुख का रुाोत अथवा भण्डार कोई अन्य वस्तु है, तब फिर वह उसी वस्तु को अपनाता है। वह वस्तु कौन सी है ? एक कहानी के माध्यम से समझते हैं -
एक बार देवर्षि नारद जी भगवान विष्णु जी के दर्शनार्थ वैकुण्ठधाम गए। भगवान विष्णु के पार्षदों ने नारद जी का आदर सत्कार किया और उनके लिए आसन लगा दिया। भगवान को प्रणाम कर नारद जी जैसे ही आसन पर बैठे, भगवान बोले- देवर्षि जी! आप सकुशल तो हैं न ?
देवर्षि नारद जी ने उत्तर दिया- भगवन्! आपकी कृपा से मैं तो हर तरह से सकुशल हूँ और बड़े आनन्द में हूँ, परन्तु।
परन्तु क्या देवर्षि जी ?'' भगवान ने पूछा।
नारद जी ने कहा- भगवन्! आपने सृष्टि की रचना करके अनेकों प्रकार के जीव-जन्तु बनाये-जलचर भी नभचर भी और थलचर भी, परन्तु उन सबकी रचना करके भी जब आप सन्तुष्ट न हुए, तब आपने मनुष्य की रचना की, जो सब योनियों से श्रेष्ठ है। सन्तों महापुरुषों ने भी मानुष्य जन्म की अनेक प्रकार से महिमा करते हुए मनष्य को सर्वश्रेष्ठ, सृष्टि का सिरमौर,अशरफउलमख़लूकात - मतलब सभी प्राणियों में महान आदि अनेकों नामों से सम्बोधित किया है।'' भगवान विष्णु ने कहा कि -
सब मम प्रिय सब मम उपजाए।
सब ते अधिक मनुज मोहि भाए॥
नारद जी! इसमें क्या सन्देह है? सचमुच ही मनुष्य सब योनियों का सिरमौर है। इसे हमने सबसे श्रेष्ठ बुद्धि प्रदान की है ताकि यह अपना भला-बुरा, हित-अहित तथा हानि-लाभ समझकर उसी मार्ग को अपनाये, जिसमें उसका हित एवं कल्याण निहित हो और जिसमें उसका लाभ हो। फिर उसे हमने ऐसा मन-मस्तिष्क दिया है, जो सब योनियों से अधिक विकसित है और जिसमें सोचने-विचारने की ऐसी उत्तम एवं दुर्लभ शक्ति विद्यमान है, जिसके बल पर उसने आज कितने ही आविष्कार कर लिए हैं और रोज़ नये से नये आविष्कार कर रहा है, यहाँ तक कि चाँद और मंगल ग्रहों तक भी वह जा पहुँचा है। इसके अतिरिक्त उसे कर्तापन का अधिकार भी दिया गया है जिसका समुचित प्रयोग करके वह अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ-सिद्धियां प्राप्त कर सकता है और चाहे तो परमात्मा से एकाकार होकर परमात्मरुप भी बन सकता है।'
देवर्षि नारद जी बोले- यह सब तो ठीक है भगवन, परन्तु मैं तो अभी सारी पृथ्वी का भ्रमण करके आ रहा हूँ और मुझे यह देखकर बहुत दुःख हुआ है कि सृष्टि का सिरमौर कहलाने वाला यह मनुष्य आज दुःख, चिंता, कलपना तथा अशान्ति से बुरी तरह ग्रस्त है; सच्चे सुख आनन्द और मानसिक शान्ति से वह कोसों दूर है।''
भगवान विष्णु ने कहा हाँ देवर्षि जी! आपकी यह बात शत-प्रतिशत सत्य है और हम भी इससे सहमत हैं। हमें भी यह देखकर बहुत दुःख होता है कि सृष्टि का सिरमौर कहलाने वाला मनुष्य आज अनेकों शारीरिक सुख सुविधाओं के होते हुए भी दुःखी, अशान्त एवं परेशान है।'
भगवान के ये वचन सुनकर नारद जी बोल उठे- भगवन्! आप तो सर्वसमर्थ हैं, सब कुछ कर सकते हैं, आप ही कोई उपाय करें जिससे मनुष्य का दुःख, चिंता एवं अशान्ति आदि से पीछा छूट जाए और उसका जीवन सुख,आनन्द और खुशी से भरपूर हो जाए।''
भगवान विष्णु ने पूछा नारद जी! चाहते तो हम भी यही हैं कि मनुष्य सदा सुखी रहे, सदा आनन्द में रहे, परन्तु हमें तो इसका कोई उपाय सूझ नहीं रहा, हाँ! आप कोई उपाय कर सकते हैं तो करिये, हम आपके साथ हैं।''
नारद जी प्रसन्न होते हुए बोले- भगवन्! मैने यह अनुभव किया है कि प्रत्येक मनुष्य के मन में किसी न किसी वस्तु का अभाव खटक रहा है और उस वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा उसके अन्दर बलवती है। मेरे विचार में यदि उसकी वह इच्छा पूरी कर दी जाए, तो वह अवश्य सुखी हो जायेगा।''
भगवान् ने आदेश किया- देवर्षि जी! यदि ऐसा है तो फिर देर किस बात की है? यह लीजिये हमारा कमण्डल, इसमें संसार का सब कुछ विद्यमान है। जो कुछ भी कोई माँगे और जितना भी माँगे, आप इसमें से निकाल कर उसको दे सकते हैं। किन्तु स्मरण रहे कि एक मनुष्य की केवल एक ही इच्छा आप इस कमण्डल से पूरी कर सकते हैं। आप यह कमण्डल ले जाइये और जिसके मन में जिस वस्तु का अभाव खटकता है, उसके माँगने पर वही कुछ उसे दे दीजिये।
इस प्रकार यदि संसार के सभी मनुष्य सुखी हो जाएं, तो हमारे लिए इससे बढ़कर खुशी की बात भला और क्या हो सकती है ?''
यह कहकर भगवान ने कमण्डल उठाया, उसमें से एक वस्तु निकालकर अपने आसन के नीचे छिपा ली और फिर कमण्डल नारद जी के हाथ में थमा दिया।
नारद जी ने कमण्डल ले लिया और भगवान विष्णु को प्रणाम कर वहाँ से प्रस्थान किया। मार्ग में सोचने लगे कि भगवान ने कौनसी वस्तु कमण्डल में से निकाल कर आसन के नीचे छिपाई है। उन्होने बहुत सोचा,परन्तु जब कुछ समझ में न आया, तब मन ही मन कहने लगे कि भगवान ने कहा है कि इस कमण्डल में संसार का सब कुछ विद्यमान है, जब सब कुछ विद्यमान है तो फिर भगवान कुछ भी निकालें मुझे इससे क्या?
देवर्षि नारद जी भूमण्डल पर पहुंचे और सबकी इच्छा पूरी करने में लग गए। इस कार्य में बहुत समय लग गया। जब सबकी इच्छा पूरी करके नारद जी वैकुण्ठ वापस पहुँचे, तो वे पहले से भी अधिक दुःखी थे और उनके ह्मदय का दुःख उनके चेहरे से स्पष्ट झलक रहा था। उनको इतना उदास देखकर भगवान ने पूछा- नारद जी! आपको तो प्रसन्नचित्त यहाँ आना चाहिये था, परन्तु आप तो बहुत अधिक दुःखी दिखाई दे रहे हैं। ऐसा क्यों? क्या आपने लोगों की इच्छा पूरी नहीं की?
नारद जी बोले- भगवन्! इच्छा तो मैने सबकी पूरी की। जिसने जो कुछ माँगा, मैने आपके दिये हुए कमण्डल में से वही कुछ निकालकर उसे दे दिया। जिसने लाखों माँगे, उसे लाखों दिये, करोंड़ों माँगे तो करोड़ों दिये, हीरे ज़वाहरात जड़ित स्वर्ण-आभूषण माँगे तो उसे आभूषणों से भरपूर कर दिया, कोठी माँगी तो आलीशान कोठी दे दी, शारीरिक सुख-सुविधाओं की माँग की तो उसकी वह माँग पूरी कर दी अर्थात् जिसने जो कुछ भी माँगा, वह मैने उसको दिया, परन्तु लोगों की दशा में तनिक-सा भी अन्तर नहीं आया। वे तो पहले की तरह ही दुःखी एवं अशान्त हैं, सुखी तो वे फिर भी न हुए। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इन सब पदार्थों में सुख,आनन्द और खुशी नहीं है। सुख प्रदान करने वाली वस्तु कोई अन्य ही है और वह वस्तु कदाचित् वही है, जो कमण्डल में से निकालकर आपने अपने आसन के नीचे रख ली थी।''
भगवान् विष्णु मुसकरा दिये और बोले- नारद जी! आप बिल्कुल ठीक कहते हैं। सुख उसी वस्तु में है, जो हमने अपने पास रख ली थी और वह है-प्रभु की भक्ति। वास्तव में भक्ति ही सच्चे सुख का रुाोत, सच्चे सुख की खान अथवा सच्चे सुख का भण्डार है। महापुरुषों के वचन हैः-
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः॥
जो मुझे जैसे भजते हैं, मैं उन पर वैसे ही अनुग्रह करता हूँ; हे पार्थ सभी मनुष्य सब प्रकार से, मेरे ही मार्ग का अनुवर्तन करते हैं।।
भक्ति सुख का मूल है, भक्ति सुख की खान।
जाके हृदय भक्ति बसे, पावे पद निर्वाण ॥
नारद जी! भक्ति के बिना यदि कोई सुख की अभिलाषा रखता है, तो उसकी यह अभिलाषा उसी मनुष्य की तरह निर्रथक है, जो पानी को बिलोकर मक्खन-प्राप्ति की इच्छा रखता है। सत्पुरुष श्री गुरु अर्जुनदेव जी के वचन हैं किः-
सुखु नाही रे हरि भगति बिना ॥
अर्थात् भक्ति के अतिरिक्त सुख और कहीं है ही नहीं। किन्तु आम संसारी मनुष्य भक्ति की बजाय सुख ढूँढते हैं धन-सम्पदा में, पदाधिकार में, शारीरिक सुविधाओं में तथा ऐन्द्रिक रसभोगों में, फिर उन्हें सुख मिले भी तो कैसे मिले?''
प्रेम गली अति सांकरी, ता में दो ना समाहिं ।
जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नाहिं॥
प्रेम के अत्यंत महत्वपूर्ण गुण को उजागर करते हुए कहा है कि प्रेम की राह अति सँकरी है । उसमें एक साथ दो नहीं समां सकते ।यदि अंदर अहं भाव है तो हरि के लिए वहां कहाँ जगह होगी ? प्रेम की गली में यदि मन आ बैठे तो फिर वहां हरी कैसे होंगे ? प्रेम की गली में हरि और अहंकार एक साथ नहीं रह सकते । जब तक मन में " मैं " का भाव है, अहंकार है, वहां परमात्मा का वास नहीं है और जब ह्रदय में प्रेम है, वही परमात्मा का वास है -
देवर्षि नारद जी ने विनय की- भगवन्! जब सुख है ही भक्ति में, तो फिर उसे आपने अपने पास क्यों रख लिया?'
'भगवान विष्णु ने कहा ''आप यह बताइये कि आप सारे संसार में घूमे, किसी ने भी आपसे भक्ति की याचना की?''
नही भगवन्! भक्ति की माँग तो किसी ने भी नहीं की, संसार के धन-पदार्थ ही सब माँगते रहे।'' नारद जी का उत्तर था।
भगवान बोले- नारद जी! भक्ति की माँग तो कोई कोई विरले संस्कारी मनुष्य ही करते हैं, जिनकी पिछले जन्मों की शुभ कमाई होती है, अन्यथा सारा संसार तो धन-पदार्थों के पीछे ही पड़ा रहता है। और जिनके दिल में भक्ति की चाह होती है, उन्हें धन-पदार्थों या पदाधिकार आदि की इच्छा नहीं होती। यह तो हुई पहली बात।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥
भगवान तो कहते हैं कि सब कुछ छोड़कर मेरी शरण में आ जा। जब तक मनुष्य में यह भावना नहीं आयेगी कि -
जेहि विधि होई नाथ हित मोरा।
करहु सु वेगि दास मै तोरा॥
हे नाथ! जिस तरह मेरा हित हो, आप वही शीघ्र कीजिए। मैं आपका दास हूँ।
दूसरी बात यह कि भक्ति की यह दात हम किसी को नहीं दे सकते। कुदरत की तरफ से यह अधिकार समय के पूर्ण सद्गुरु को ही प्राप्त होता है। पूर्ण सद्गुरु ही भक्ति की यह दात दे सकते हैं और देते भी हैं। जो भी उनके द्वार पर श्रद्धा से अपना दामन फैलाता है, सन्त सद्गुरु भक्ति की दात से उसका दामन भर देते हैं और उसे मालामाल कर देते हैं। भक्ति की यह दात पाकर वह सुख, आनन्द और खुशी से भरपूर हो जाता है। कथन भी है किः-
भक्ति धन सतगुरु धनी, बख़्श रहे दिन रैन।
जो आवे चरणार में , पावे सुख अरु चैन॥
आम संसारी मनुष्य भक्ति के बिना ही सुख, आनन्द और खुशी प्राप्त करना चाहते हैं, तो नारद जी! यह कैसे सम्भव है?
भगवान के ये वचन सुनकर नारद जी बोले- यह बात तो भगवन्! आपकी बिल्कुल सही है। इसीलिए संसार में यदि कोई सुखी हैं, खुशी और आनन्द से भरपूर हैं तो वे भक्त एवं गुरुमुखजन ही हैं, आम संसारी मनमुख जीव तो सदा दुःखी ही रहते हैं। यह देखकर ही महापुरुषों ने वचन फरमाये हैंः-
गुरमुखि सुखीआ मनमुखि दुखीआ ॥
अर्थात् गुरुमुखजन, सद्गुरु की शरण ग्रहण कर जिन्होंने भक्ति की दात प्राप्त कर ली है, संसार में वही सुखी हैं, आम संसारी मनमुखी मनुष्य तो सदा दुःखी ही रहते हैं।''
सुख,आनन्द और खुशी यदि कहीं है तो वह भक्ति में है। इसलिए यदि सच्चे सुख आनन्द और सच्ची खुशी को प्राप्त करने की मन में अभिलाषा है, तो फिर पूर्ण सद्गुरु की चरण-शरण ग्रहण करो और उनसे भक्ति प्राप्त करके अपना यह जीवन भी सुख आनन्द और खुशी से भरपूर कर लो और अपना परलोक भी सुधार कर लो।
ये दुनिया नफ़रतों के आख़री स्टेज पे है।
इलाज इस का मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं है ॥
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