धर्म और अधर्म का कारण

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  भगवान श्रीकृष्ण जब दुर्योधन ( कौरव सभामे ) के पास पांडवो की ओर से समाधानकारी सुलह संदेश लेकर गए और दुर्योधन को धर्म मार्ग पर चलने को कहा । तब दुर्योधनने भगवान श्रीकृष्ण को ये कहा कि मुझे ज्ञात है ये धर्म है पर मुझसे वो होता ही नही है और में जो कर रहा हूँ वो अधर्म है पर मुझसे वो छूट ही नही रहा । मेरे अंदरसे कोई और शक्ति ये करवा रही है ।

  विचारशील मनुष्य पाप करना तो नहीं चाहता, पर भीतर सांसारिक भोग और संग्रह की इच्छा रहने से वह करने योग्य कर्तव्य कर्म नहीं कर पाता और न करने योग्य पाप कर्म कर बैठता है। तात्पर्य यह है कि पापवृत्ति के उत्पन्न होने पर विचारशील पुरुष उस पाप को जानता हुआ उससे सर्वथा दूर रहना चाहता है; फिर भी वह उस पाप में ऐसे लग जाता है, जैसे कोई उसको हठात पाप में लगा रहा हो। इससे ऐसा मालूम होता है कि पाप में लगाने वाला कोई बलवान कारण है।

  पापों में प्रवृत्ति का मूल कारण है- ‘काम’ अर्थात सांसारिक सुख-भोग और संग्रह की कामना। परंतु इस कारण की ओर दृष्टि न रहने से मनुष्य को यह पता नहीं चलता कि पाप कराने वाला कौन है? वह यह समझता है कि मैं तो पाप को जानता हुआ उससे निवृत्त होना चाहता हूँ, पर मेरे को कोई बलपूर्वक पाप में प्रवृत्त करता है; जैसे दुर्योधन ने कहा है-

जानामि धर्म न च मे प्रवृत्तिर्जानाम्यधर्म न च मे निवृत्तिः ।

केनापि देवेन हृदि स्थितेन यता नियुक्तोऽस्मि तथा करोमि 

‘मैं धर्म को जानता हूँ, पर उसमें मेरी प्रवृत्ति नहीं होती और अधर्म को भी जानता हूँ, पर उससे मेरी निवृत्ति नहीं होती। मेरे हृदय में स्थित कोई देव है, जो मेरे से जैसा करवाता है, वैसा ही मैं करता हूँ।’दुर्योधन द्वारा कहा गया यह ‘देव’ वस्तुतः ‘काम’ ही है, जिससे मनुष्य विचारपूर्वक जानता हुआ भी धर्म का पालन और अधर्म का त्याग नहीं कर पाता।

 ‘केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति’ पदों से भी ‘अनिच्छन्’ पद की प्रबलता प्रतीत होती है। तात्पर्य यह है कि विचारवान मनुष्य स्वयं पाप करना नहीं चाहता; कोई दूसरा ही उसे जबर्दस्ती पाप में प्रवृत्त करा देता है। वह दूसरा कौन है ?

 भगवान् ने तभी चौंतीसवें श्लोक में बताया है कि राग और द्वेष साधक के महान शत्रु हैं अर्थात ये दोनों पाप के कारण हैं। अश्रद्धा, असूया, दुष्टचित्तता, मूढ़ता, प्रकृति की परवशता, रागद्वेष, स्वधर्म में अरुचि और परधर्म में रुचि- जिससे मनुष्य विचारपूर्वक न चाहता हुआ भी पाप में प्रवृत्त होता है । इसके अलावा ईश्वर, प्रारब्ध, युग, परिस्थिति, कर्म, कुसंग, समाज, रीति-रिवाज, सरकारी कानून आदि से भी मनुष्य पाप में प्रवृत्त होता है।

 यंत्रवत् जप जाप पूजा अनुष्ठान से कोई फल नही मिलता , सद विचार और सद आचार सद कर्म भी अति आवश्यक है आपके इष्ट देव देवी की प्रसन्नता केलिए।

 मंत्र अनुष्ठान या कोई भी विधान शुरू करने से पहले कुछ जरूरी आचरण -

1. कभी किसीका बुरा नही चाहेंगे । किसीके बारेमे न बुरा सोचेंगे न किसीका बुरा करेंगे।

2. किसी भी धर्म या सम्प्रदाय के विषयमे कभी बुरा न बोलेंगे न सोचेंगे । जो धर्म के लिए प्रयुक्त है उसका रक्षण करेंगे।

3. एक ही मार्गदर्शक गुरु ,एक ही देव ,एक ही मंत्र विधान ही सर्वस्व है ऐसा जब भाव होंगा तब ही सफल हो सकते हो अन्यथा कभी प्रयत्न भी मत करना ,पूरी जिंदगी भटकते रहोगे।

4. जो गुरु कहे वो सम्पूर्ण समर्पण भावसे करो तो ही उनके आशीर्वाद से फलदायी होता है अन्यथा हरदिन गुरु, देव, मंत्र, तंत्र बदलते रहो और ऐसे ही जिंदगी पूरी करो।

5. कुल परम्परा के देवी देवताही श्रेष्ठ फल दे सकते है । अगर ऐसा नही होता तो आपके दादा ,वड़ दादा ,पर दादा सब मिथ्या आचरण करते थे ऐसा सिद्ध होगा । पीढियो से आपके पूर्वजो ने जिनको पूजा और फल पाया तभी तो आप पैदा हुवे फिर वो कैसे मिथ्या हो सकते है । कुलधर्म छोड़कर दुसरो का अनुसरण ही महा पाप कहा गया है गीताजी मे।

6. कोई समस्या या उच्च उपासना केलिए आपके गुरु आपको कोई विशेष यजन कहे या मंत्रानुदान करे वो धर्म है पर यहां तो बहुत से लोग पुस्तकमें पढ़कर ,इंटरनेट में देखकर बड़े बड़े विधान ,स्तोत्र ,मंत्र करने लगे है । ज्यादातर ऐसे लोग पागलपन या असाध्य बीमारी से नाश होते है ।

7. यंत्रवत पूजा मंत्र विधान ही फल देता तो इलेक्ट्रॉनिक मशीन जो 24 घंटे मंत्र जाप करता है इनका मोक्ष हो जाता ना ? पुण्य कार्य करने से पाप का नाश होता है । पुण्य कर्म तो प्रथम जरूरी है । 

8. किसी भिक्षुक को भोजन दो । छोटे छोटे बच्चोंको भेट प्रसाद देकर खुश करो । अपने कुलके ब्राह्मण या अन्य पवित्र ब्राह्मण साधक ,साधु को दान दक्षिणा देकर उनके हृदय से आशीर्वाद लीजिये । किसी भी आधिकारिक व्यक्तिको यथा संभव सहायता करो । पशु ,पक्षी को भोजन देकर मूक पशु पक्षी के ह्रदयमे बैठे नारायण को खुश करो । परोपकार से हमारे सारे संचित कर्म ( पाप ) का नाश होता है ।

अगर ये सब बाते समझ में आये और सद विचार,सद कर्म,दान पुण्य,पूर्ण श्रद्धा ओर धीरज हो तो ही मंत्रअनुष्ठान या विधान सफल होता है अन्यथा व्यर्थ समय मत व्यय करो एक तो क्या एक हजार विधान करलो कोई फल नही मिलता । हिन्दू सनातन धर्म मे तर्क वितर्क वाद विवाद को व्यर्थ कहा है । ऐसे गुरुओ ओर विचारधारा को छोड़ो ओर आपके कुलवंश के पूर्वजोने कुल आचार्य परम्परा जिनका अनुसरण किया हो ,जिनको पूजा हो वो ही श्रेष्ठ है ,उन्हें अपनाओ । हिन्दू धर्म सिर्फ वही है जो पूर्वजो कथित मार्ग पर चले , वेद विहित धर्म संहिता ही श्रेष्ठ है शेष सब मार्ग को ही विधर्म कहते है । 

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