कला भेद से छः प्रकार के भगवान् के अवतार कहे गये हैं --
१ . पूर्णतमावतार
२ . पूर्णावतार
३. विभूत्यावतार
४. कलावतार
५. अंशांशावतार
६. आवेशावतार ।
१. पूर्णतमावतार
सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर जीव , ईश्वर तथा शुद्ध ब्रह्म सभी पूर्ण हैं , उतना ही नहीं ! बल्कि तिनके से लेकर ब्रह्मा पर्यन्त सभी पूर्ण हैं , जैसा कि वेद में कहा गया है -
"पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ "
अद: का अर्थ होता है ईश्वर (परोक्ष) पूर्ण है । इदं = प्रत्यक्ष जीव , यह भी पूर्ण है । पूर्ण ब्रह्म से पूर्णता को लेकर जो जगत् की रचना के अनन्तर शेष बचता है वह भी पूर्ण है । वह ब्रह्म ज्ञान-स्वरूप है , ज्ञान के सम्बन्ध में कहा है-
"ज्ञानमेकं सदा भाति सर्वावस्थासु निर्मलम् ।
मन्दभाग्या: न जानन्ति स्वरूपं केवलं वृहत्॥"
ज्ञान एक है , वह सदा सभी अवस्थाओं में निर्मलता से प्रकाशित होता है , किन्तु मन्दभाग्य वाले पुरुष अर्थात् मल-विक्षेप-आवरण से युक्त अंतःकरण वाले परमात्मा के सर्वव्यापी स्वरूप को नहीं जानते ।
भाव यह है कि ब्रह्म का अविनाशित्व , ज्ञानत्व तथा परमानन्दत्व देश-काल-वस्तु के परिच्छेद से रहित , अनन्त , अपार हैं , इसी का नाम सच्चिदानन्दत्व है । किसी भी प्राणी में कम-अधिक नहीं , जैसे महाकाश किसी में कम-अधिक नहीं है ।
मेघाकाश में बादल के परिमाण का , मठाकाश में मकान के परिमाण का तथा घटाकाश में घड़े के परिमाण का प्रतीत होता है , किन्तु सूक्ष्म बुद्धि से विचार करने पर घट-मठ की दीवारों में तथा उनके अणु-परमाणुओं के अन्तराल में जो खाली स्थान है , वहां भी आकाश है । अर्थात् वह ठोस चट्टान तथा लोहे के गोले के अन्दर और बाहर भी व्याप्त है , इसी प्रकार ब्रह्म भी बाहर तथा भीतर व्याप्त है । वह प्रत्येक पदार्थ की उत्पत्ति से पहले तथा बाद भी रहता है , ब्रह्म का नाश तथा बाध नहीं होता । जैसे उत्पन्न हुई या बनाई गई वस्तु का टूट-फूट जाने पर नाश हो जाता है , परन्तु वस्तु के रहते भी वस्तु का बाध होता है । जैसे घोड़े पर विचार करके देखने पर उसके शरीर में कहीं भी घोडापना नहीं है , कहीं उसका सिर , कहीं पीठ , कहीं कान आदि अंग है , सभी अंगों के मेल का नाम घोड़ा रखा गया है । सीपी में चांदी की प्रतीति भ्रान्ति से होती है , आप जाकर ध्यान से देखने तथा उठाने पर सीपी में चांदी नहीं रहती । यह सीपी में चांदी का बाध है । परन्तु उतनी ही दूरी पर सूर्य की किरणें पड़ने पर चांदी के समान फिर चमकती है किन्तु फिर वही व्यक्ति चांदी समझकर लेने को नहीं दौड़ता । उसी प्रकार ब्रह्मवेत्ता को बोध हो जाने पर व्यवहार में जगत् के रहने पर भी जगत् की भ्रान्ति नहीं रहती । वास्तव में ब्रह्म ही वस्तु है , अन्य सब अवस्तु है ।इससे यह सिद्ध हुआ कि ब्रह्म-जगत्-जीव-ईश्वर तथा माया के रूप में सभी पूर्ण है । उसकी पूर्णता में कभी कमी नहीं होती , जैसे - महाकाश में अरबों-खरबों बादल आ जाने पर , बरसने या न बरसने पर महाकाश पूर्ण बना रहता है , इनकी उत्पत्ति तथा नाश से महाकाश को कोई अन्तर नहीं पड़ता , बल्कि पूर्ण बना रहता है , इसी प्रकार चिदाकाश रूपी ब्रह्म में माया से जगत् की उत्पत्ति तथा विनाश से कोई अन्तर नहीं पड़ता , बल्कि पूर्ण बना रहता है । अथवा जैसे अरबों-खरबों शून्यों में अरबों-खरबों शून्य जोड़ने-घटाने , गुणा या भाग करने पर शून्य ही रहता है , कोई अन्तर नहीं पड़ता , उसी प्रकार ब्रह्म से जगत् उत्पन्न होने से पूर्व , सृष्टि काल में तथा जगत् के विनाश होने पर भी शुद्ध ब्रह्म में कोई परिवर्तन नहीं होता । इसका अर्थ यह नहीं कि ब्रह्म बौद्धों का शून्य है , यह तो समझाने के लिए दृष्टान्त दिया है , ब्रह्म पूर्ण है । अथवा ब्रह्म की पूर्णता के सम्बन्ध में इस प्रकार समझना चाहिए -
ब्रह्म जादू की ऐसी अक्षय-निधि पिटारी है , जिसमें पद्मों-नीलों रुपये पद्मों-नीलों बार निकालने पर भी उतने ही बने रहते है , उनमें न्यूनाधिकता नहीं होती है । अतः ब्रह्म तीनों कालों , सभी देशों तथा सभी वस्तुओं की सीमा से परे पूर्ण ही बना रहता है , यह सिद्ध हुआ । जीव-जगत्-ब्रह्म पूर्ण होने पर भी जिस जीव को जितना बड़ा अंतःकरण रूपी पात्र मिला है , उसमें उतनी ही मात्रा में ब्रह्म प्रकाशित होता है । जैसे गङ्गाजी में अथाह जल होने पर भी जिसके पास एक , दो , पांच , दस , चालीस आदि जितने लीटर का पात्र हो , उतना ही जल आ सकता है , वैसे ही ब्रह्म पूर्ण होने पर भी जिस जीव के पास जितना बड़ा अंतःकरण है , उसमें उतनी ही मात्रा में ब्रह्म की चेतनता प्राप्त होती है । ब्रह्म परमज्ञान-स्वरूप तथा स्वयंप्रकाश है , उसका अंश होने के कारण जीव में भी वह सामर्थ्य है । उसी ब्रह्म को वेदों-उपनिषदों तथा पुराणों में अनन्तकोटि-नायक परात्पर विष्णु कहा है , वह परिपूर्णतम है , उसी के राम-कृषणादि अवतार पूर्णतम अवतार हैं अर्थात् जिस कल्प में महाविष्णु ही जब राम-कृष्ण के रूप में अनादि शक्ति सहित अवतार लेते हैं , वे राम-कृष्ण के अवतार पूर्णतम हैं । उनके इशारे से अनन्तकोटि ब्रह्माण्ड के अनन्तकोटि ब्रह्मा-विष्णु-महेश जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-संहार करते हैं । ऐसा कोई क्षण खाली नहीं जाता जिस क्षण में उनके रोमकूप से एक चिंगारी के समान प्रकाश-पुंज न निकलता हो और अति दूर जाकर ब्रह्माण्ड का रूप न धारण करता हो , कई ब्रह्माण्ड प्रलय के अनन्तर छोटी सी चिंगारी के रूप में उनके शरीर में लीन न होते हों । उन्हीं विष्णु की अनादि शक्ति महालक्ष्मी, सीता तथा राधा के रूप में अवतरित होती हैं ।
राम-कृष्ण दोनों की कलाओं में कोई भेद नहीं है , क्योंकि भागवत में व्यास जी ने नवम् स्कन्ध में श्रीराम के सम्बन्ध में "कलेश" शब्द का प्रयोग किया है तथा कृष्ण को "एते चांशकला: प्रोक्ता: कृष्णास्तु भगवान् स्वयम्" कहा है । यहां पर कई लोग कहते हैं कि आपका कथन ठीक नहीं प्रतीत होता , क्योंकि कई ग्रन्थों में श्रीराम को बारह कला तथा श्रीकृष्ण को सोलह कला का अवतार कहा है , इस प्रकार कलाओं की दृष्टि से न्यूनाधिक प्रतीत होते हैं । तो इसका समाधान होगा कि दोनों अवतार समान ही है , क्योंकि रामावतार सूर्यवंश में हुआ , सूर्य बारह कलाओं से पूर्ण होता है , अतः राम को बारह कला का अवतार कहा । कृष्ण का अवतार चन्द्रवंश में हुआ , चन्द्रमा सोलह कलाओं से पूर्ण होता है , अतः कृष्ण को सोलह कला का कहा गया , अतः इन कलाओं की न्यूनाधिकता में कोई पूर्णावतार और कोई अंशावतार नहीं हो सकता , बल्कि दोनों ही पूर्णतमावतार सिद्ध होते हैं ।
दूसरा युक्तिसंगत समाधान यह है कि बाजार में कोई भक्त तौलकर मौसम्मी या सन्तरा आदि खरीदे , जो दोनों तौल में बराबर हो , छिलने पर दोनों के भीतर एक में बारह और एक और एक मे सोलह फांकें निकली है । बारह वाली में फांकें बड़ी है , सोलह वाली में छोटी है , किन्तु दोनों में रस बराबर मात्रा में है । छोटी या बड़ी फांकें होने पर भी मौसमी दोनों बराबर ही है , वैसे ही राम में बारह कला और श्रीकृष्ण में सोलह कलाएं होने पर भी दोनों ही पूर्णतम हैं अथवा जैसे कोई कहे कि रुपये में सोलह आने होते हैं या रुपये में बारह माशे हैं । बारह या सोलह न्यूनाधिक होने पर भी रुपया छोटा-बड़ा नहीं होता । वैसे ही राम १२ कला तथा कृष्ण १६ कला का अवतार कहने पर भी दोनों में कोई छोटा या बड़ा नहीं हो जाता ।
२ . पूर्णावतार
कल्पभेद से राम-कृष्ण को कारण ब्रह्म का पूर्णतमावतार कहा है , किन्तु कहीं-कहीं कला भेद , मन्वन्तर-भेद , तथा युगभेद से कार्य ब्रह्म विष्णु-राम तथा कृष्ण के रूप में अवतार लेते हैं । वे कहीं पूर्णावतार , कहीं विभूत्यावतार कहे जाते हैं , जैसे -- नारद जी के शाप से तथा सनकादि के शाप से वही वैकुण्ठ-विहारी-विष्णु , श्वेतद्वीप-वासी-नारायण , क्षीरशायी-विष्णु जब राम-कृष्ण के रूप में होते हैं तो वे पूर्णावतार कहे जाते हैं ।
३ . विभूत्यावतार
कुछ विद्वानों के मत से बारह कला से लेकर चौदह-पन्द्रह कला का अवतार विभूत्यावतार होता है , इनमें नृसिंह और वामनादि अवतार आते हैं ।
४ . अंश या कलावतार
अंशावतारों में मत्स्य-कूर्म-वाराह-सनकादि-नारद तथा व्यास आदि आते हैं ।
५. अंशांशावतार
भगवान् के अंशावतारों के अवतार को अंशांशावतार कहते हैं । जैसे भागवत आदि ग्रन्थों में अत्रि तथा अनुसूया की तपस्या से प्रकट हुए भगवान् दत्तात्रेय अंशावतार हैं , भविष्यपुराण के अनुसार उन्होंने ही कलियुग में देवताओं के प्रार्थना करने पर पश्चिमी पंजाब के लाहौर जिले के तलवंडी ग्राम में गुरु नानक देव के रूप में अवतार लिया , यह दत्तात्रेय के अंशावतार तथा विष्णु के अंशांशावतार हुए । कलियुग में श्रीकृष्ण भगवान् के अंशांशावतार चैतन्य महाप्रभु तथा महाप्रभु वल्लभाचार्य हुए । ब्रह्मवैवर्त पुराण में श्रीकृष्ण के अंशावतार गणेश जी तथा विष्णु जी के अंशावतार स्वामी कार्तिकेय हुए ।
६ . आवेशावतार
जैसे सामान्य व्यक्तियों में कुछ काल के लिए भूत , प्रेत , चंडी , हनुमान तथा भैरव आदि का आवेश आ जाता है , तब उन्हीं के समान सर्वज्ञ हो जाता है । इसी प्रकार पिता जमदग्नि की मृत्यु के उपरान्त जब माता रेणुका इक्कीस बार छाती पीटकर रोई , तब सान्त्वना देते हुए परशुराम जी ने माताजी से कहा --- "तुम चिन्ता मत करो , मैं भगवत् शक्ति प्राप्त करके इक्कीस बार क्षत्रियों का विनाश करूँगा । इसके बाद आप विष्णु की आराधना में लग गये , भगवान् विष्णु ने दर्शन दिया , इन्होंने भगवान् की स्तुति करके शक्ति मांगी , भगवान् ने सारङ्ग धनुष उन्हें दिया तथा अपनी सम्पूर्ण शक्तियां उनमें निहित की और कहा कि "त्रेता के अन्त में जब तुम्हारे ही नाम से अवतार लूंगा , तब धनुष के सहित शक्ति का अपहरण कर लूंगा ।" क्योंकि भगवान् विष्णु ने अपनी सम्पूर्ण शक्ति का उनमें आवेशित (प्रवेश) की थी , इसीलिए उन्हें आवेशावतार कहते हैं ।
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