sooraj krishna shastri अगर मनुष्य के मन से इच्छा समाप्त हो जाए तो उसकी सब चिंताएं मिट जातीं हैं । जिनको कुछ नहीं चाहिए वे सब राजाओं क...
sooraj krishna shastri |
अगर मनुष्य के मन से इच्छा समाप्त हो जाए तो उसकी सब चिंताएं मिट जातीं हैं । जिनको कुछ नहीं चाहिए वे सब राजाओं के राजा हैं क्योंकि वे हर हाल में खुश रहते हैं। कहने का तात्पर्य है कि हमारी चिंताएं ,हमारी इच्छाओं के कारण ही बढ़ती जाती हैं अत :हमें अपनी इच्छाओं पर नियंत्रण रखना चाहिए।
फ़िकर सबको खा गई ,फ़िकर सबकी पीर ।
फ़िकर की फंखी करे ,उसका नाम फ़कीर॥
जो संसार से ऊपर उठ जाता है। जिसका सारा मोह और एषणा नष्ट हो जाती है जो तीनों गुणों (सत्व ,रजस और तमस )से परे चला जाता है वह फिर बे -परवाह बादशाह हो जाता है। उसे ही फ़कीर कहा जाता है।
चिंताओं का मूल है मन में नई-नई कामनाओं का पैदा होना। एक कामना पूरी होती है तो दूसरी कामना सिर उठाती है। कामनाओं को कैसे सिद्ध किया जाए, इसी चिंता में मनुष्य घुलता रहता है। वह जीवन को पूरी समग्रता से नहीं जी पाता। वह आजीवन कामनाओं का दास बना रहकर लोभ, मोह, माया, क्रोध व काम में फंसा रहता है। उसका एक पल भी शांतिपूर्वक व्यतीत नहीं होता।
यदि कामना न रहे, चाह का लोप हो जाए तो चिंता से मुक्ति मिल जाती है। सिर से सारा बोझ उतर जाता है और मन निश्चिंत और लापरवाह हो जाता है। सच तो यह है कि जिनको कुछ नहीं चाहिए होता, जो कामना रहित होते हैं, वे शाहों के भी शाह होते हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सब कुछ छोड़कर भगवान भरोसे बैठे जाओ।
अजगर करे ना चाकरी पंछी करे ना काम।
दास मलूका कह गए सब के दाता राम॥
अजगर को किसी की नौकरी नहीं करनी होती और पक्षी को भी कोई काम नहीं करना होता, ईश्वर ही सबका पालनहार है, इसलिए कोई भी काम मत करो ईश्वर स्वयं देगा। आलसी लोगों के लिए श्री मलूकदास जी का ये कथन बहुत ही उचित है।
भगवान श्री कृष्ण जी गीता में कहते हैं कि -
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
विषय-वस्तुओं के बारे में सोचते रहने से मनुष्य को उनसे आसक्ति हो जाती है। इससे उनमें कामना यानी इच्छा पैदा होती है और कामनाओं में विघ्न आने से क्रोध की उत्पत्ति होती है। इसलिए कोशिश करें कि विषयाशक्ति से दूर रहते हुए कर्म में लीन रहा जाए।
लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि हाथ पर हाथ रख कर बैठ जाओ।
कुछ कार्य ऐसे भी हैं जिस पर सदा बिचार एवं चिंतन करना चाहिए।
मनुस्मृति के अनुसार -
संधिं च विग्रहं चैव यानं आसनं एव च ।
द्वैधीभावं संश्रयं च षड्गुणांश्चिन्तयेत्सदा॥
सन्धि विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय इन छः गुणों का भी राजा एवं सभी सदा विचार मनन करे।
आसनं चैव यानं च संधिं विग्रहं एव च ।
कार्यं वीक्ष्य प्रयुञ्जीत द्वैधं संश्रयं एव च ॥
सब राजादि राजपुरूषों को यह बात लक्ष्य में रखने योग्य है जो आसन – स्थिरता यान – शत्रु से लड़ने के लिए जाना संधि – उनसे मेल कर लेना दुष्ट शत्रुओं से लड़ाई करना द्वैध – दो प्रकार की सेना करके स्वविजय कर लेना और संश्रय – निर्बलता में दूसरे प्रबल राजा का आश्रय लेना, ये छः प्रकार के कम्र यथायोग्य कार्य को विचारकर उसमें युक्त करना चाहिए इसलिए -
कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥
COMMENTS