मैं कौन हूँ ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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मै यह शरीर हूं अर्थात् अहंता उदित होने पर सब कुछ उदित होगा और "मै यह शरीर हूं भान"अर्थात् अहंता लीन होने पर सब कुछ विलीन हो जायेगा।'

हम कौन हैं ?हम मै यह शरीर हूं भान हैं।इस भान को मतलब अहंता को लीन होना चाहिये।

यह लीन होता है मूल स्रोत अर्थात् हृदय में।

इसके लिये अनुसंधान होता है-'मै शरीर हूं भान'कहां से है?

तब हृदय की तरफ ध्यान जायेगा कि मै शरीर हूं भान,हृदय से है।आत्मा से है।स्व से है।स्वयं से है।मै स्वयं से हूं।

केवल मै पर भी ध्यान केंद्रित किया जा सकता है लेकिन आरंभ मे मै शरीर हूँ भान पर ध्यान केंद्रित करना अच्छा रहता है क्योंकि मै मुख्यतः इसी रुप मे है।

अब हम स्वयं को आत्मा,परमात्मा मानते हैं तो क्या होता है ? मै शरीर हूं भान को आत्मा,परमात्मा से जोड दिया जाता है परंतु मै शरीर हूं भान,मैं आत्मा हूं भान नहीं है।कीमत चुकानी पडती है।

ऐसे देखें तो मै हूं भान आत्मा का ही भान है।

मन मे जो विचार, मान्यता, विश्वास होते हैं वे मैं शरीर हूं भान की ही पुष्टि करते हैं, न कि मै आत्मा हूं भान का।

भान को मिटाया नहीं जा सकता। केवल इसको इसके सही रुप मे पहचानना पडता है।

अपने आत्मा होने का भान,अपने सत चित आनंद होने का भान है।

यह स्वतः सिद्ध है।यह सबको मालूम है।केवल मै शरीर हूं- यह मान्यता ही इस परम सत्य को उजागर नहीं होने देती।

दर असल मै शरीर हूं भान को,मै आत्मा हूं भान मे बदलने की जरूरत ही नहीं है।केवल भान को उसके सही रुप मे पहचानने की बात है।

केवल भान को शरीर से जोडना बंद करना है तब यह शुद्ध भान है।मै हूं भान काफी है।

कोई कहे शरीर का भान तो हो सकता है भले ही उसे मै शरीर हूं भान के रुप मे न लें?

तो सवाल अहंता का है।जैसा गीता कहती है-इदं शरीरं

यह शरीर,अहम् नहीं हो सकता।अहं,इदं नहीं हो सकता।मैं यह टेबल नहीं है।इस तरह मै,यह शरीर नहीं है लेकिन भान,मै यह शरीर हूं भान के रुप मे है और यही अहंता है।इसके लीन होने पर सब विलीन होताहै।

तो यह लीन कैसे हो?बहुत सारी साधनाएं हैं।सभी प्रामाणिक हैं।सभी परम शक्ति द्वारा प्रकट हैं।

यहाँ उपाय है-मै शरीर हूं भान कहां से है इसका स्रोत क्या है,इसका पता लगाना है और उसमे रहना है।

साधारणतया हम मै शरीर हूं भान का केंद्र मस्तिष्क को मानते हैं।हमारी पूरी चेतना मस्तिष्क मे केंद्रित है और यही सारी उलझनों का मुख्य कारण है।

चेतना,हृदयकेंद्रित होनी चाहिए जो मै शरीर हूं भान का असली कारण है।इस भान के साथ और भी कई चीज जुड जाती हैं मगर स्रोत वही रहता है।

वस्तुतः मै शरीर हूं भान को मिटाना नहीं है।केवल भान को उसके शुद्ध रुप मे पहचानना है उसके स्रोत का पता लगाकर।

वह स्रोत स्वयं भान है।वह आत्मा का,सच्चिदानंद का भान नहीं अपितु स्वयं आत्मा है,सच्चिदानंद है जिसे हम इस तरह देखते हैं-

मै हूं और मै जानता हूं मै हूं।

यह पर्याप्त है।इसमे दूसरा कुछ भी नहीं आना चाहिए, शरीर भी नहीं।शरीर एक मान्यता है।या एक वस्तु की तरह है-इदं शरीरम्।

भान को शरीर से जोडने पर भान गलत जगह जुड जाता है और तमाम उपद्रवों का स्रोत बन जाता है जबकि उसे सुखशांति का,आनंद का स्रोत होना चाहिए।भान को शरीर से जोडने पर वह भय,चिंता,अशांति का स्रोत बन जाता है।भान ही भयजनक बन जाता है।अपने होने का भान नरक भी पैदा कर सकता है और स्वर्ग भी।

कहते हैं-भान को स्वयं से अर्थात आत्मा से जोडकर देखो,न कि शरीर से या मन से।वैसे तनमन एकरुप ही हैं।मन माया है,मन भयजनक है।भान को मन से जोडने से पीडादायक संदेह उत्पन्न होते हैं।भान को आत्मा से,अस्तित्व से जोडने पर प्रबल,अटल विश्वास उत्पन्न होताहै जिसे आत्मविश्वास कहते हैं।विश्वास भले ही वृत्ति जैसा प्रतीत होता हो मगर यह आत्मा से जुडकर ही कृतार्थ होता है,न कि अहंकार से जुडकर।

अहंकार का आत्मविश्वास, आत्मविश्वास नहीं है।उसे आत्मसंदेह कहना उपयुक्त है क्योंकि आत्मा को ही नकारकर अहंकार स्थापित होता है।

  मूल आधार आत्मा है , अहंकार,शरीर का आधार खोजता है और मै यह नाशवान शरीर हूं भान के रुप मे बना रहता है। ऐसा करके वह समस्त सात्विक, राजसी,तामसी शक्तियो के हाथ की कठपुतली बन जाता है।

  बहुत कम लोग हैं जो मै हूं भान को अपने मूल रुप मे सुरक्षित रख पाते हैं जो आत्मभान है,न कि अहंकार का भान जो सबको भटका रहा है।

इच्छाद्वेषसमुत्थेन द्वंद्व मोहेन भारत।

सर्वभूतानि संमोहं सर्गे यांति परंतप ॥

  है वही होने का भान,न कुछ हटाना है,न मिटाना है केवल उसे सहजता से या प्रबलता से स्वीकारे रहना है।यदि अस्तित्व के भान को अहंकार से जोडा,अहम्मन्यता से जोडा-मै यह हूं,मै वह हूं मानकर-तो इच्छा और द्वेष से उत्पन्न सुखदुखादि द्वंद्व रुप मोह से अति अज्ञानता को प्राप्त होना पडेगा।

   बस इतना ही जानना है कि हमारे होने का भान,अहंकार का भान नहीं है।

"मै यह शरीर हूं भान"अर्थात् अहंता उदित होने पर सब कुछ उदित होगा और मै यह शरीर हूं भान अर्थात् अहंता लीन होने पर सब कुछ विलीन हो जायेगा।'

  मै हूं को मै नहीं हूं मे कभी बदला नहीं जा सकता। मै हूं सदा बना रहता है। केवल मै शरीर हूं भान की गलती का निवारण कर मै आत्मा हूं भान के सच को जानलेने,अनुभव कर लेनेकी बात है।

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