mahakavi nirala चिड़ी चोंच भर ले गई, नदी न घटियो नीर। दान दिए धन न घटे, कह गए दास कबीर॥ अभिप्राय: यह है कि जब भगवान ने आपको दिया है ...
mahakavi nirala |
चिड़ी चोंच भर ले गई, नदी न घटियो नीर।
दान दिए धन न घटे, कह गए दास कबीर॥
अभिप्राय: यह है कि जब भगवान ने आपको दिया है तो आप भी दान करें। दानी कभी घाटे में नहीं रहता। दान तो कई गुणा बढ़ता है।
रविंद्रनाथ टैगोर ने स्वरचित पुस्तक पुष्पांजलि में एक सत्य कथा का बड़ा सुंदर वर्णन किया है कि -
एक बार एक सज्जन नगर के बाजार से ज्वार खरीद कर ला रहे थे। मार्ग के मध्य में उनकी भेंट एक भिखारी से हुई। भिखारी ने हाथ फैला कर कहा, ‘‘बाबू जी! कुछ देते जाओ।’’ उस भद्र पुरुष ने उस ज्वार में से एक दाना उठाया और भिखारी के हाथ पर रख दिया।
भिखारी ने शुभकामना व्यक्त करते हुए कहा, ‘‘अच्छा बाबू जी, भगवान आपको खूब दें। अनगिनत होकर मिले।
घर पहुंचते ही उन सज्जन ने ज्वार धर्मपत्नी के हाथों सौंप दी। जब वह उसे पकाने के लिए साफ करने लगी तो ज्वार के दानों में एक सोने का दाना देखकर आश्चर्यचकित रह गई। पत्नी ने तुरंत अपने पति से कहा, ‘‘आप जिस दुकानदार से ज्वार खरीद कर लाए हैं वह तो घाटे में रहा। उसके साथ धोखा हुआ है। उसका एक सोने का दाना गलती से इस ज्वार में आ गया है। कृपया उसे लौटा आइए।’’
पति को मध्य मार्ग में मिले भिखारी की तुरंत याद आ गई। पति ने माथे पर हाथ मार कर कहा, ‘‘धोखा एवं घाटा उस दुकानदार को नहीं हुआ, धोखा तो मेरे साथ हुआ है।’’
पत्नी ने पूछा, ‘‘वह कैसे?’’
पति ने गंभीर स्वर में कहा, ‘‘मैंने आते समय एक भिखारी के मांगने पर एक ज्वार का दाना दान में दिया था। उसे ही भगवान ने सोने में परिवर्तित कर दिया है। यदि मुठ्ठी भर दे देता तो आज हमारी दरिद्रता दूर हो जाती।’’
अत: जब दान देने का सुअवसर मिले तो दिल खोलकर उदारतापूर्वक दें। दान देकर सुख की जो अनुभूति होती है उसका वर्णन शब्दों द्वारा नहीं किया जा सकता। उस दिव्य आनंद की अनुभूति उसे ही होती है जो प्रेम एवं उदारतापूर्वक दान करता है।
रहिमन वे नर मर चुके, जो कछु मांगन जाहिं।
उनसे पहले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं ।।
पुरुषार्थ के बल पर जीवन यापन करने वाले व्यक्ति का समाज में आदर होता है, किंतु जो श्रम ना कर परिस्थितियों के समक्ष घुटने टेक देते हैं एवं दूसरों के सामने हाथ फैला देते हैं, ऐसे मनुष्य का आत्मसम्मान मर हो चुका होता है।
याचना करने वालों से भी अधिक नीच कुछ व्यक्ति है। जो व्यक्ति किसी से कुछ मांगते अथवा याचना करते हैं, ऐसे व्यक्ति मृतक के समान है। अर्थात ऐसे व्यक्तियों का आत्मसम्मान, इच्छाशक्ति और अंतर आत्मा मर चुकी होती है।
किंतु ऐसे व्यक्तियों से पहले वह व्यक्ति मृतक हो जाते हैं, जिनके मुख से याचना करने वाले के लिए नहीं निकलता है।
अर्थात, जो दान करने के इच्छुक नहीं होते हैं। रहीम ने दोनों ही स्थितियों को मनुष्य के लिए लज्जा का विषय बताया है । किंतु दान देने से मना कर देने वाले व्यक्ति से अधिक हेय और कोई नहीं है। परोपकार ना करना मृत होने के समान बताया गया है।
तुलसी पंछी के पिये, घटे न सरिता नीर ।
दान दिये धन ना घटे, जो सहाय रघुवीर ।।
संतशिरोमणि तुलसीदास जी द्वारा रचित यह दोहा दान करने से डरने वाले व्यक्तियों के लिए उपयोगी है। दान करना परमार्थ का कार्य है, जिससे मनुष्य के सभी गुण और अधिक श्रेष्ठ बनते हैं।
दान करने से धन कम होता है, इस विचार को गलत बताते हुए कविवर तुलसीदास जी कहते हैं कि नदी से पंछी के पानी पी लेने से नदी का पानी कम नहीं हो जाता।
केवल पक्षी ही नहीं, बल्कि असंख्य जानवर व मनुष्य प्रतिदिन नदी से पानी लेते हैं, पर क्या कभी नदी का पानी कम होता है ? नहीं ! ठीक इसी प्रकार तुलसी कहते हैं कि दान देने से मनुष्य का धन नहीं घटता।
दान करना परोपकार है, जिससे व्यक्ति ईश्वर का आशीर्वाद पाता है । अर्थात दानी व्यक्ति से सदा ईश्वर प्रसन्न रहते हैं एवं उसकी झोली सदा धन से भरकर रखते हैं।
कभी भी हमें दूसरों को कुछ देने से पहले यह नहीं सोचना चाहिए कि इस वस्तु के दान से हमारे पास वह वस्तु कम हो जाएगी। सच्चे मन से किया गया दान बड़ी तपस्या के फल के समान होता है । अतः मनुष्य को सदैव परोपकार हेतु दान करना चाहिए।
अभिसन्धाय तु फलं दम्भार्थमपि चैव यत् ।
इज्यते भरतश्रेष्ठ तं यज्ञं विद्धि राजसम् ॥
परन्तु हे भरतश्रेष्ठ ! जो यज्ञ और पूजा-पाठ केवल फल की इच्छा के लिये अहंकार से युक्त होकर किया जाता है उसको तू राजसी यज्ञ समझ। हमारे समाज में हमें धन-संपत्ति मिले, पति-पत्नी, पुत्र-परिवार अच्छा मिले, नौकर-चाकर हमारे अनुकूल मिले, हमारा शरीर निरोग रहे, देश-दुनिया में आदर-सत्कार, और प्रसिद्धि प्राप्त हो, हमारे दुश्मन नष्ट हो जाएँ इतना ही नहीं मरने के बाद भी स्वर्ग लोक में सुंदर-सुंदर भोग भोगने को मिले। इन कामनाओं से प्रेरित होकर किए गए यज्ञ और अनुष्ठान कर्मों को राजसी समझना चाहिए।
मरुँ पर मांगू नहीं, अपने तन के काज ।
परमारथ के कारने, मोहि न आबे लाज॥
अपने लिए दूसरों के सामने हाथ फैलाना मरने के समान है। व्यक्ति को अपने लिए कभी याचना नहीं करनी चाहिए । किंतु यदि बात दूसरों के हित की हो, तो व्यक्ति को सौ बार भी हाथ फैलाने पड़ जाए, तब भी वह पुण्य का भागी बनता है। इसी संदेश को प्रतिपादित करते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि मैं मरना पसंद करूंगा, किंतु अपने शरीर की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए किसी से भी कुछ नहीं मांगूंगा।
अर्थात् स्वयं के लिए कुछ भी मांगना मृत्यु सदृश है। किंतु यदि परमार्थ, अर्थात दूसरों की सहायता के लिए याचना करनी पड़े, तो मुझे तनिक भी लज्जा नहीं होगी। यह दोहा हमें यह शिक्षा देता है कि मनुष्य की पहली प्राथमिकता केवल परोपकार एवं परमार्थ होना चाहिए, जिसके लिए उसे जो भी करना पड़े, वह करने से पीछे ना हटे।
विधिहीनमसृष्टान्नं मन्त्रहीनमदक्षिणम् ।
श्रद्धाविरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते ॥
जो यज्ञ शास्त्रों के निर्देशों के बिना, अन्न का वितरण किये बिना, वैदिक मन्त्रों के उच्चारण के बिना, पुरोहितों को दक्षिणा दिये बिना और श्रद्धा के बिना किये जाते हैं, उन यज्ञ को तामसी यज्ञ माना जाता है।
कभी-कभी तामस प्रवृत्ति के लोग यह सोचते हैं कि हमने यज्ञ में आहुति दे दी और ब्राह्मणों को ठीक से भोजन करा दिया, अब उनको दक्षिणा देने की क्या जरूरत है? यदि हम उनको दक्षिणा देंगे तो वे आलसी हो जाएँगे कुछ काम नहीं करेंगे। वे लोग यह नहीं सोचते कि ब्राह्मणों को दक्षिणा न देने से वे आलसी या प्रमादी बने या न बने शास्त्र नियम का उल्लंघन कर हम तो प्रमादी बन गए। यज्ञ अथवा अनुष्ठान आदि कर्म सम्पन्न होने के बाद ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा अवश्य देना चाहिए, यह शास्त्र की आज्ञा है।
जो कोई करै सो स्वार्थी, अरस परस गुण देत।
बिन किये करै सो सूरमा, परमारथ के हेत ।।
दान अथवा परोपकार का अर्थ यह नहीं है कि व्यक्ति कुछ दे, और बदले में कुछ ले, अथवा लेने की आशा रखे। परमार्थ केवल देने की भावना से किया जाता है। यही समझाते हुए कबीरदास जी कहते हैं कि जो अरस परस कर देता है, अर्थात जो व्यक्ति अपने लिए किए गए कार्य के बदले में ही कुछ करता है, वह निश्चय ही स्वार्थी है।
ऐसा व्यक्ति स्वेच्छा से कभी भी दान नहीं करता। असली सूरमा तो वह है, जो बिना किसी उपकार की आशा के, केवल परमार्थ की सिद्धि के लिए दूसरों की सहायता एवं उपकार करें। यहां हमें यह समझना होगा कि स्वार्थ में देने के बदले लेने की भावना निहित होती है, किंतु परमार्थ में केवल देने की इच्छा होती है। अपना लाभ देखकर किया गया दान ना तो दान कहलाता है, और ना ही परोपकार।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥
किन्तु जो दान बदले में कुछ पाने की भावना से अथवा किसी प्रकार के फल की कामना से और बिना इच्छा के दिया जाता है, उसे राजसी (रजोगुणी) दान कहा जाता है।
एक बार हिंदी के महान साहित्यकार सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' जी रॉयल्टी के एक हजार रुपये लेकर, इक्के ( तांगा )में बैठकर, इलाहाबाद की एक सड़क पर चले जा रहे थे।
रास्ते में सड़क के किनारे एक बूढ़ी भिखारिन बैठी हुई थी। ढलती उम्र में भी वह हाथ पसार कर भीख मांग रही थी।
उसे देखकर निराला जी ने इक्का रुकवाया और उनके पास गए, और पूछा - ' माई ! आज कितनी भीख मिली ?
बुढ़िया ने जवाब दिया -' सुबह से आज कुछ नहीं मिला बेटा !'
बुढ़िया के इस उत्तर को सुनकर निराला जी सोच में पड़ गए कि बेटे के रहते मां भीख मांग रही है।
एक रुपैया बुढ़िया के हाथ पर रख कर बोले, ' मां अब कितने दिन भीख नहीं मांगोगी ?
तीन दिन बेटा ।
दस रुपये दे दूं तो…?
बीस या पच्चीस दिन ।
सौ रुपये दे दूं तो…?
चार-पांच महीने तक !
चिलचिलाती धूप में सड़क के किनारे मां मांगती गई, बेटा देता गया।
इक्के वाला हक्का-बक्का रह गया।
बेटे की जेब हल्की होती गई और मां के भीख न मांगने की अवधि बढ़ती चली गई।
जब निराला जी ने रुपयों की अंतिम ढेरी भी बुढ़िया की झोली में डाल दी तो बुढ़िया खुशी से चीख उठी और कहने लगी, "अब कभी भी नहीं मांगूंगी बेटा, कभी नहीं।"
निराला जी ने संतोष की सांस ली। बुढ़िया के पैर छुए । बुढ़िया ने उन्हें ढेरों आशीष और दुआएं दी ।
निराला जी इक्के में बैठकर अपने घर की राह पर चल दिए। उनके चेहरे पर एक अजीब संतोष व फक्कड़ता का भाव था।
COMMENTS