उघरहिं बिमल बिलोचन ही के। मिटहिं दोष दुख भव रजनी के ॥ सूझहिं राम चरित मनि मानिक। गुपुत प्रगट जहँ जो जेहि खानिक॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  श्रीगुरु के प्रकाश से हृदय के निर्मल नेत्र खुल जाते हैं और संसार रूपी रात्रि के दोष-दुःख मिट जाते हैं एवं श्रीरामचरित्र रूपी मणि और माणिक्य गुप्त रूप और प्रकट रूप से जहाँ जो जिस खान में होते हैं, वह सब दिखायी पड़ने लगते हैं।

  राम चरित मानस का स्थान हिंदी-साहित्य में ही नहीं, जगत के साहित्य में निराला है. इसके जोड़ का ऐसा ही सर्वांगसुंदर, उत्तम काव्य के लक्षणों से युक्त, साहित्य के सभी रसों का आस्वादन कराने वाला, काव्य कला की दृष्टि से भी सर्वोच्च कोटि(Best Literature in whole world, Hindi Article)  का तथा आदर्श गार्हस्थ्य-जीवन, आदर्श राजधर्म, आदर्श पारिवारिक जीवन, आदर्श पतिव्रतधर्म, आदर्श भ्रातृधर्म के साथ-साथ सर्वोच्च भक्ति, ज्ञान, त्याग, वैराग्य था सदाचार की शिक्षा देने वाला, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध और युवा- सबके लिए सामान उपयोगी एवं सर्वोपरि सगुन-साकार भगवान की आदर्श मानवलीला तथा उनके गन, प्रभाव, रहस्य तथा प्रेम के गहन तत्व को अत्यंत सरल, रोचक एवं ओजस्वी शब्दों में व्यक्त करने वाला कोई दूसरा ग्रन्थ हिंदी-भाषा में ही नहीं।

 कदाचित संसार की किसी भाषा में आज तक नहीं लिखा गया. यही कारण है कि जितने चाव से गरीब-अमीर, शिक्षित-अशिक्षित कम पढ़े-लिखे, गृहस्थ-सन्यासी, स्त्री-पुरुष, बालक-वृद्ध, सभी श्रेणी के लोग इस ग्रन्थ रत्न को पढ़ते हैं, उतने चाव से और किसी ग्रन्थ को नहीं पढ़ते तथा भक्ति, ज्ञान, नीति, सदाचार का जितना प्रचार जनता में इस ग्रन्थ से हुआ है, उतना कदाचित और किसी ग्रन्थ से नहीं हुआ।

   किसी विषय में हमें जिससे ज्ञानरूपी प्रकाश मिले, हमारा अज्ञानान्धकार दूर हो, उस विषय में वह हमारा गुरु है। जैसे, हम किसी से मार्ग पूछते हैं और वह हमें मार्ग बताता है तो मार्ग बताने वाला हमारा गुरु हो गया, हम चाहे गुरु माने या न मानें। उससे सम्बन्ध जोड़ने की जरूरत नहीं है। विवाह के समय ब्राह्मण कन्या का सम्बन्ध वर के साथ करा देता है तो उनका उम्र भर के लिये पति-पत्नी का सम्बन्ध जुड़ जाता है। वही स्त्री पतिव्रता हो जाती है। फिर उनको कभी उस ब्राह्मण की याद ही नहीं आती; और उसको याद करने का विधान भी शास्त्रों में कहीं नहीं आता। ऐसे ही गुरु हमारा सम्बन्ध भगवान् के साथ जोड़ देता है तो गुरु का काम हो गया। तात्पर्य है कि गुरु का काम मनुष्य को भगवान् के सम्मुख करना है। मनुष्य को अपने सम्मुख करना, अपने साथ सम्बन्ध जोड़ना गुरु का काम नहीं है। इसी तरह हमारा काम भी भगवान् के साथ सम्बन्ध जोड़ना है, गुरु के साथ नहीं। जैसे संसार में कोई माँ है, कोई बाप है, कोई भतीजा है, कोई भौजाई है, कोई स्त्री है, कोई पुत्र है, ऐसे ही अगर एक गुरु के साथ और सम्बन्ध जुड़ गया तो इससे क्या लाभ ? पहले अनेक बन्धन थे ही, अब एक बन्धन और हो गया ! 

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः॥

भगवान् के साथ तो हमारा सम्बन्ध सदा से और स्वतः- स्वाभाविक है; क्योंकि हम भगवान् के सनातन अंश हैं।

ईस्वर अंस जीव अबिनासी॥

गुरु उस भूले हुए। सम्बन्ध को याद कराता है, कोई नया सम्बन्ध नहीं जोड़ता।

  मैं प्राय: यह पूछा करता हूँ कि पहले बेटा होता है कि बाप ? इसका उत्तर प्राय: यही मिलता है कि बाप पहले होता है। परन्तु वास्तव में देखा जाय तो पहले बेटा होता है, फिर बाप होता है। कारण कि बेटा पैदा हुए बिना उसका बाप नाम होगा ही नहीं। पहले वह मनुष्य (पति) है और जब बेटा जन्मता है, तब उसका नाम बाप होता है। इसी तरह शिष्य को जब तत्त्वज्ञान हो जाता है, तब उसके मार्गदर्शक का नाम 'गुरु' होता है। शिष्य को ज्ञान होने से पहले वह गुरु होता ही नहीं। इसीलिये कहा है-

गुकारश्चान्धकारो हि रुकारस्तेज उच्यते।

अज्ञानग्रासकं     ब्रह्म  गुरुरेव न संशयः॥

  अर्थात् 'गु' नाम अन्धकार का है और 'रु' नाम प्रकाश का हैं, इसलिये जो अज्ञानरूपी अन्धकार को मिटा दे, उसका नाम गुरु के विषय में एक दोहा बहुत प्रसिद्ध है-

 गुरु गोविन्द दोउ खड़े, किनके लागूं पाय।

 बलिहारी गुरुदेव की, गोविन्द दियो बताय॥

  गोविन्द को बता दिया, सामने लाकर खड़ा कर दिया, तब गुरु की बलिहारी होती है। गोविन्द को तो बताया नहीं और गुरु बन गये—यह कोरी ठगाई है। केवल गुरु बन जाने से गुरुपना सिद्ध नहीं होता। इसलिये अकेले खड़े गुरु की महिमा नहीं है। महिमा उस गुरु की है, जिसके साथ गोविन्द भी खड़े हैं-'गुरु गोविन्द दोउ खड़े' अर्थात् जिसने भगवान् की प्राप्ति करा दी है।

  असली गुरु वह होता है, जिसके मन में चेले के कल्याण की इच्छा हो और चेला वह होता है, जिसमें गुरु की भक्ति हो-

 को वा गुरुर्योहि हितोपदेष्टा।

        शिष्यस्तु को यो गुरुभक्त एव॥      

  अगर गुरु पहुँचा हुआ हो और शिष्य सच्चे हृदय से आज्ञा पालन करने वाला हो तो शिष्य का उद्धार होने में सन्देह नहीं है।

पारस केरा गुण किसा, पलटा नहीं लोहा।

कै तो निज पारस नहीं, कै बीच रहा बिछोहा॥

   अगर पारस के स्पर्श से लोहा सोना नहीं बना तो वह पारस असली पारस नहीं है अथवा लोहा असली लोहा नहीं है अथवा बीच में कोई आड़ है। इसी तरह अगर शिष्य को तत्त्वज्ञान नहीं हुआ तो गुरु तत्त्वप्राप्त नहीं है अथवा शिष्य आज्ञापालन करनेवाला नहीं है अथवा बीच में कोई आड़ (कपटभाव) है।

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