विष्णु, शंकर, गणेश, सूर्य और देवी - ये पाँचों एक ही हैं। विष्णुकी बुद्धि 'गणेश' हैं, अहम् 'शंकर' हैं, नेत्र 'सूर्य...
विष्णु, शंकर, गणेश, सूर्य और देवी - ये पाँचों एक ही हैं। विष्णुकी बुद्धि 'गणेश' हैं, अहम् 'शंकर' हैं, नेत्र 'सूर्य' हैं और शक्ति 'देवी' है। राम और कृष्ण विष्णुके अन्तर्गत ही हैं। साधकको कोई एक इष्ट स्थापित करना चाहिये। एक ही सिद्धान्त, एक ही इष्ट, एक ही मन्त्र, एक ही माला, एक ही आसन और एक ही समय हो तो जल्दी सिद्धि होती है। जिसमें हमारी स्वाभाविक रुचि होती है, वही साधन सिद्ध होता है।
अपनी रुचि, श्रद्धा-विश्वास और योग्यताको देखकर ही साधन करना चाहिये। इनके बिना, केवल गुरुके कहनेपर साधन करनेपर जल्दी सिद्धि नहीं होती। कोई साधन ठीक न बैठे तो रात-दिन नामजप करो। फिर सब ठीक हो जायगा।
साधन तो सभी कल्याण करनेवाले हैं, पर अपनी रुचि, श्रद्धा और योग्यता होनी चाहिये। जो साधन करें, मनमें वह साधन सर्वोपरि जँचना चाहिये। नामजप और प्रार्थना सबके लिये बढ़िया है। अपने कल्याणकी जोरदार इच्छा होनी चाहिये। भोजन तो कोई दे देगा, पर भूख तो खुदकी चाहिये। इसलिये अपनी भूख (लगन) बढ़ाओ। आपकी सच्ची लगन होगी तो गुरु, सन्त, सत्संग सब मिल जायँगे।
राम और शिव - दोनों अच्छे लगते हों तो रामको इष्ट मानो और शिवको गुरु मानो।
जो महात्मा मिले हैं, उनसे लाभ ले लो तो आगे उनसे श्रेष्ठ महात्मा मिल जायँगे। भगवान् सबसे बड़े गुरु हैं। वे कक्षा बदल देंगे।
वास्तवमें भजन बहुत होता ही नहीं। जितना करें, उतना ही कम है!
शरीर हमारी क्या सहायता करेगा? क्या अनित्य नित्यकी सहायता कर सकता है?
जिस गतिसे आप साधन कर रहे हैं उस गतिसे कल्याण कब होगा? - विचार करें। जीवनका भरोसा नहीं है। शरीर चला गया तो? बीमारी आ गयी तो? भाव बदल गया तो? पागलपन आ गया तो?
विचार करो कि अपना कौन है? अगर अभी मृत्यु आ जाय तो कोई सहायता कर सकता है?
अपना शरीर, अपनी स्त्री - ये चीजें देनेकी नहीं होतीं। अतः मृत्यूपरान्त अपने शरीरका कोई अंग नहीं देना चाहिये। यह बात शास्त्रके सिद्धान्तसे समझमें आती है। अपनी आयु देना, अपना अंग देना जीवन्मुक्तका ही अधिकार है, हरेकका अधिकार नहीं।
व्यवहारमें समता लाना पशुता है। दूसरेको सुख पहुँचाने और उसका दुःख दूर करनेमें समता होनी चाहिये।
भगवान् का होकर नाम लेनेका जो माहात्म्य है, उतना केवल नाम लेनेका नहीं। भगवान् का होकर नाम लेनेका विशेष माहात्म्य है।
नींद बाकी रही हो, भोजन अधिक किया हो, अजीर्ण रोग हो, ज्यादा परिश्रम किया हो, भजनमें रुचि कम हो - इन कारणोंसे भजन-स्मरण करते समय नींद आती है। भोजन करते समय नींद नहीं आती, पर भजन करते समय नींद आती है तो आपने भजनको आवश्यक नहीं समझा। यदि भजनमें रुचि तेज हो तो अन्य कारणोंके होते हुए भी नींद नहीं आती।
कर्तव्य-पालनसे वैराग्य होता है, उपरामता होती है। भजन करना कर्तव्य नहीं है। यह खुदकी आवश्यकता है, खुदकी भूख है। भजनके बिना रहा न जाय।
ईश्वर कैसा है - यह विचार तो तब करें, जब हम उसे छोड़ सकें। जब हम उसे छोड़ ही नहीं सकते तो फिर वह कैसा ही हो, उससे हमें क्या मतलब?
केवल ब्याजसे अपनी जीविका चलाना ठीक नहीं है।
शरीर मैं नहीं, मेरा नहीं, मेरे लिये नहीं - यह साधकोंके लिये खास बात है। शरीरका स्वभाव बदलनेका है। शरीर दूसरा हो जाता है, पर शरीरी दूसरा नहीं होता। अनन्त ब्रह्मा बीत जायँ तो भी शरीरी ज्यों-का-त्यों रहेगा।
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