चन्द्रगुप्त मौर्य की गुरु भक्ति

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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chanakya_chandragupta
chankya and chandragupta

गुरु   गूंगे   गुरु   बाबरे, गुरु   के  रहियो दास।

गुरु जो भेंजे नरक को, स्वर्ग को रखिए आस॥

  गुरु चाहे गूंगा हो चाहे बाबरा गुरु के हमेशा दास रहना चाहिए। गुरु यदि नरक को भेंजे तब भी शिष्य को यह इच्छा रखनी चाहिए कि मुझे स्वर्ग प्राप्त होगा।

बात उस समय की है, जब अखंड भारत की नीव रखी जा रही थी, और चन्द्रगुप्त मौर्य युद्ध में संघर्षरत था । तभी एक सर्प ने चन्द्रगुप्त मौर्य को डस लिया और वह मूर्छित हो भूमि पर गिर पड़ा । वह कोई साधारण सर्प नही था, उस सर्प का विष असाध्य था । सभी की अखंड भारत की आशा चन्द्रगुप्त पर ही टिकी थी, परन्तु चन्द्रगुप्त तो पल प्रति पल मृत्यु की ओर बढ़ रहा था । जिसके सिर पर गुरु का हाथ हुआ करता है, उसका कोई भी अनहोनी कुछ नही बिगाड़ सकती ।

अनहोनी को होनी में और होनी को अनहोनी में बदलना पड़ता है । चन्द्रगुप्त भी पूर्ण शिष्य था, गुरु चाणक्य का । चन्द्रगुप्त म्रत्यु की ओर बढ़ते बढ़ते, अपने बाल्यकाल में पहुँच गया और उसने दूर पेड़ के नीचे अपना बाल स्वरूप देखा, जो प्याले में कुछ पी रहा था । यह देख युवक ने बालक चन्द्रगुप्त से पूछा कि- तुम यह क्या पी रहे हो ।

तो उसने कहा- मेरे गुरुदेव मुझे प्रतिदिन यह औषधि देते है, वही पी रहा हूँ । युवक चन्द्रगुप्त ने पूछा- तुमको कौन सा रोग है । तब बालक चन्द्रगुप्त कहता है कि - मै गुरुदेव से कोई भी प्रश्न नही करता, वह जो कहते है, वही मेरे लिए मान्य होता है। तब युवक चन्द्रगुप्त कहता है कि- मै तुम्हारी गुरु भक्त्ति पर प्रश्न नही उठा रहा, परन्तु यदि तुम गुरु आज्ञा का मर्म जान लोगे तो उस आज्ञा को भावना से निभा पाओगे । और यह सुन बालक चन्द्रगुप्त चल पड़े गुरुदेव के पास, और गुरुदेव से यही प्रश्न करते है कि- हे गुरुदेव-आप मुझे प्रतिदिन कौन सी ओषधि देते है ।

  गुरुदेव कहते है कि- तुम्हारे शत्रु तुम्हे बल से हरा नही पायेगे, परन्तु छल से अवश्य हरा सकते है और उस छल का सबसे उत्तम साधन है- विष ।

  कोई भी विष देकर तुमको मुझसे छीन लेगा । अत: मै ऐसी प्रत्येक सम्भावना को समाप्त कर देना चाहता हूँ ।  इस कारण मै तुमको प्रतिदिन मीठे शहद में बूंद बूंद कर विष पिला रहा हूँ, ताकि तुम्हारे शरीर में विष से लड़ने की शक्त्ति आ सके ।

 और दूसरी और युवक चन्द्रगुप्त यह सार द्रश्य देखकर वापस से अपने शरीर में लौट गया और अचानक से चन्द्रगुप्त की चेतना लौटी । उसका ह्रदय पुन: गातिमय हो गया। और उठते ही चन्द्रगुप्त ने यही कहा- वर्षो से गुरुदेव मुझे जो ओषधि पिला रहे थे, उसका रहस्य मुझे आज पता चला और मेरे जीवन तो मेरे गुरुदेव ही है। इसी के साथ अखंड भारत की स्थापना हुई ।

इस कार्य में चन्द्रगुप्त की शक्त्ति थी, उसकी गुरु भक्त्ति । गुरु आज्ञा के प्रति उसका समर्पण । गुरुदेव जो भी कराते, जो भी खिलाते, वही बिना प्रश्न किये स्वीकार करना । गुरुदेव का प्रत्येक कर्म उत्तम । 

   हे साधको! जिस प्रकार से चन्द्रगुप्त का सवालरहित समर्पण उसका रक्षा सूत्र बन पाया। उसी प्रकार से प्रत्येक शिष्य का समर्पण, उसकी बड़ी से बड़ी विपत्ति में भी रक्षा किया करता है । परन्तु शिष्य का यह समर्पण प्रश्नरहित होना चाहिये । अन्यथा, संशय की एक बूँद सब कुछ नष्ट की क्षमता रखा करती ।

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