laxman rekha महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है-- सोमंब्रही वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस...
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महर्षि श्रृंगी कहते हैं कि एक वेदमन्त्र है--
सोमंब्रही वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति।।
यह वेदमंत्र कोड है उस सोमना कृतिक यंत्र का,, पृथ्वी और बृहस्पति के मध्य कहीं अंतरिक्ष में वह केंद्र है जहां यंत्र को स्थित किया जाता है। वह यंत्र जल,वायु और अग्नि के परमाणुओं को अपने अंदर सोखता है। कोड को उल्टा कर देने पर एक खास प्रकार से अग्नि और विद्युत के परमाणुओं को वापस बाहर की तरफ धकेलता है।
जब महर्षि भारद्वाज ऋषिमुनियों के साथ भृमण करते हुए वशिष्ठ आश्रम पहुंचे तो उन्होंने महर्षि वशिष्ठ से पूछा -- राजकुमारों की शिक्षा दीक्षा कहाँ तक पहुंची है ? महर्षि वशिष्ठ ने कहा कि यह जो ब्रह्मचारी राम है - इसने आग्नेयास्त्र वरुणास्त्र ब्रह्मास्त्र का संधान करना सीख लिया है। यह धनुर्वेद में पारंगत हुआ है महर्षि विश्वामित्र के द्वारा, यह जो ब्रह्मचारी लक्ष्मण है यह एक दुर्लभ सोमतिती विद्या सीख रहा है। उस समय पृथ्वी पर चार गुरुकुलों में वह विद्या सिखाई जाती थी।
महर्षि विश्वामित्र के गुरुकुल में, महर्षि वशिष्ठ के गुरुकुल में, महर्षि भारद्वाज के यहां, और उदालक गोत्र के आचार्य शिकामकेतु के गुरुकुल में इस विद्या की पूर्ण शिक्षा दी जाती थी।
श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि लक्ष्मण उस विद्या में पारंगत था। एक अन्य ब्रह्मचारी वर्णित भी उस विद्या का अच्छा जानने वाला था।
सोमंब्रहि वृत्तं रत: स्वाहा वेतु सम्भव ब्रहे वाचम प्रवाणम अग्नं ब्रहे रेत: अवस्ति।।
इस मंत्र को सिद्ध करने से उस सोमना कृतिक यंत्र में जिसने अग्नि के वायु के जल के परमाणु सोख लिए हैं उन परमाणुओं में फोरमैन आकाशीय विद्युत मिलाकर उसका पात बनाया जाता है। फिर उस यंत्र को क्रियाशील (एक्टिवेट) करें और उसकी सहायता से एक लेजर बीम जैसी किरणों से उस रेखा को पृथ्वी पर गोलाकार खींच दें।
उसके अंदर जो भी रहेगा वह सुरक्षित रहेगा, लेकिन बाहर से अंदर अगर कोई जबर्दस्ती प्रवेश करना चाहे तो उसे अग्नि और विद्युत का ऐसा झटका लगेगा कि वहीं राख बनकर उड़ जाएगा जो भी व्यक्ति या वस्तु प्रवेश कर रहा हो, ब्रह्मचारी लक्ष्मण इस विद्या के इतने जानकार हो गए थे कि कालांतर में यह विद्या सोमतिती न कहकर लक्ष्मण रेखा कहलाई जाने लगी।
महर्षि दधीचि, महर्षि शांडिल्य भी इस विद्या को जानते थे, श्रृंगी ऋषि कहते हैं कि योगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण इस विद्या को जानने वाले अंतिम थे, उन्होंने कुरुक्षेत्र के धर्मयुद्ध में मैदान के चारों तरफ यह रेखा खींच दी थी, ताकि युद्ध में जितने भी भयंकर अस्त्र शस्त्र चलें उनकी अग्नि उनका ताप युद्धक्षेत्र से बाहर जाकर दूसरे प्राणियों को संतप्त न करे।
मुगलों द्वारा करोडों करोड़ो ग्रन्थों के जलाए जाने पर और अंग्रेजों द्वारा महत्वपूर्ण ग्रन्थों को लूट लूटकर ले जाने के कारण कितनी ही अद्भुत विधाएं जो हमारे यशस्वी पूर्वजों ने खोजी थी लुप्त हो गई। जो बचा है उसे संभालने में प्रखर बुद्धि के युवाओं को जुट जाना चाहिए, ईश्वर सद्बुद्धि दे।
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