कर्म की गठरी लाद के जग में फिरे इंसान।
जैसा करे वैसा भरे विधि का यही विधान॥
प्रत्येक व्यक्ति संसार में किसी न किसी विशेष उद्देश्य से आता है और उसका यह एक जन्मजात स्वभाव भी होता है। वह उस विशेष उद्देश्य को पूरा करते हुए स्वभाव के अनुसार कर्म करने में समर्थ होता है। इसके विपरीत जाने के लिए वह स्वतंत्र नहीं।
कोई मेरा बुरा करे वह उसका कर्म है।
मैं किसी का बुरा न करुँ वो मेरा धर्म है॥
उदाहरण के रूप में अर्जुन को लीजिए, पृथ्वी के भार को दूर करने के विशेष उद्देश्य से उसका जन्म हुआ था। अतएव इस कार्य में वह परतंत्र हुआ। उसे यह कार्य करना ही होगा। ईश्वर समस्त प्राणियों के हृदय में रहता हुआ उन्हें घुमाता रहता है। हमारे शरीर के भीतर जितने रक्त के कण हैं, वे जिस स्थान पर हैं, वहीं रहने के लिए विवश हैं। कहा जा सकता है कि हमारी शक्ति उनके भीतर है और हम उनको संचालित करते हैं, परंतु वे अपने स्थान पर रहते हुए अपनी चेष्टाओं में स्वतंत्र हैं। ऐसे ही ईश्वर द्वारा नियुक्त स्थान पर रहते हुए, संसार में अपने आने के उद्देश्य को पूर्ण करते हुए मनुष्य अपनी दूसरी चेष्टाओं में स्वतंत्र है। यही है मनुष्य का कर्म -स्वातंत्र्य।
इसीलिए भगवान ने कर्मण्येवाधिकारस्ते कहा है, केवल कर्म में अधिकार है, स्वभाव परिवर्तन या ईश्वर के दिए स्थान-परिवर्तन में नहीं। मा फलेषु.कदाचन् - फल में तेरा अधिकार कभी नहीं है। अतः कर्म का यह फल होगा ही या यह फल होना चाहिए, ऐसा सोचकर कर्म करने वाले सदा दुःख पाते हैं।
मैं अरु मोर तोर तैं माया।
जेहिं बस कीन्हे जीव निकाया॥
अब एक कहानी के माध्यम से समझते हैं-
एक बार कागज का एक टुकड़ा हवा के वेग से उड़ा और पर्वत के शिखर पर जा पहुँचा । पर्वत ने उसका आत्मीय स्वागत किया और कहा भाई यहाँ कैसे पधारे ?
कागज ने कहा-अपने दम पर जैसे ही कागज ने अकड़ कर कहा अपने दम पर और तभी हवा का एक दूसरा झोंका आया और कागज को उड़ा ले गया। अगले ही पल वह कागज नाली में गिरकर गल-सड़ गया । जो दशा एक कागज की है वही दशा हमारी है। कोई भी व्यक्ति ऊँचे स्थान पर बैठकर ऊँचा नहीं होता बल्कि अपने गुणों कर्मों से होता है। पुण्य की अनुकूल वायु का वेग आता है तो हमें शिखर पर पहुँचा देता है और पाप का झोंका आता है तो रसातल पर पहुँचा देता है। किसका मान ? किसका गुमान ? प्रभु कहते हैं कि जीवन की सच्चाई को समझो संसार के सारे संयोग हमारे अधीन नहीं हैं।
कर्म प्रधान विश्व रचि राखा।
जो जस करहि सो तस फल चाखा॥
कर्म के अधीन हैं और कर्म कब कैसी करवट बदल ले। कोई भरोसा नहीं इसलिए कर्मों के अधीन परिस्थितियों का कैसा गुमान।
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।
सब धर्मों का परित्याग करके तुम एक मेरी ही शरण में आओ, मैं तुम्हें समस्त पापों से मुक्त कर दूँगा, तुम शोक मत करो।।
जिस प्रकार बीज की यात्रा वृक्ष तक है। नदी की यात्रा सागर तक है और मनुष्य की यात्रा परमात्मा तक।
न कर्तृत्त्वं, न कर्माणि, लोकस्य सृजति प्रभु।
न कर्मफल संयोगो, स्वभावस्तु प्रवर्तते ॥
जगत चलता है, वह स्वभाव से ही चलता है और उसे चलाती है - ‘व्यवस्थित’ नाम की शक्ति।
बरगद का बीज राई के दाने से भी छोटा होता है, फिर भी उसमें पूरे बरगद की शक्ति समायी हुई है, शक्ति के रूप में पूरा बरगद उसमें समाया है। ‘व्यवस्थित’ सारे संयोग इकट्ठे कर देती है, और बरगद स्वाभाविक रूप से परिणामित हो जाता है।
द्यावापृथिवोरिदमन्तरं हि
व्याप्तं त्वयैकेन दिशाश्च सर्वा:।
दृष्ट्वाद्भुतं रूपमुग्रं तवेदं
लोकत्रयं प्रव्यस्थं महात्मन् ॥
संसार में जो कुछ भी हो रहा है वह सब ईश्वरीय विधान है। हम और आप तो केवल निमित्त मात्र हैं।
युक्त: कर्मफलं त्यक्त्वा शान्तिमाप्नोति नैष्ठिकीम्।
अयुक्त: कामकारेण फले सक्तो निबध्यते॥
भगवान को सभी गतिविधियों के परिणामों की पेशकश करते हुए, कर्म योगी चिरस्थायी शांति प्राप्त करते हैं। जबकि जो लोग अपनी इच्छाओं से प्रेरित होकर स्वार्थ के लिए काम करते हैं, वे अपने कर्मों के फल में आसक्त होने के कारण फंस जाते हैं। युक्त शब्द का अर्थ है - चेतना में ईश्वर से जुड़ा हुआ। इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि हृदय की शुद्धि के अलावा किसी प्रतिफल की इच्छा न रखना।
युक्त व्यक्ति अपने कर्मों के फल की इच्छा का त्याग कर आत्मशुद्धि के लिए कर्मों में लग जाते हैं। इसलिए, वे जल्द ही दिव्य चेतना और शाश्वत आनंद प्राप्त करते हैं।
इसलिये कभी भी ये भ्रम न पालें कि मैं न होता तो क्या होता। बहुधा हमें ऐसा ही भ्रम हो जाता है कि मैं ना होता तो क्या होता ?
अशोक वाटिका में जिस समय क्रोध से भरा रावण तलवार लेकर सीता मां को मारने के लिए दौड़ा तब हनुमान जी को लगा कि इसकी तलवार छीन कर इसका सर काट लेना चाहिए। लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने देखा मंदोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया। यह देखकर वह गदगद हो गए। वह सोचने लगे, यदि मैं आगे बढ़ता तो मुझे भ्रम हो जाता कि मैं न होता तो सीता माता को बचाने वाला कोई नहीं था।
मन का दूसरा आयाम अहंकार है। यह हमारी वह पहचान है जिसकी हमने धारण कर रखी है। जुगनू सोचते हैं कि हम ही इस संसार को प्रकाश दे रहे हैं। लेकिन नक्षत्रों का उदय होते ही जुगनुओं का घमंड शांत हो जाता है। तब नक्षत्रों को भ्रम होता है कि वे ही जगत को प्रकाशित कर रहे हैं, चंद्रमा के निकलते ही नक्षत्र भी मलिन हो जाते हैं। सूर्योदय, चंद्रमा को प्रकाशहीन कर देता है।
कर्म करे किस्मत बने जीवन का ये मर्म।
प्राणी तेरे भाग्य में तेरा अपना कर्म॥
अहंकारपूर्ण जीवन को छोड़ देना ही संपूर्ण धर्म है, त्याग है और वही सौंदर्य है। यह समझ में आते ही कि मैं एक झूठी इकाई है, तत्क्षण जीवन अनंत की ओर उन्मुख हो जाएगा, हमारी सोच का दायरा विस्तृत हो जाएगा।
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