साधना की चरम उपलब्धि आनन्द

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात ।

एक दिना छिप जाएगा, ज्यों तारा परभात ॥

  लोगों को नेकी करने की सलाह देते हुए इस क्षणभंगुर मानव शरीर की सच्चाई लोगों को बता रहे हैं कि पानी के बुलबुले की तरह मनुष्य का शरीर क्षणभंगुर है। जैसे प्रभात होते ही तारे छिप जाते हैं, वैसे ही ये देह भी एक दिन नष्ट हो जाएगी।

न पृथ्वी न जलं नाग्निर्न वायुर्द्यौर्न वा भवान्।

एषां साक्षिणमात्मानं चिद्रूपं विद्धि मुक्तये॥

क्योंकि आप न पृथ्वी हैं, न जल, न अग्नि, न वायु अथवा आकाश ही हैं। मुक्ति के लिए इन तत्त्वों के साक्षी, चैतन्यरूप आत्मा को जानिए॥

यदि देहं पृथक् कृत्य चिति विश्राम्य तिष्ठसि।

अधुनैव सुखी शान्तो बन्धमुक्तो भविष्यसि॥

यदि आप स्वयं को इस शरीर से अलग करके, चेतना में विश्राम करें तो तत्काल ही सुख, शांति और बंधन मुक्त अवस्था को प्राप्त होंगे॥

   कबीरदासजी के अनुसार मनुष्य की श्रेष्ठता उसके ऊँचे कर्मों के कारण होती है कर्म से ही मनुषय जाना जाता है। वस्तुतः कबीर की सामाजिक चिन्ता उस सच्चे आध्यात्मिक व्यक्तित्व की चिता थी जो मानवतावाद, सर्वात्मवाद अद्वैतवाद की दृष्टि से समाज को जानता- पहचानता है । यह सुस्पष्ट तथ्य है कि कबीर की मूल चिन्ता आध्यात्मिक है, लेकिन अध्यात्म के क्षेत्र में उनका सजग व सचेत व्यक्तित्व प्रकाश में आता है ।

मांस गया पिंजर रहा, ताकन लागे काग।

साहिब अजहुं न आइया,मंद हमारे भाग ॥

  कबीरदास कहते है कि शरीर से मांस सूख गया, सिर्फ अस्थि पिंजर रह है जिसे कौए ताकने लगे हैं। फिर भी हमारा प्रिय परमात्मा अब तक नहीं आया है, यह हमारा दुर्भाग्य ही तो है। 

चिंता ऐसी डाकिनी, काट कलेजा खाए ।

वैद बेचारा क्या करे, कितना मरहम लगाए ॥

 कबीर जी कहते हैं कि चिंता वो अदृश्य डाकिनी है जो मनुष्य के हृदय को आघात पहुँचाती है, वह घाव किसी को नहीं दिखाई देता है। यहां तक की विश्व को कोई भी वैद्य जितना चाहे उतना मरहम लगा कर भी इसका इलाज नहीं कर सकता है।

अपना तो कोई नहीं, देखी ठोकी बजाय ।

अपना अपना क्या करि मोह भरम लपटायी ॥

 कि बहुत कोशिश करने पर बहुत ठोक बजाकर देखने पर भी संसार में अपना कोई नहीं मिला। इस संसार के लोग माया मोह में पढ़कर संबंधो को अपना पराया बोलते हैं। परन्तु यह सभी सम्बन्ध क्षणिक और भ्रम मात्र है। 

जहां काम तहां नाम नहि, जहां नाम नहि काम ।

दोनो कबहू ना मिले, रवि रजनी एक ठाम ॥

  कबीरदास कहते है कि जहाँ काम वासना होती है वहाँ प्रभु नहीं रहते हैं, और जहाँ प्रभु रहते हैं वहां काम वासना नहीं रह सकते हैं। इन दोनों का मिलन उसी प्रकार संभव नहीं है जिस प्रकार सूर्य और रात्रि का मिलन संभव नहीं है। इसके लिए भगवान श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि -

देवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते॥

 क्योंकि मेरी यह गुणमयी दैवी माया बड़ी दुरत्यय है अर्थात् इससे पार पाना बड़ा कठिन है। जो केवल मेरे ही शरण होते हैं, वे इस मायाको तर जाते हैं।

  तो फिर इस देव सम्बन्धिनी त्रिगुणात्मि का वैष्णवी माया को मनुष्य कैसे तरते हैं इस पर कहते हैं क्योंकि यह उपर्युक्त दैवी माया अर्थात् मुझ व्यापक ईश्वर की निज शक्ति मेरी त्रिगुणमयी माया दुस्तर है अर्थात् जिससे पार होना बड़ा कठिन है ऐसी है। इसलिये जो सब धर्मों को छोड़कर अपने ही आत्मा मुझ मायापति परमेश्वर की ही सर्वात्मभाव से शरण ग्रहण कर लेते हैं वे सब भूतों को मोहित करने वाली इस माया से तर जाते हैं वे इसके पार हो जाते हैं अर्थात् संसारबन्धन से मुक्त हो जाते हैं।

तद्विज्ञाने न परिपश्यन्ति धीरा 

आनन्द रूपमभृतं यद्विभाति।

अर्थात् ज्ञानी लोग विज्ञान से अपने अन्तर में स्थित उस आनन्द रूपी ब्रह्म का दर्शन कर लेते हैं एवं ज्ञानियों में भी परम ज्ञानी हो जाते हैं।" आनन्द हर साधक की साधना की चरम उपलब्धि है, चाहे उसकी अनुभूति के रूप भिन्न-भिन्न हो।

मय्येव मन आधत्स्व मयि बुद्धिं निवेशय।

निवसिष्यसि मय्येव अत ऊर्ध्वं न संशयः ॥

  तू मेरे में मन को लगा और मेरे में ही बुद्धि को लगा; इसके बाद तू मेरे में ही निवास करेगा -- इसमें संशय नहीं है।यहाँ 'अत ऊर्ध्वम्' -- पदों का भाव यह है कि जिस क्षण मन-बुद्धि भगवान् में पूरी तरह लग जायँगे अर्थात् मन-बुद्धि में किञ्चिन्मात्र भी अपनापन नहीं रहेगा, उसी क्षण भगवत्प्राप्ति हो जायगी। ऐसा नहीं है कि मन-बुद्धि पूर्णतया लगने के बाद भगवत्प्राप्तिमें काल का कोई व्यवधान रह जाय। 

   आनन्द की प्राप्ति आदिकाल से मानव का लक्ष्य रहा है। परमेश्वर की अन्तःकरण में अनुभूति जिन अनेकानेक रूपों में हो सकती है आनन्द उनमें सर्वोपरि है। सुख भौतिक है तो आनन्द आध्यात्मिक भौतिक उपादानों का ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से अनुभव प्रायः सभी को एक-सा ही होता हैं। फूल की गन्ध, वस्तुओं का सौंदर्य, फलों के स्वाद से जो अनुभूति हमें होती है, लगभग स्वस्थ इन्द्रियों वाले सभी व्यक्तियों को एक समान ही होती है। लेकिन आनन्द इससे नितान्त भिन्न है। इसका रसास्वादन हर व्यक्ति को अलग-अलग रूपों में होता है। मीरा ने जिस आनन्द रस का पान किया, जिसके लिए सामाजिक मर्यादाएं तोड़ी एवं विष का प्याला पिया उसे कौन अपने अन्त में उसी प्रकार अनुभव कर सकता है। मीरा की तरह प्रेम बेलि बोना और आनन्द फल पाना सबके लिए सहज नहीं। किसी के लिए मिलन में आनन्द है तो किसी के लिए विरह में। कबीर इसी विरह सुख की अभिव्यक्ति करते हुए कहते हैं।

विरह कमण्डल कर लिए बैरागी दो नैन।

माँगे दरस मधूकरी छके रहें दिन रैन ॥

  वस्तुतः यह आनन्द अध्यात्म वेत्ताओं की दृष्टि में उस पूर्णता का पर्याय है। जिसकी प्राप्ति की पुरुषार्थ साधना हेतु ऋषि मनीषियों ने गहन मन्थन किया है एवं उसे योग की चरम उपलब्धि घोषित किया है।

 उपनिषद्द्वारों के अनुसार ज्ञान, भक्ति एवं कर्मयोग की सभी धाराएँ अन्ततः इसी आनन्द रूपी अमृत समुद्र में समा जाता है। हमारे अध्यात्म दर्शन की सभी धाराएं चाहे वे किसी वाद का समर्थन करती हों, हैं अन्ततः आनन्दवाद ही।

तद्विज्ञाने न परिपश्यन्ति धीरा 

आनन्द रूपमभृतम् यद्विभाति।

अर्थात् ज्ञानी लोग विज्ञान से अपने अन्तर में स्थित उस आनन्द रूपी ब्रह्म का दर्शन कर लेते हैं एवं ज्ञानियों में भी परम ज्ञानी हो जाते हैं। आनन्द हर साधक की साधना की चरम उपलब्धि है, चाहे उसकी अनुभूति के रूप भिन्न-भिन्न हो।

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