Secure Page

Welcome to My Secure Website

This is a demo text that cannot be copied.

No Screenshot

Secure Content

This content is protected from screenshots.

getWindow().setFlags(WindowManager.LayoutParams.FLAG_SECURE, WindowManager.LayoutParams.FLAG_SECURE); Secure Page

Secure Content

This content cannot be copied or captured via screenshots.

Secure Page

Secure Page

Multi-finger gestures and screenshots are disabled on this page.

getWindow().setFlags(WindowManager.LayoutParams.FLAG_SECURE, WindowManager.LayoutParams.FLAG_SECURE); Secure Page

Secure Content

This is the protected content that cannot be captured.

Screenshot Detected! Content is Blocked

MOST RESENT$type=carousel

Popular Posts

कठोपनिषद प्रथम अध्याय , प्रथम वल्ली

SHARE:

Kath upnishad, Kath upnishad pratham adhyaya, Kath upnishad pratham adhyaya pratham valli, Kath upnishad Sanskrit hindi, Kath upnishad hindi translati

कठोपनिषद प्रथम अध्याय , प्रथम वल्ली
कठोपनिषद प्रथम अध्याय , प्रथम वल्ली


 ॐ सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै। तेजस्विनावधी तमस्तु। माविद्विषावहै। ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।
 
शब्दार्थः- 
ॐ = परमात्मा का प्रतीकात्मक नाम। 
नौ = हम दोनों (गुरु और शिष्य) को। 
सह = साथ-साथ ।
भुनक्तु= पालें, पोषित करें।
सह= साथ-साथ।
वीर्यं = शक्ति को ।
करवावहै = प्राप्त करें ।
नौ = हम दोनों को ।
अवधीतम् = पढी हुई विद्या ।
तेजस्वि = तेजोमयी ।
अस्तु = हो ।
माविद्विषावहै = हम दोनों  परस्पर द्वेष न करें। 

व्याख्या - हे परमात्मन् ! आप हम दोनों गुरु और शिष्य की साथ- साथ रक्षा करें, हम दोनों का पालन-पोषण करें, हम दोनों साथ-साथ शक्ति प्राप्त करें, हमारी प्राप्त की हुई विद्या तेजप्रद हो , हम परस्पर द्वेष न करें, परस्पर स्नेह करें। हे परमात्मन् त्रिविध ताप की शान्ति हो । आध्यात्मिक ताप (मन के दु:ख) की , आधिभौतिक ताप (दुष्टजन और हिंसक प्राणियों से तथा दुर्घटना आदि से प्राप्त दु:ख) की शान्ति हो । ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्तमेति (श्वेत उप० ४.१४)। शान्ति मन्त्र- ॐ शरणं त्रिविधतापहरणं ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः।  
  कठोपनिषद् (अथवा कठोपनिषद )उपनिषद्-प्रेमियों का कण्ठहार है। यह कृष्णयजुर्वेद की कठ शाखा के अर्न्तगत है। इसमें दो अध्याय हैं तथा प्रत्येक अध्याय में तीन वल्ली हैं। इस उपनिषद में नचिकेता और यम का संवाद हैं, जिसमें यम ने परमात्म-तत्त्व का रोचक एवं विशद वर्णन किया है। यह उपनिषद् कठ ऋषि के नाम से जुड़ा हुआ है। क= ब्रह्म; ठ= निष्ठा ; कठ = ब्रह्म में निष्ठा उत्पन्न करने वाला उपनिषद्। प्रथम अध्याय प्रथम वल्ली कठोपनिषद् (काठकोपनिषद्) के प्रथम अध्याय की प्रथम वल्ली उपाख्यान के रुप में यम-नचिकेता के गूढ आत्मज्ञान-संवाद की मात्र भूमिका है। महर्षि अरुण (अथवा वाजश्रवा ) के पुत्र आरुणि (अथवा वाजश्रवस्) ही गौतमवंशीय उद्दालक थे। आरुणि उद्दालक ने विश्वजित यज्ञ किया । उद्दालक का पुत्र (वाजश्रवा का पौत्र) नचिकेता अत्यन्त बुद्धिमान एवं सात्त्विक था । 

ॐ अशन् ह वै वाजश्रवस: सर्ववेदसं ददौ। 
तस्य   ह   नचिकेता    नाम    पुत्र   आस  ॥१॥

शब्दार्थः- 
ॐ = सच्चिदानन्द परमात्मा का नाम है, जो मंगलकारक एवं अनिष्टनिवारक है।
ह वै = प्रसिद्ध है कि।
उशन् = यज्ञ के फल की इच्छावाले।
वाजश्रवस: = वाजश्रवा के पुत्र वाजश्रवस् उद्दालक ने।
सर्ववेदसं = (विश्वजित् यज्ञ में) सारा धन। 
ददौ = दे दिया। 
तस्य नचिकेता नाम ह पुत्र: आस = उसका नचिकेता नाम से प्रसिद्ध पुत्र था। 

वचनामृत:- वाजश्रवस्(उद्दालक) ने यज्ञ के फल की का मना रकते हुए (विश्वजित यज्ञ में) अपना सब धन दान दे दिया । उद्दालक का नचिकेता नाम से ख्यात एक पुत्र था।

व्याख्या:- प्राचीनकाल में यज्ञ करना और दक्षिणा आदि में दान देना एक पुण्यकृत्य माना जाता था । विश्वजित् एक महान यज्ञ था जिसमें सारा धन दान देकर रिक्त हो जाना गौरवमय माना जाता था । महर्षि उद्दालक ने विश्वजित यज्ञ किया और सर्वस्व दान करके रिक्त हो गये। उनका एक पुत्र नचिकेता सब कुछ देख रहा था । अधिकांश ऋषिगण गृहस्थ होते थे तथा वनों में रहते थे। प्राय: गौएं ही उनकी धन-सम्पति होती थी ।
 
तं ह कुमारं सन्तं दक्षिणासु नीयमानासु 
श्रद्धा आविवेश सोऽमन्यत  ॥२॥ 

शब्दार्थ-  
दक्षिणासु नीयमानासु = दक्षिणा के रुप में देने के लिए गौओं को ले जाते समय में। 
कुमारम् सन्तम् = छोटा बालक होते हुए भी।  
तम् ह श्रद्धा आविवेश = उस (नचिकेता ) पर श्रद्धा भाव (पवित्रभाव, ज्ञान-चेतना ) का आवेश हो गया । 
स: अमन्यत = उसने विचार किया । 

वचनामृत: - जिस समय दक्षिणा के लिए गौओं को ले जाया जा रहा था , तब छोटा बालक हो ते हुए भी उस नचिकेता में श्रद्धा भाव (ज्ञान-चेतना , सात्त्विक-भाव) उत्पन्न हो गया तथा उसने चिन्तन-मनन प्रारंभ कर दिया । नचिकेता में श्रेष्ठज्ञान प्राप्त करने की पात्रता थी । 

व्याख्या - प्रकृति ने मनुष्य को चिन्तन मनन की शक्ति दी है, पशु को नहीं ।ही मनन करने से ही वह मनुष्य होता है, अन्यथा मानव की आकृति में वह पशु ही होता है। चिन्तन के द्वारा ही मनुष्य ने ज्ञान-विज्ञान में प्रगति की है तथा चिन्तन के द्वारा ही मनुष्य उचित-अनुचित धर्म-अधर्म, पुण्य-पाप आदि का निर्णय करता है। चिन्तन के द्वारा ही विवेक उत्पन्न होता है तथा वह स्मृति कल्पना आदि का सदुपयोग कर सकता है। चिन्तन को स्वस्थ दिशा देना श्रेष्ठ पुरुष का लक्षण होता है।
 
पीतोदका जग्धतृणा दुग्धदोहा निरिन्द्रियाः। 
अनन्दा नाम ते लोकास्तान् स गच्छति ता ददत् ॥३॥

शब्दार्थ -
पीतोदकाः = जो (अन्तिम बार) जल पी चुकी हैं। 
जग्धतृणाः = जो तिनके (घास )खा चुकी हैं।
दुग्धदोहा : = जिनका दूध (अन्तिम बार )दुहा जा चुका है। 
निरिन्द्रियाः = जिनकी इन्द्रियां सशक्त नहीं रही हैं, शिथिल हो चुकी हैं। 
ताः ददत् = उन्हें देनेवाला। 
अनन्दा नाम ते लोकाः = आनन्द-रहित जो वे लोक हैं। 
स तान् गच्छति = वह उन लोकों को जाता है। 

वचनामृत - (ऐसी गौएं) जो (अन्तिम बार)जल पी चुकी हैं, जो घास खा चुकी हैं, जिनका दूध दुहा जा चुका है, जो मानो इन्द्रियरहित हो गयी है, उनको देन वाला उन लोकों को प्राप्त होता है, जो आनन्दशून्य हैं। 

व्याख्या - नचिकेता ने सोचा कि दान में दी जाने वाली अधिकांश गौएँ  मरणासन्न हैं, वे पानी पीने में तथा घास खाने में भी असमर्थ हैं, और वे अब दूध देने अथवा कुछ लाभ देने में भी असमर्थ हैं, उनका दूध दुहा जा चुका है और वे अब दूध देने के योग्य नहीं रहीं । जिन गौओं की इन्द्रियां शिथिल हो चुकी हैं, उनको दान में देन वाला मनुष्य पाप का भागी होता है तथा उन लोकों को प्राप्त होता है, जो सब प्रकार से सुखों से शून्य हैं। कुमार नचिकेता में उत्तम उत्कृष्ट और निकृष्ट तथा सत्य और असत्य का विवेक था , जो आध्यात्मिक साधना के लिए महत्तवपूर्ण होता है। 

स होवाच पितरं तत कस्मै मां दास्यतीति । 
द्वितीयं तृतीयं तं होवाच मृत्यवे त्वा ददामीति ॥४॥ 

शब्दार्थ- 
स ह पितरं उवाच = वह (यह सोचकर)पिता से बोला।
तत (तात)= हे प्रिय पिता। 
मां कस्मै दास्यति इति = मुझे कि सको देंगे? 
द्वितीयं तृतीयं तं ह उवाच = दूसरी , तीसरी बार (कहने पर) उससे (पिता ने) कहा। 
त्वा मृत्यवे ददामि इति = तुझे मैं मृत्यु को देता हूं। 

वचनामृत - वह ( नचिकेता ) ऐसा विचार कर पिता से बोला - हे तात, आप मुझे किसको देंगे ? दूसरी , तीसरी बार (यों कहने पर )उससे पिता ने कहा - तुझे मैं मृत्यु को देता हूँ। 

व्याख्या - कुमार नचिकेता में एक उदात्त सात्त्विक का उदय हो गया था । उसने विचार किया कि उपयोगी वस्तु का दान न केवल निरर्थक है, बल्कि कष्टप्रद लोक को प्राप्त भी करा देता है। सर्वस्व दान के अन्तर्गत तो पुत्र का दान भी होना चाहिए। श्रद्धा भाव से प्रेरित हो कर नचिकेता ने पिता से कहा –हे पिता जी , मैं भी तो आपका धन हूं। आप मुझे किसको देंगे? उसके दो तीन बार पिता से ऐसा कहने पर, आवेश में आकर पिता ने कहा - मैं तुझे मृत्यु को देता हूँ। 

बहूनामेमि प्रथमो बहूनामेमि मध्यम:। 
किंस्विद्यमस्य कर्तव्यं यन्मयाद्य करिष्यति ॥५॥
 
शब्दार्थ- 
बहूनां प्रथमो एमि = बहुत से (शिष्यों )में तो प्रथम चलता आ रहा हूं।
बहूनां मध्यम: एमि = बहुत से (शिष्यों मे) मध्यम श्रेणी के अन्तर्गत चलता आ रहा हूँ।
यमस्य = यम का । 
किम् स्वित् कर्तव्य् = (यम का ) कौन-सा कार्य हो सकता है। 
यत् अद्य = जिसे आज।
मया करिष्यति = (पिताजी ) मेरे द्वारा (मुझे देकर) करेंगे। 

वचनामृत- (व्यक्तियों की तीन श्रेणियाँ होती हैं - उत्तम, मध्यम और अधम अथवा प्रथम, द्वितीय, और तृतीय) मैं बहुत से (शिष्यों एवं पुत्रों में) प्रथम श्रेणी में आ रहा हूँ, बहुत  से में द्वितीय श्रेणी में रहा हूँ। यम का कौन सा ऐसा कार्य है, जिसे पिता जी मेरे द्वारा (मुझे देकर)करेंगे ? 

व्याख्या - नचिकेता महर्षि उद्दालक का पुत्र एवं शिष्य था । उसने सोचा - मैं बहुत की अपेक्षा प्रथम श्रेणी में तथा बहुत की अपेक्षा द्वितीय श्रेणी मे रहा हूँ तथा कभी तृतीय श्रेणी में नहीं रहा । यदि मैं उत्तम और मध्यम कोटि में नहीं रहा तो अधम भी नहीं रहा । पिता जी मुझे यमराज को देकर कौन सा कार्य पूरा करेंगे, यमराज के कौन से प्रयोजन को पूरा करेंगे ? नचिकेता ने यह भी सोचा - कदाचित् पिता ने क्रोधावेश में आकर मुझे यमराज को सौंपने की बात कह दी है और वे अब दु:खी होकर पश्चाताप कर रहे हैं अतएव मैं उन्हें नम्रता पूर्वक सान्त्वना दूँगा । यह विचार नचिकेता की श्रेष्ठता को प्रमाणित करता है तथा इंगित करता है कि नचिकेता ब्रह्मज्ञान को प्राप्त करने का उत्तम अधिकारी है, श्रद्धामय होने के कारण सत्पात्र है। 

अनुपश्य यथा पूर्वे प्रतिपश्य तथा परे। 
सस्यमिव मर्त्य: पच्यते सस्यमिवा जायते पुन: ॥६॥ 

शब्दार्थ - 
पूर्वे यथा = पूर्वज जैसे (थे) ।
अनुपश्य = उस पर विचार कीजिये। 
अपरे (यथा ) तथा प्रतिपश्य = (वर्तमान काल में)दूसरे(श्रेष्ठजन) जैसे (हैं )उस पर भली प्रकार दृष्टि डालें। 
मर्त्य:=मरणधर्मा मनुष्य।
सस्यम् इव =अनाज की भाँति। 
पच्यते=पकता है।
सस्यम् इव पुन: अजायते = अनाज की भांति ही पुन: उत्पन्न हो जाता है।

वचनामृत - (आपके) पूर्वजों ने जिस प्रकार का आचरण किया है, उस पर चिन्तन कीजिये, उपर अर्थात् वर्तमान में भी (श्रेष्ठ पुरुष कैसा आचरण करते हैं) उसको भी भंली भाँति देखिए। मरणधर्मा मनुष्य अनाज की भाँति पकता है (वृद्ध होता और मृत्यु को प्राप्त होता है ), अनाज की भांति फिर उत्पन्न हो जाता है।
व्याख्या - नचिकेता ने अपने पिता एवं गुरु उद्दालक को पूर्वजों से चली आती हुई श्रेष्ठ आचरण की परम्परा पर दृष्टिपात करने का निवेदन किया। श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण में पहले भी सत्य का आग्रह था तथा वह अब भी ऐसा ही है। मनुष्य तो अनाज की भाँति जन्म लेता है, जीर्ण-शीर्ण हो कर मृत्यु को प्राप्त हो जाता है अनाज की भाँति पुनः जन्म ले लेता है। जीवन अनित्य होता है, मनुष्य के सुख भी अनित्य हो ते हैं, अत: क्षणभंगुर सुखों के लिए सत्य के आचरण का परित्याग करना विवेकपूर्ण नहीं होता । नचिकेता ने अपने पिता एवं गुरु से अनुरोधपूवर्क् कहा कि वह संशय छोड़कर सत्याचरण पर दृढ रहें तथा सत्य की रक्षा के लिए उसे अपने वचनानुसार मृत्यु (यमराज)के पास जाने की अनुमति दे दें। महर्षि उद्दालक ने उसकी सत्यनिष्ठा से प्रभावित होकर उसे यमराज के पास जाने की अनुमति दे दी। यमराज के भवन में जाकर नचिकेता को ज्ञात हुआ कि वे कहीं बाहर गये हैं। नचिकेता ने बिना अन्न-जल ही तीन दिन तक उनकी प्रतीक्षा की । यमराज के लौटने पर उनकी पत्नी ने उन्हें नचिकेता के अन्न-जल बिना ही उनकी प्रतीक्षा करने का समाचार दिया तथा उसका सम्मान करने का परामर्श दिया । 

वैश्वानर: प्रविशत्यतिथिर्ब्राह्मणो गृहान्। 
तस्यैतां शान्ति कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम् ॥७॥ 

शब्दार्थ - 
वैवस्वत = हे सूर्यपुत्र यमराज। 
वैश्वानर: ब्राह्मण: अतिथि : गृहान् प्रविशति = वैवानर (अग्निदेव) ब्राह्मण अतिथि के रुप में (गृहस्थ के) घरों में प्रवेश करते हैं (अथवा ब्राह्मण अतिथि अग्नि की भाँति घर में प्रवेश करते हैं )। 
तस्य = उसकी। 
एताम् = ऐसी (पादप्रक्षालन इत्यादि के द्वारा )। 
शान्ति कुर्वन्ति = शान्ति करते हैं।
उदकं हर = जल ले जाइये। 

वचनामृत - हे यमराज, (साक्षात्) अग्निदेव ही (तेजस्वी ) ब्राह्मण-अतिथि के रुप में (गृहस्थ) के घरों में प्रवेश करते हैं (अथवा ब्राह्मण–अतिथि घर में अग्नि की भांति प्रवेश करते हैं)। (उत्तम पुरुष) उसकी ऐसी शान्ति करते हैं, आप जल ले जाइये। 

व्याख्या - यमराज की पत्नी नचिकेता की तेजस्विता को देखकर यमराज से कहा - स्वयं अग्निदेव ही तेजस्वी ब्राह्मण अतिथि के रुप में गृहस्थ जन के घरों में जाते हैं (अथवा तेजस्वी ब्राह्मण अग्नि की भाँति घर में प्रवेश करते हैं )। उत्तम पुरुष स्वागत करके उनको आदर-सम्मान देते हैं तथा उन्हें शान्त करते हैं। अतएव आप पाद-प्रक्षालन के लिए जल ले जाइये। आपके द्वारा सम्मान एवं सेवा से ही वे प्रसन्न होंगे। नचिकेता दिव्य आभा से देदीप्यमान था। 

आशा प्रतीक्षे संगतं सूनृतां च 
इष्टा पूर्ते पुत्रपशूंश्च सर्वान्। 
एतद्वृड्क्ते पुरुषस्याल्पमेधसो 
यस्यानश्नन् वसति ब्राह्मणो गृहे ॥८॥ 

शब्दार्थ - 
यस्य गृहे ब्राह्मण: अनश्नन् वसति = जिसके घर में ब्राह्मण बिना भोजन कि ये रहता है 
अल्पमेधस: पुरुषस्य = (उस)मन्दबुद्धि पुरुष की। 
आशा प्रतीक्षे = आशा और प्रतीक्षा (कल्पित एवं इच्छित सुखद फल )।
संगतम् = उनकी पूर्ति से होने वाले सुख (अथवा सत्संग लाभ)। 
इष्टा पूर्ते च = और इष्ट एवं आपूर्त शुभ कर्मो के फल।
सर्वान् पुत्रपशून् = सब पुत्र और पशु। 
एतद् वृड्न्क्ते = इनको नष्ट कर देता है (अथवा यह सब नष्ट हो जा ता है )। 

वचनामृत - जिसके घर में ब्राह्मण-अतिथि बिना भोजन किये हुए रहता है, (उस) मन्दबुद्धि मनुष्य की नाना प्रकार की आशा (संभावित एवं निश्चित की आशा ) और प्रतीक्षा (असंभावित एवं अनिश्चित की प्रतीक्षा ), उनकी पूर्ति से प्राप्त होने वाले सुख(अथवा सत्संग-लाभ) और सुन्दर वाणी के फल (अथवा धर्म-संवाद-श्रवण) तथा यज्ञ दान तथा कूप निर्माण आदि शुभ कर्मो एवं सब पुत्रों और पशुओं को ब्राह्मण का असत्कार नष्ट कर देता है। 

व्याख्या -  
  यमराज की पत्नी ने यमराज से कहा कि तेजस्वी ब्राह्मण अतिथि को अपने घर पर कष्ट होने से गृहस्थ पुरुष के पुण्य क्षीण हो जाते हैं। ऐसे मन्दबुद्धि गृहस्थ पुरुष को अनेक सुखों (अथवा सत्संग-लाभ) की प्राप्ति नहीं होती । उसकी वाणी में से सत्य, सौन्दर्य और माधुर्य (अथवा धर्मसंवाद श्रवण के लाभ) लुप्त हो जाते हैं तथा उसके यज्ञ दान आदि इष्ट कर्म और कूप धर्मशाला आदि के निर्माणरुप आपूर्त अर्थात् सब शुभ कर्म भी नष्ट हो जाते हैं। अपने घर पर धर्मात्मा तेजस्वी एवं पूज्य अतिथि का असत्कार पुत्रों एवं पशुओं को भी विनष्ट कर देता है।'अतिथि देवो भव'-अतिथि को देवतुल्य मानकर उसका सत्कार करने की प्राचीन परम्परा है। अपनी पत्नी के बचन सुनकर यमराज अविलम्ब नचिकेता के पास गये और उसकी समुचित अर्चना-पूजा की तथा इसके उपरान्त यमराज-नचिकेता का संवाद प्रारंभ हो गया । यम-नचिकेता उपाख्यान अध्येता के मन मे अनेक शंकाएँ उत्पन्न होती हैं। क्या नचिकेता यमलोक में सशरीर चला गया ? वह तीन दिन तक यम की अनुपस्थिति में यमसदन में कैसे रहा ? वास्तव में यह एक उपाख्यान है, जिसके उपदेश एवं प्रतिपाद्य विषय-वस्तु का ग्रहण करना अभीष्ट है। हम इसके आलंकारिक रुप को ज्यों का त्यों अथवा यथार्थमय मानकर कथ्य को ग्रहण नहीं कर सकते। इसके वाचिक अर्थ न लेकर लाक्षणिक अर्थ लेना विवेकसम्मत है। आख्यायिका-शैली का प्रयोजन उसके तत्त्वार्थ को है समझाना है। 
  बृहदारण्यक उपनिषद् (अध्याय १, ब्राह्मण २, मंत्र १) में कहा है कि सृष्टि से पूर्व सब कुछ मृत्यु से ही आवृत था (मृत्युनैवेदमावृतमासीत्)। यहाँ मृत्यु का अर्थ ब्रह्म, प्रलय है। पुन: (मंत्र १, २, ७) में कहा है ईश्वर के संकल्प को जानने वाला उपासक मृत्यु को जीत लेता है तथा मृत्यु उसे पकड़ नहीं सकती (पुनर्मृत्युं जयति नैनं मृत्युराप्नोति )। आगे (मंत्र १, ३, २८) कहा है-असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमय अर्थात् हे प्रभो , मुझे असत् से सत् तम से ज्योति और मृत्यु से अमृत की ओर ले चलो , मुझे अमृतस्वरुप कर दो। यम-नचिकेता का उपाख्यान ऋग्वेद के दसवें मंडल में कुछ भिन्न प्रकार से वर्णित है। वहां नचिकेता पिता की इच्छा से यम के समीप जाता है। 
   तैत्तिरीय ब्राह्मण में यह उपाख्यान कुछ विकसित रुप में वर्णित अतिथि देवो भव (तै० उप० १.११.२) है, जहां नचिकेता को यमराज तीन वरदान देता है। कठोपनिषद् के उपाख्यान तथा तैत्तिरीय ब्राह्मण के उपाख्यान में पर्याप्त समानता है। तैत्तिरीय ब्राह्मण के उपाख्यान में यमराज मृत्यु पर विजय के लिए कुछ यज्ञादि का उपाय कहता है, किन्तु कठोपनिषद् कर्मकाण्ड से ऊपर उठकर ब्रह्मज्ञान की महत्ता को प्रतिष्ठित करता है। उपनिषदों में कर्मकाण्ड को ज्ञान की अपेक्षा अत्यन्त निकृष्ट कहा गया है। यद्यपि यम-नचिकेता संवाद ऋग्वेद तथा तै० ब्राह्मण में भी एक कल्पित उपाख्यान के रुप में ही है, कठोपनिषद् के ऋषि ने इसे एक आलंकारिक शैली में प्रस्तुत करके इस का व्याख्यात्मक सौंदसौं का रोचक पुट दे दिया है। कठोपनिषद् जैसे श्रेष्ठ ज्ञान-ग्रन्थ का समारंभ रोचक, हृदयग्राही एवं सुन्दर हो ना उसके अनुरुप ही है। मृत्यु के यथार्थ को समझाने के लिए साक्षात् मृत्यु के देवता यमराज को यमाचार्य के रुप में प्रस्तुत करना कठोपनिषद् के प्रणेता का अनुपम नाटकीय कौशल है। यह कल्पना शक्ति के प्रयोग का भव्य स्वरुप है। वैदक-साहित्य में आचार्य को 'मृत्यु' के महत्त्वपूर्ण पद से अलंकृत किया गया है। 'आचार्यो मृत्यु:।'आचार्य मानो माता की भाँति तीन दिन और तीन रात गर्भ में रखकर न जन्म देता है। 'नचिकेता ' का अर्थ 'न जानने वाला-जिज्ञासु' है तथा यमराज यमाचार्य है, मृत्यु के सदृश आंखे खोलने वाले गुरु। मृत्यु विवेकदायक गुरु है। जीवन के यथार्थ को जानने के लिए मृत्यु के रहस्य को समझना अत्यावश्यक है क्योंकि जीवन का स्वाभाविक अवसान मृत्यु के रुप में होता है। जीवन की पहेली का समाधान मृत्यु के रहस्य का उदघाटन करने मे सन्निहित है। जीवन मानों मृत्यु की धरोहर है तथा वह इसे चाहे जब विलुप्त कर सकती है। सारे संसार को अपने आतंक से प्रकम्पित कर देने वाले महापराक्रमी मनुष्य क्षणभर में सदा के लिए तिरोहित हो जाते हैं। जीवन और मृत्यु का रहस्य अनन्तकाल से जिज्ञासा का विषय बना हुआ है। धर्मग्रन्थों ने तथा मनीषीजन ने इसके अगणित समाधान प्रस्तुत किये हैं, तथापि रहस्य का उद्घाटन एक गंभीर समस्या बना हुआ है। जीवन का उद्गम कहां से होता है, जीवन क्या है और मृत्यु क्या है? जीवन और मृत्यु का यथार्थ जानने पर जीवन एक उल्लास तथा मृत्यु एक उत्सव हो जाते हैं। अज्ञान के कारण मृत्यु एक भयप्रद घटना तथा जीवन निरुद्देश्य भटकाव प्रतीत होते हैं। सा क्षात् मृत्यृदेव (यमराज) से ही जीवन और मृत्यु के रहस्य को जानने से बढकर अन्य क्या उपाय हो सकता है? जिज्ञासु नचिकेता यमराज का शरणागत, भयत्रस्त व्यक्ति नहीं है, बल्कि पूज्य् अतिथि है और सम्मानपूर्वक उपदेश ग्रहण करता है। यह ब्रह्मज्ञान की महिमा है, जो दाता और गृहीता दोनों को पवित्र कर देता है। कठोपनिषद् के ऋषि का कल्पना - कौशल तथा शिक्षण शैली दोनों अनुपम हैं। 

तिस्रो रात्रीर्यदवात्सीर्गृहे मे 
अनश्नन् ब्रह्मन्नतिथिर्नमस्य:। 
नमस्तेऽस्तु ब्रह्मन्स्वस्ति मेऽस्तु 
तस्मान्प्रति त्रीन्वरान् वृणीष्व॥९॥ 

शब्दार्थ - 
ब्रह्मन् = हे ब्राह्मण देवता।
नमस्यः अतिथिः = आप नमस्कार के योग्य अतिथि हैं। 
ते नम: अस्तु = आपको नमस्कार हो। 
ब्रह्मन् मे स्वस्ति अस्तु= हे ब्राह्मण देवता , मेरा शुभ हो। 
यम् तिस्त्र: रात्रीः मे गृहे अनश्नन् अवात्सी : = (आपने) जो तीन रात मेरे घर में बिना भोजन ही निवास किया। 
तस्मात् = अतएव। 
प्रति त्रीन् वरान् वृणीष्व = प्रत्येक के लिए आप (कुल) तीन वर माँग लें।

वचनामृत - यमराज ने कहा , हे ब्राह्मण देवता , आप वन्दनीय अतिथि हैं। आपको मेरा नमस्कार हो । हे ब्राह्मण देवता , मेरा शुभ हो । आपने जो तीन रात्रियाँ मेरे घर में बिना भोजन ही निवास किया , इसलिए आप मुझसे प्रत्येक के बदले एक अर्थात् तीन वर माँग लें। 

व्याख्या - ब्रह्मज्ञान का अधिकारी जिज्ञासु सम्मान के योग्य होता है। सम्मान पाकर ही वह निर्भीक भाव से संवाद कर सकता है। यमराज नचिकेता को नमस्कार करते हैं तथा उचित सम्मान देकर अपने कल्याण की कामना करते हैं। वे अपने घर में तीन रात बिना भोजन रहने के दोष का परिमार्जन करने के लिए नचिकेता से तीन वर मांगने का प्रस्ताव रखते हैं। 

शान्तसकल्प: सुमना यथास्या-
द्वीतमन्युर्गौतमो माभिमृत्यो । 
त्वत्प्रसृष्टं माभिवदेत्प्रतीत 
एतत्त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे ॥१०॥ 

शब्दार्थ - 
मृत्यो = हे मृत्युदेव। 
यथा गौतमः मा अभि = जिस प्रकार गौतम वंशीय उद्दालक मेरे प्रति। 
शान्तसंकल्प: सुमना : वीतमन्यु: स्यात् = शान्त संकल्प वाले प्रसन्नचित्त क्रोध रहित हो जायें। 
त्वत्प्रसृष्टं मा प्रतीत: अभिवदेत् = आपके द्वारा भेजा जाने पर वे मुझ पर विश्वास करते हुए मेरे साथ प्रेमपूर्वक बात करें। 
एतत् = यह ।
त्रयाणां प्रथमं वरं वृणे = तीन में प्रथम वर माँगता हूँ। 

वचनामृत - हे मृत्युदेव, जिस प्रकार भी गौतमवंशीय (मेरे पिता ) उद्दालक मेरे प्रति शान्त संकल्प वाले (चिन्तारहित), प्रसन्नचित्त और क्रोधरहित एवं खेदरहित हो जायें, आपके द्वारा वापस भेजे जाने पर वे मेरा विश्वास करके मेरे साथ प्रेमपूर्वक वार्तालाप कर लें, (मैं) यह तीन में से प्रथम वर माँगता हूँ। 

व्याख्या - नचिकेता पिता एवं गुरु को अपने आचरण से प्रसन्न करने को प्राथमिकता देता है। यह नचिकेता की श्रेष्ठता का लक्षण हैं। वह प्रथम वर में यही माँगता है कि वापस लौटने पर पिता चिन्ताशून्य, प्रसन्नचित्त क्रोधरहित होकर उससे पूर्ववत् स्नेह करें और संलाप करें। सुयोग्य पुत्र पिता के परितोष को महत्त्व देता है। 

यथा पुरस्ताद्भविता प्रतीत 
औद्दालकिरारुणिर्मत्प्रसृष्टः। 
सुखं रात्रीः शयिता वीतमन्यु-
स्त्वां ददृशिवान्मृत्युमुखात्प्रमुक्तम् ॥११॥ 

शब्दार्थ - 
त्वां मृत्युमुखात् प्रमुक्तम् ददृशिवान् = तुझे मृत्यु के मुख से प्रमुक्त हुआ देखने पर। 
मत्प्रसृष्टः आरुणिः औद्दालकिः = मेरे द्वारा प्रेरित, आरुणि उद्दालक (तुम्हारा पिता )। 
यथा पुरस्ताद् प्रतीत: = पहले की भाँति ही विश्वास करके। 
वीतमन्यु: भविता = क्रोधरहित एवं दु:खरहित हो जायेगा । 
रात्रीः सुखम् शयिता = रात्रियों में सुखपूर्वक सोयेगा । 

वचनामृत - यमराज ने नचिकेता से कहा - तुझे मृत्यु के मुख से प्रमुक्त देखने पर मेरे द्वारा प्रेरित उद्दालक (तुम्हारा पिता ) पूर्ववत विश्वास करके क्रोध एवं दु:ख से रहित हो (जीवन भर) रात्रियों में सुखपूर्वक् सोयेगा । 

व्याख्या - यमराज ने नचिकेता को उसकी इच्छानुसार वरदान दिया कि उसके पिता उद्दालक उसके मृत्यु के प्रमुक्त देखकर कर पूर्ववत विश्वास करेंगे तथा क्रोध एवं शोक से रहित होकर शेष जीवन में रात्रियों में निश्चिन्त होकर सोयेंगे, क्योंकि मैंने तुम्हें मुक्त कर दिया है। यमदेव की कृपा से नचिकेता मृत्यु द्वारा प्रमुक्त हुआ। वास्तव में वह यमराज के दैवी प्रसाद से मृत्युभय से विमुक्त हो गया । यह नचिकेता के ब्रह्मज्ञान द्वारा मृत्यु पर विजय की पूर्वसूचना भी है। 

स्वर्गे लोके न भयं किञ्चनास्ति 
न तत्र त्वं न जरया बिभेति । 
उभे तीर्त्वाशनाया पिपासे 
शेकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१२॥ 

शब्दार्थ  - 
स्वर्गे लोके किञ्चन भयम् न अस्ति = स्वर्गलो क में कि ञ्चि त् भय नहीं है। 
तत्र त्वं न = वहां आप(मृत्यु) भी नहीं हैं। 
जरया न बिभेति = कोई वृद्धावस्था से नहीं डरता। 
स्वर्गलोके = स्वर्ग लोक में (वहां के निवासी )। 
अशनाया पिपासे = भूख और प्यास। 
उभे तीर्त्वा = दोनों को पार करके।
शोकातिगः = शोक (दु:ख) से दूर रहकर। 
मोदते = सुख भोगते हैं। 

वचनामृत - नचिकेता ने कहा -स्वर्गलोक में किञ्चिन्मात्र भी भय नहीं है। वहां आप (मृत्युस्वरुप) भी नहीं हैं। वहां कोई जरा (वृद्धावस्था ) से नहीं डरता । स्वर्गलोक के निवासी भूख-प्यास दोनों को पार करके शोक (दु:ख) से दूर रहकर सुख भोगते हैं। 

व्याख्या - नचिकेता ने स्वर्ग का वर्णन करते हुए कहा - स्वर्गलोक में भय नहीं होता । वहां मृत्यु भी नहीं होती । वहां वृद्धावस्था भी नहीं होती वहां भूख-प्यास भी नहीं होते। वहां के निवासी दु:ख नहीं भोगते तथा सुखपूर्वक रहते हैं। वास्तव में स्वर्ग चेतना की एक उच्चावस्था है, जब मनुष्य भय और चिन्ता से मुक्त रहता है तथा वृद्धावस्था और मृत्यु से पार चला जाता है और भूख-प्यास भी नहीं सताते। यह मानवीय चेतना के उच्च स्तर पर आनन्दभाव की एक अवस्था है। श्वेताश्वतर उपनिषद् (२.१२) में कहा गया है- अभ्यास करते हुए जब योगी का पांचों महाभूतों (मिट्टी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) पर अधिकार हो जाता है, तब शरीर योगाग्निमय हो जाता है और योगी रोग, वृद्धावस्था और मृत्यु का अतिक्रमण कर लेता है। वह इच्छानुसार प्राणत्याग करता है। ऐसा ही योगदर्शन (३.४.४४, ४५, ४६) में भी कहा गया है  - न तस्य रोगो न जरा न मृत्यु: प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् (श्वेत० उप० २.१२) आध्यात्मिक साधक देहाध्यास (मैं देह हूं यह भाव) से मुक्त हो कर ही 'अहं ब्रह्मास्मि ' की अनुभूति कर सकता है। 

स त्वमग्नि स्वर्ग्यमध्येषि मृत्यो
प्रब्रूहि त्वं श्रद्दधानाय मह्यम्। 
स्वर्गलोका अमृतत्वं भजन्त 
एतद् द्वितीयेन वृणे वरेण ॥१३॥ 

शब्दार्थ - 
मृत्यो = हे मृत्युदेव।
स त्वं स्वर्ग्यम् अग्निं अध्येषि = वह आप स्वर्ग-प्राप्ति के साधनरुप अग्नि को जानते हैं। 
त्वं मह्यम् श्रद्दधानाय प्रब्रूहि = आप मुझ श्रद्धालु को (उस अग्नि को ) बतायें। स्वर्गलोकाः अमृतत्वं भजन्ते = स्वर्गलोक के निवासी अमरत्व को प्राप्त होते हैं।
एतद् द्वितीयेन वरेण वृणे = (मैं) यह दूसरा वर माँगता हूँ। 

वचनामृत - हे मृत्युदेव, वह आप स्वर्गप्राप्ति की साधनरुप अग्नि को जानते हैं। आप मुझ श्रद्धालु को उसे बता दें। स्वर्गलोक के निवासी अतृप्तभाव को प्राप्त हो जाते हैं। मैं यह दूसरा वर माँगता हूँ। 

व्याख्या - नचिकेता ने यमराज से स्वर्ग के सुखों की चर्चा करते हुए कहा - वहां वृद्धावस्था, रोग और मृत्यु का भय नहीं है, भूख प्यास का कष्ट भी नहीं है तथा वहां के निवासी शोक को पार करके आनन्द भोगते हैं, किन्तु स्वर्गप्राप्ति का साधनरुप अग्नि-विज्ञान क्या है ? हे देव, मैं श्रद्धालु होने के कारण इस महत्त्वपूर्ण ज्ञान को प्राप्त करने के लिए सत्पात्र हूँ। कृपया मुझे इसका उपदेश करें। यह मैं दूसरा वर माँगता हूँ। 
   वास्तव में नचिकेता यह मात्र जिज्ञासा-संतुष्टि के लिए पूछता है। स्वर्गाग्नि को जानकर वह इसे अनावश्यक कह देगा, क्योंकि उसकी प्रधान रुचि तृतीय वर द्वारा आत्मज्ञान प्राप्त करने में है। उपनिषद् कर्मकाण्ड को ज्ञानप्राप्ति की अपेक्षा तुच्छ एवं निम्न घोषित करते हैं। 
   (मंत्र १४, १५, १६, १७, १८ में अग्नि-विज्ञान की चर्चा की गयी है। ) 

प्र ते ब्रवीमि तदु मे निबोध 
स्वर्ग्यमग्निं नचिकेत: प्रजानन्। 
अनन्तलोकाप्तिमथो प्रतिष्ठां 
विद्धि त्वमेतं निहितं गुहायाम् ॥१४॥ 

शब्दार्थ-  
नचिकेत: = हे नचिकेता। 
स्वर्ग्यम् अग्निम् प्रजानन् ते प्रब्रवीमि = स्वर्गप्राप्ति की साधनरुप अग्निविद्या को भली प्रकार जानने वाला मैं तुम्हें इसे बता रहा हूं।
तत् उ मे निबोध = उसे भली प्रकार मुझसे जान लो। 
त्वं एतम् = तुम इसे। 
अनन्तलोकाप्तिम् = अनन्तलोक की प्राप्ति कराने वाली।
प्रतिष्ठाम् =उसकी आधाररुपा।
अथो = तथा।
गुहायाम् निहितम् = बुद्धि रुपी गुहा में स्थित (अथवा रहस्यमय एवं गूढ़ )।
विद्धि = समझो । 

वचनामृत - हे नचिकेता स्वर्गप्रदा अग्निविद्या को जानने वाला मैं तुम्हारे लिए भली भाँति समझाता हूँ। (तुम) इसे मुझसे जान लो । तुम इस विद्या को अनन्लोक की प्राप्ति कराने वाली , उसकी आधाररुपा और गुहा मे स्थित समझो । 

व्याख्या - यमराज अग्निविद्या के ज्ञाता हैं और वे नचिकेता को इसे यथार्थ रुप में समझाने का आश्वासन देते हैं। यह विद्या अनन्तलोक को प्राप्त करा देती है तथा हृदयगुहा में ही सन्निहित रहता है - धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायाम्। उपनिषद्, कर्मकाण्ड तथा स्वर्ग आदि को महत्त्व नहीं देते तथा अन्त:करण की शुद्धि ही कर्मकाण्ड का उद्देश्य होता है। तत्त्वज्ञान ही सर्वोच्च है। 

लोकादिमग्निं तमुवाच तस्मै 
या इष्टका यावतीर्वा यथा वा । 
स चापि तत्प्रत्यवदद्यथोक्त-
मथास्य मृत्यु: पुनरेवाह तुष्ट:॥१५॥ 

शब्दार्थ - 
तम् लोकादिम् अग्निम् तस्मै उवाच = उस लोकादि (स्वर्ग-लोक की साधनरुपा ) अग्निवि द्या को उस (नचिकेता )को कह दिया। 
या वा यावतीः इष्टकाः = (उसमें कुण्डनिर्माण आदि के लिए )जो-जो अथवा जितनी-जितनी ईंटें (आवश्यक होती हैं )। 
वा यथा = अथवा जिस प्रकार(उनका चयन हो)। 
च स अपि तत् यथोक्तम् प्रत्यवदत् = और उस (नचिकेता )ने भी उसे जैसा कहा गया था , पुन: सुना दिया। 
अथ = इसके बाद। 
मृत्यु: अस्य तुष्ट: = यमराज उस पर संतुष्ट होकर। 
पुन: एव आह = पुन: बोले। 

वचनामृत - उस लोकादि अग्नि विद्या को उसे (नचिकेता को )कह दिया । (कुण्डनिर्मा ण इत्यादि में) जो–जो अथवा जितनी -जितनी ईंटें (आवश्यक होती हैं) अथवा जिस प्रकार (उनका चयन हो )। और उस (नचिकेता ) ने भी उसे जैसा कहा गया था , पुन: सुना दिया । इसके बाद यमराज उस पर संतुष्ट हो कर पुन: बोले। 

व्याख्या - आचार्यरुप यमदेव ने स्वर्गलोक की साधनरुपा अग्निविद्या की गोपनीयता कहकर नचिकेता को उसे समझा दिया । यमदेव ने कुण्डनिर्माण आदि के लिए जिस आकार की और जितनी ईंटें आवश्यक होती हैं तथा उनका जिस प्रकार चयन होता है, यह सब समझा दिया । नचिकेता कुशाग्रबुद्धि था , अतएव उसने जैसा सुना था, वैसा ही सुना दिया । यमाचार्य ने उसकी बुद्धि की विलक्षणता से संतुष्ट होकर उसे इसके आगे भी कुछ समझाया । 

तमब्रवीत प्रीयमाणो महात्मा 
वरं तवेहाद्य ददामि भूय:। 
तवैव नामा भविताऽयमग्निः 
सृक्ङां चेमामनेकरुपां गृहाण ॥१६॥
 
शब्दार्थ -
प्रीयमाणः महात्मा तम् अब्रवीत् = प्रसन्न एवं परितुष्ट हुए महात्मा यमराज उससे बोले।
अद्य तव इह भूय: वरम् ददामि = अब (मैं) तुम्हें यहां पुन: (एक अतिरिक्त)वर देता हूँ। 
अयम् अग्निः तव एव नाम्ना भविता = यह अग्नि तुम्हारे ही नाम से (प्रख्यात) होगी। 
च इमामनेकरुपाम् सृक्ङाम् गृहाण = और इस अनेक रुपों वाली (रत्नों की )माला को स्वीकार करो । 

वचनामृत- महात्मा यमराज प्रसन्न एवं परितुष्ट हो कर उससे बोले-अब मैं तुम्हें यहां पुन: एक (अतिरिक्त) वर देता हूं। यह अग्नि तुम्हारे ही नाम से विख्यात होगी । और इस अनेक रुपों वापों वाली माला को स्वीकार करो ।

व्याख्या - यदि गुरु शि ष्य के आचरण से प्रसन्न हो जा ता है तो वह उसे अपना सर्वस्व लुटा देना चा हता है। आचा र्यरुप महा त्मा यमरा ज ने परम प्रसन्न एंव परि तुष्ट हो कर नचि केता को बि ना उसके मां गे हुए ही एक अति रि क्त वर दे दि या कि वह वि शेष अग्नि भवि ष्य में 'नाचिकेत अग्नि ' के नाम से प्रख्यात होगी । अति प्रसन्न यमराज ने नचिकेता को एक दिव्य माला (रत्नमाला ) भी भेंट कर दी। 

त्रिणाचिकेतस्त्रिभिरेत्य सन्धिं 
त्रिकर्मकृत्तरति जन्ममृत्यू। 
ब्रह्मजज्ञं देवमीड्यं विदित्वा 
निचाय्येमांशानितमत्यन्तमेति ॥१७॥ 

शब्दार्थ -
त्रिणाचिकेत: = नाचिकेत अग्नि का तीन बार अनुष्ठान करने वाला। 
त्रिभिः सन्धिम् एत्य = तीनों (ऋक्, साम, यजु:वेद) के साथ सम्बन्ध जोड़कर अथवा माता , पिता , गुरु से सम्बद्ध होकर मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् ब्रूयात् (बृ० उप० ४.१.२)।
त्रिकर्मकृत = तीन कर्मों (यज्ञ दान तप) को करने वाला मनुष्य। 
जन्ममृत्यु तरति = जन्म और मृत्यु को पा र कर लेता है, जन्म और मृत्यु के चक्र से ऊपर उठ जा ता है। 
ब्रह्मजज्ञम् = ब्रह्म से उत्पन्न सृष्टि (अथवा अग्नि देव) के जा नने वा ले। 'ब्रह्मजज्ञ' का अर्थ अग्नि भी है, जैसे अग्नि को जा तवेदा भी कहते हैं। 'ब्रह्मजज्ञ' का एक अर्थ सर्वज्ञ भी है "ब्रह्मणो हिरण्यगर्भात् जातो ब्रह्मज:, ब्रह्मजश्चासौ ज्ञश्चेति ब्रह्मजज्ञ: सर्वज्ञो हि असौ (शंकराचार्य)।" 
ईड्यम् देवम् = स्तवनीय अग्निदेव (अथवा ईश्वर) को।
विदित्वा = जानकर। 
निचाय्य = इसका चयन करके इसको भली प्रका र समझकर देखकर। 
इमाम् अत्यन्तम् शान्तिम् एति = इस अत्यन्त शान्ति को प्राप्त हो जाता है।

वचनामृत - जो भी मनुष्य इस नाचिकेत अग्नि का तीन बर अनुष्ठान करता है और तीनों (ऋक्, साम, यजु:वेदों) से सम्बद्ध हो जाता है तथा तीनों कर्म(यज्ञ, दान, तप) करता है, वह जन्म-मृत्यु को पार कर लेता है। वह ब्रह्मा से उत्पन्न उपासनीय अग्निदेव को जानकर और उसकी अनुभुति करके परम शान्ति को प्राप्त कर लेता है। 

व्याख्या -  नाचिकेत अग्नि का तीन बार अनुष्ठान करने वाला तथा तीन प्रमुख वेदों (ऋक्, साम, यजु:) से सम्बद्ध होने वाला पुरुष यज्ञ दान और तप करते हुए जन्म और मृत्यु का अतिक्रमण कर लेता है। ब्रह्मा से उत्पन्न अग्निदेव को जानने वाला मनुष्य उपास्य अग्नि को (अग्नि-विज्ञान को ) जानकर और उसे समझकर दैवी भाव (दिव्यता )को प्राप्त कर लेता है। वेदों में 'अग्नि ' परमात्मा का प्रतीक एवं सूचक है। वह ब्रह्म का ही स्वरुप है। 

त्रिणाचिकेतस्त्रयमेतद्विदित्वा 
य एवं विद्वांश्चिनुते नाचिकेतम्। 
स मृत्यृपाशान् पुरत: प्रणोद्य 
शोकातिगो मोदते स्वर्गलोके ॥१८॥ 

शब्दार्थ - 
एतत् त्रयम् = इन तीनों (ईंटो के स्वरुप संख्या और चयन विधि )को । 
विदित्वा = जानकर। 
त्रिणाचिकेत: = तीन बार नाचिकेत अग्नि का अनुष्ठान करने वाला। 
य एवम् विद्वान् = जो भी इस प्रकार जानने वाला ज्ञानी पुरुष। 
नाचिकेतम् चिनुते = नाचिकेत अग्नि का चयन करता है। 
स मृत्युपाशान् पुरत: प्रणोद्य = वह मृत्यु के पाशों को अपने सामने ही (अपने जीवनकाल में ही )काटकर।
शोकातिग: स्वर्गलोके मोदते = शोक को पार करके स्वर्गलोक में आनन्द का अनुभव करता है। 

वचनामृत - इन तीनों (ईंटों के स्वरुप संख्या और चयन- विधि ) को जानकर तीन बार नाचिकेत अग्नि का अनुष्ठान करने वाला जो भी विद्वान पुरुष नाचिकेत अग्नि का चयन करता है, वह (अपने जीवनकाल में ही ) मृत्यु के पाशों को अपने सामने ही काटकर, शोक को पार कर, स्वर्गलोक में आनन्द का अनुभव करता है। 

व्याख्या - नाचिकेत अग्निविद्या की महिमा का कथन करते हुए यमराज ने कहा कि जो भी इस विद्या का जानने वाला विद्वान इसका अनुष्ठान करता है, वह अपने जीवनकाल में ही मृत्यु से मुक्त होकर मृत्युञ्जय हो जाता है। वह शोक को पार कर, चेतना की उच्चावस्था में स्थित हो जाता है और दैवी आनन्द को भोग लेता है। वह स्वर्ग को प्राप्त कर लेता है। वास्तव में सारे लोक सूक्ष्म रुप में अपने भीतर भी हैं। 

एष तेऽग्निर्नचिकेत: स्वर्ग्यो 
यमवृणीथा द्वितीयेन वरेण। 
एतमग्निं तवैव प्रवक्ष्यन्ति जनास-
स्तृतीयं वरं नचिकेतो वृणीष्व॥१९॥ 

शब्दार्थ - 
नचिकेतः = हे नचिकेता। 
एष ते स्वर्ग्यः अग्निः = यह तुमसे कही हुई स्वर्ग की साधनरुपा अग्निविद्या है। 
यम् द्वितीयेन वरेण अवृणीथाः = जिसे तुमने दूसरे वर से मांगा था। 
एतम् अग्निम् = इस अग्नि को।
जनास: = लोग।
तव एव प्रवक्ष्यन्ति = तुम्हारी ही (तुम्हारे नाम से ही ) कहा करेंगे 
नचिकेत = हे नचिकेता। 
तृतीयम् वरम् वृणीष्व= तीसरा वर मांगो । 

वचनामृत - हे नचिकेता , यह तुमसे कही हुई स्वर्गसाधनरुपा अग्निविद्या है, जिसे तुमने दूसरे वर से मांगा था । इस अग्नि को लोग तुम्हारे नाम से कहा करेंगे। हे नचिकेता , तीसरा वर मांगो ।

व्याख्या - यमराज ने नचिकेता को यह कहकर सम्मान दिया कि भविष्य में लोग इस अग्नि को 'नाचिकेत अग्नि ' कहेंगे। तदुपरान्त यमराज ने नचिकेता को तीसरा वर मांगने की अनुमति दी। नचिकेता के तीन अभीप्सित वरों मे एक सोपानात्मकता है। सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण वर ज्ञानात्मक है। आत्मज्ञान ही उपनिषदों का प्रयोजन एवं प्रतिपाद्य है। 

येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये-
ऽस्तीत्येके नायमस्तीति चैके। 
एतद्विद्यामनुशिष्टस्त्वयाहं 
वराणामेष वरस्तृतीय: ॥२०॥ 

शब्दार्थ - 
प्रेते मनुष्ये या इयं विचिकित्सा = मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है।
एके अयम् अस्ति इति = कोई तो (कहते हैं) यह आत्मा (मृत्यु के बाद) रहता है। 
च एके न अस्ति इति = और कोई (कहते हैं) नहीं रहता है। 
त्वया अनुशिष्ट: अहम् = आपके द्वारा उपदिष्ट मैं। 
एतत् विद्याम् = इसे भली प्रकार जान लूं। 
एष वराणाम् तृतीय: वर: = यह वरों में तीसरा वर है। 

वचनामृत - मृतक मनुष्य के संबंध में यह जो संशय है कि कोई कहते हैं कि यह आत्मा (मृत्यु के पश्चात्) रहता है और कोई कहते हैं कि नहीं रहता , आपसे उपदेश पाकर मैं इसे जान लूं, यह वरों मे तीसरा वर है। 

व्याख्या - जिज्ञासा प्रेरित नचिकेता पिता की परितुष्टि का वर और अग्निविज्ञान का वर प्राप्त करने पर आत्मा का यथार्थ स्वरुप समझाने का तीसरा वर मांगता है। नचिकेता कहता है – हे यमराज, मृतक व्यक्ति के संबंध में कोई कहता है कि मृत्यु के उपरान्त उसके आत्मा का अस्तित्व रहता है और कोई कहता है कि नहीं रहता , कृपया मुझे इसे समझा दें। यह नचिकेता का अभीष्ट और श्रेष्ठ वर है। तैत्तिरीय ब्राह्मण में नचिकेता ने तीसरे वर में पुनर्मृत्यु ( जन्म-मृत्यु) पर विजय-प्राप्ति का साधन पूछा है। तृतीयं वृणी ष्वेति । पुनर्मृत्यो र्मेऽपचितिं ब्रूहि । एक कुमार से ऐसे गूढ प्रश्न की आशा नहीं की जा सकती । अतएव यमदेव ने नचिकेता के सच्चे अधिकारी अथवा सुपात्र होने की परीक्षा ली । यमदेव ने देर तक उसे टालने का प्रयत्न किया , किन्तु यह संभव न हो सका । इससे संवाद में रोचकता आ गयी है। 

देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा 
न हि सुवेज्ञेयमणुरेष धर्म:। 
अन्यं वरं नचिकेतो वृणीष्व 
मा मोपरोत्सीरति मा सृजैनम् ॥२१॥ 

शब्दार्थ-  
नचिकेतः = हे नचिकेता। 
अत्र पुरा देवै: अपि विचिकित्सितम् = यहां (इस विषय में) पहले देवताओं द्वारा भी सन्देह किया गया। 
हि एष: धर्म: अणु: = क्योंकि यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म है। 
न सुविज्ञेयम् = सरल प्रकार से जानने के योग्य नहीं है। 
अन्यम् वरम् वृणीष्व = अन्य वर मांग लो । 
मा मा उपरोत्सीः - मुझ पर दवा व मत डालो। 
एनम् मा अतिसृज = इस (आत्मज्ञान-सम्बन्धी वर )को मुझे छोड़ दो। 

वचनामृत - हे नचिकेता , इस विषय में पहले भी देवताओं द्वारा सन्देह किया गया था , क्योंकि यह विषय अत्यन्त सूक्ष्म है और सुगमता से जानने योग्य नहीं है। तुम कोई अन्य वर मांग लो । मुझ पर बोझ मत डालो । इस आत्मज्ञान संबंधी वर को मुझे छोड़ दो। 

व्याख्या - अध्यात्मविद्या दुर्विज्ञेय है। अग्निविद्या आदि कर्मकाण्ड के विषयों को समझना सरल है, किन्तु ब्रह्मविद्या का उपदेश करना और ग्रहण करना अत्यन्त कठिन है। यमदेव ने नचिकेता से कहा - यह विषय तो अत्यन्त गूढ है तथा सुगम नहीं है। अत: तुम कोई अन्य वर मांग लो और इस वर को मुझे ही छोड़ दो । वास्तव में यमदेव केवल नचिकेता के औत्सुक्य को उद्दीप्त कर रहे हैं और उसकी पात्रता की परीक्षा ले रहे हैं, बल्कि उसके मन में ब्रह्मज्ञान की महिमा को प्रतिष्ठित भी कर रहे हैं। 

देवैरत्रापि विचिकित्सितं किल 
त्वं च मृत्यो यत्र सुविज्ञे ममात्थ। 
वक्ता चास्य त्वादृगन्यो न लभ्यो 
नान्यो वरस्तुल्य एतस्य कश्चित् ॥२२॥ 

शब्दार्थ - 
मृत्यो = हे यमराज। 
त्वम् यत् आत्थ = आपने जो कहा । 
अत्र किल देवै: अपि विचिकित्सितम् = इस विषय में वास्तव में देवताओं द्वारा भी संशय किया गया। 
च न सुविज्ञेयम् = और वह सुविज्ञेय भी नहीं है। 
च अस्य वक्ता = और इसका वक्ता। 
त्वा दृक् अन्यः लभ्यः = आपके सृदश अन्य कोई प्राप्त नहीं हो सकता।
एतस्य तुल्यः अन्यः कश्चित् वर: न = इस (वर) के समान अन्य कोई वर नहीं है। 

वचनामृत - नचिकेता ने कहा - हे यमराज, आपने जो कहा कि इस विषय में वास्तव में देवताओं द्वारा भी संशय किया गया और वह (विषय) सुगम भी नहीं है। और, इसका उपदेष्टा आपके तुल्य अन्य कोई लभ्य नहीं हो सकता । इस (वर) के समान अन्य कोई वर नहीं है। "वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतय: " (गीता , १०.१६) 

व्याख्या - नचिकेता अपनी गहन उत्सुकता तथा निश्चय की दृढता का परिचय देता है तथा यम द्वारा आग्रह न करने के परामर्श को स्वीकार नहीं करता । वह कहता है- हे यमराज, आपका कथन ठीक है कि देवता भी आत्मतत्त्व के विषय में संशयग्रस्त हैं और निर्णय नहीं ले पाते, किन्तु आप मृत्यु के देवता हैं और आपके समान कोई अन्य उपदेष्टा यह निश्चयपूर्वक नहीं कह सकता कि मृत्यु के उपरान्त आत्मा का अस्तित्व रहता है अथवा नहीं । मेरे प्रश्न द्वारा याचित वरदान के तुल्य महत्त्वपूर्ण अन्य कुछ भी नहीं हो सकता । यह एक विचित्र संयोग है कि आपके सदृश इस विषय का कोई अन्य ज्ञाता नहीं है और अध्यात्मविद्या के वर के समान अन्य कोई वर भी नहीं हो सकता । 

शतायुष: पुत्रपौत्रान् वृणीष्व 
बहून् पशून् हस्ति हिरण्यमश्वान्। 
भूमेर्महदायतनं वृणीष्व 
स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि ॥२३॥ 

शब्दार्थ - 
शतायुष: = शतायु वाले।
पुत्रपौत्रान् = बेटे पोतों को। 
बहून पशून् = बहुत से गौ आदि पशुओं को ।
हस्ति हिरण्यम् = हाथी और हिरण्य (स्वर्ण)को ।
अश्वान् वृणीष्व = अश्वों को मांग लो । 
भूमेः महत् आयतनम् = भूमि के महान् विस्तार को । 
वृणीष्व = मांग लो । 
स्वयम् च = तुम स्वयं भी ।
यावत् शरद: इच्छसि जीव = सौ वर्षों तक जीने की इच्छा करो , जीवित रहो  
वचनामृत - शतायु (दीर्घायु )पुत्र-पौत्रों को , बहुत से (गौ आदि ) पशुओं को, हाथी -सुवर्ण को , अश्वों को मांग लो , भूमि के महान् विस्तार को मांग लो , स्वयं भी जितने शरद् ऋतुओं (वर्षो ) तक इच्छा हो , जीवित रहो । 

व्याख्या - यमराज ने नचिकेता को एक कुमार के मन की अवस्था के अनुरुप धन-धान्य मांग लेने के लिए कहा । यमराज ने उसे दीर्घा युवा ले बेटे-पोते, बहुत से गौ आदि पशु, गज, अश्व, भूमि के विशाल क्षेत्र, स्वयं की भी यथेच्छा आयु प्राप्त करने का प्रलोभन दिया और समझाया कि वह आत्मविद्या को सीखने के लिए उसे विवश न करे। 

एतत्तुल्यं यदि मन्यसे वरं 
वृणीष्व वित्तं चिरजीविकां च। 
महा भूमौ नचिकेतस्त्वमेधि 
कामानां त्वा कामभाजं करोमि ॥२४॥ 

शब्दार्थ - 
नचिकेता = हे नचिकेता >
यदि त्वम् एतत् तुल्यम् वरम् मन्यसे वृणीष्व = यदि तुम इस आत्मज्ञान के समान (किसी अन्य) वर को माँगते हो , मांग लो ।
वित्तं चिरजीविकाम् = धन को और अनन्त काल तक जीवन यापन के साधनों को ।
व महभूमौ = और विशाल भूमि पर। 
एधि = फलो -फूलो , बढो , शासन करो ।
त्वां कामानाम् कामभाजम् करोमि = तुम्हें (समस्त कामनाओं का उपभो ग करने वाला बना देता हूँ। 

वचनामृत - हे नचिकेता , यदि तुम इस आत्मज्ञान के समान (किसी अन्य) वर को मांगते हो , मांग लो – धन, जीवन यापन के साधनों को और विशाल भूमि पर (अधिपति हो कर) वृद्धि करो , शासन करो । तुम्हें (समस्त) कामनाओं का उपभोग करने वाला बना देता हूँ। 

व्याख्या - यमराज नचिकेता के मन को प्रलुब्ध करने के लिए अनेक कामोपभोगों की गणना करते हैं - अपार धन, जीवन यापन के साधन, विशाल भूमि पर शासन, अनन्त कामनाओं का भोग । यमराज नचिकेता से कहते हैं कि वह आत्मज्ञान के समान किसी भी अन्य वर को मांग ले, जिसे वह उपयुक्त समझता हो । वास्तव में यमाचार्य नचिकेता के मन मे आत्मज्ञान के प्रति उसकी उत्सुकता बढा रहे हैं और उसकी पात्रता को परख भी रहे हैं।

ये ये कामा दुर्लभा मर्त्यलोके 
सर्वान् कामांश्छन्दत: प्रार्थयस्व। 
इमा रामाः सरथाः सतूर्या 
न हीदृशा लम्भनीया मनुष्यै:। 
आभिर्मत्प्रत्ताभिः परिचारयस्व 
नचिकेतो मरणं मानुप्राक्षी ॥२५॥ 

शब्दार्थ - 
ये ये कामा : मर्त्यलोके दुर्लभा : (सन्ति ) = जो -जो भोग मनुष्यलोक में दुर्लभ हैं।
सर्वान् कामान् छन्दत: प्रार्थयस्व = उन सम्पूर्ण भोगों को इच्छानुसार मांग लो। 
सरथाः सतूर्याः इमाः रामाः = रथों सहित, तूर्यों (वाद्यों)सहित, इन स्वर्ग की अप्सराओं को।
मनुष्यैः ईदृशाः न हि लम्भनीयाः = मनुष्यों द्वारा ऐसी स्त्रियॉँ प्राप्य नहीं हैं। मत्प्रत्ताभिः परिचारयस्व = मेरे द्वारा प्रदत्त इनसे सेवा कराओ।
नचिकेतः = हे नचिकेता। 
मरणं मा अनुप्राक्षीः = मरण (के संबंध में प्रश्न को ) मत पूछो । 

वचनामृत - हे नचिकेता , जो-जो भोग मृत्युलोक में दुर्लभ हैं, उन सबको इच्छानुसार मांग लो। रथों सहित, वाद्यों सहित इन अप्सराओं को (मांग लो ), मनुष्यों द्वारा निश्चय ही ऐसी स्त्रियां अलभ्य हैं। इनसे अपनी सेवा कराओ, मृत्यु के संबंध में मत पूछो । 

व्याख्या - यमाचार्य अनेक प्रकार से नचिकेता के अधिकारी (सुपात्र) होने की परीक्षा ले रहे हैं तथा मानव कल्पित संपूर्ण भोगों का प्रलोभन दिखा देते हैं। वे नचिकेता से कहते हैं कि वह स्वर्ग की अप्सराओं को , स्वर्गीय रथों और वाद्यों के सहित ले जाए जो मृत्यु लोक के मनुष्यों के लिए अलभ्य हैं तथा उनसे सेवा कराए, किन्तु आत्मज्ञान विषयक प्रश्न न पूछे। किन्तु नचिकेता वैराग्यसम्पन्न और दृढनिश्चयी था । आत्मतत्त्व के सच्चे जिज्ञासु के लिए वैराग्यभाव तथा दृढनिश्चय होना आवश्यक होता है, अन्यथा वह अपनी साधना में अडिग नहीं रह सकता । 

श्वो भावा मर्त्यस्य यदन्तकैतत् 
सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज:। 
अपि सर्वम् जीवितमल्पेमेव 
तवैव वाहास्तव नृत्यगीते ॥२६॥ 

शब्दार्थ - 
अन्तक = हे मृत्यो।
श्वो भावाः = कल तक ही रहनेवाले अर्थात नश्वर, क्षणिक, क्षणभंगुर ये भोग।
मर्त्यस्य् सर्वेन्द्रियाणाम् यत् तेज: एतत् जरयन्ति = मरणशी ल मनुष्य की सब इन्द्रियों का जो तेज (है) उसे क्षीण कर देते हैं। 
अपि सर्वम् जीवितम् अल्पम् एव = इसके अति रि क्त समस्त आयु अल्प ही है।
तव वाहाः नृत्यगीते तव एव = आपके रथादि वाहन, स्वर्ग के नृत्य और संगीत आपके ही (पास) रहें। 

वचनामृत - हे यमराज, (आपके द्वारा वर्णित) कल तक ही रहने वाले (एक ही दिन के, क्षणभंगुर) भोग मरणधर्मा मनुष्य की सब इन्द्रियों के तेज को क्षीण कर देते हैं। इसके अतिरिक्त समस्त आयु अल्प ही है। आपके रथादि वाहन, स्वर्ग के नृत्य और संगीत आपके ही पास रहें। 

व्याख्या - नचिकेता ने आत्मज्ञान की अपेक्षा सांसारिक सुखभोगों को तुच्छ घोषित कर दिया । भौतिक सुखभोग इन्द्रियों की शक्ति को क्षीण कर देते हैं तथा उनसे शान्ति नहीं होती । इसके अतिरिक्त मनुष्य का जीवन अल्प और अनिश्चित है। अतएव जिस विवेकशील पुरुष के लिए सत्य साध्य है एवं प्राप्य है, उसके लिए ये भौतिक सुखभोग त्याज्य हैं। नचिकेता यमदेव से कह देता है कि उसे ये नश्वर भोग-पदार्थ प्रलुब्ध नहीं करते तथा इन्हें वह अपने पास ही रखे। 

न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो 
लप्स्यामहे वित्तमद्राक्ष्म चेत्त्वा । 
जीविष्यामो यावदीशिष्यसि त्वं 
वरस्तु मे वरणीय: स एव॥२७॥ 

शब्दार्थ - 
मनुष्य: वित्तेन तर्पणीय: न = मनुष्य धन से कभी तृप्त नहीं हो सकता।
चेत्= यदि , जब कि।
त्वा अद्राक्ष्म = (हमने) आपके दर्शन पा लिये हैं।
वित्तम् लप्स्यामहे = धन को (तो हम) पा ही लेंगे।
त्वम् या वद् ईशिष्यसि = आप जब तक ईशन(शासन) करते रहेंगे, 
जीविष्याम: = हम जीवित ही रहेंगे।
मे वरणीय: वर: तु स एव = मेरे मांगने के योग्य वर तो वह ही है। 

वचनामृत - मनुष्य धन से तृप्त नहीं हो सकता । जब कि (हमने) आपके दर्शन पा लिये हैं, धन तो हम पा ही लेंगे। आप जब तक शासन करते रहेंगे, हम जीवित भी रह सकेंगे। मेरे मांगने के योग्य वर तो वह ही है। 

व्याख्या - नचिकेता ने एक परम सत्य का कथन किया है कि धन से मनुष्य की आत्यन्तिक तृप्ति नहीं हो सकती । उसने यमदेव को सम्मान देते हुए कहा - जबकि हमने आपके दर्शन प्राप्त कर लिए हैं, आपकी कृपा से धन तो हम पा ही लेंगे तथा आप जब तक शासन करते रहेंगे, हम भी तब तक जीवित रह सकेंगे। अत: धन और दीर्घायु की याचना करना व्यर्थ है। कठोपनिषद् का पहला उपदेश नचिकेता के मुख से निस्सृत हुआ है। "न वि त्तेन तर्पणी यो मनुष्य:" को कण्ठस्थ करके इसके सारतत्त्व को ग्रहण कर लेना चाहिए। मनुष्य की आत्यन्तिक तृप्ति कभी धन-सम्पत्ति से नहीं हो सकती । मनुष्य धन से सुख-सुविधा के साधनों को प्राप्तकर सकता है, किन्तु आन्तरिक सुख को प्राप्त नहीं कर सकता । मनुष्य के जीवन में धन बहुत कुछ है, किन्तु सब कुछ नहीं है। इच्छाओं की तृप्ति भोग से नहीं होती , जैसे कि अग्नि की शान्ति घृत डालने से नहीं होती , बल्कि वह अधिक उद्दीप्त हो जाती है। न जातुकाम: कामानामुपभोगेन शाम्यति । हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ (मनुस्मृति २.९४) भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता: (भर्तृहरि , वैरा ग्यशतक) अर्थात् भोग कभी भुक्त नहीं होते, हम भी भुक्त हो जाते हैं। 'विषय मोर हरि लीन्हेउ ग्याना ' (सुग्रीव की उक्ति ) 'बुझै न का म अगनि तुलसी कहुँ वि षय भो ग वहु घी ते' का मा ग्नि का शमन वि वेकपूर्ण सन्तोष से ही हो ना संभव हो ता है।'बि नु संतो ष न का म नसाही ।' 
   हूवर कमेटी द्वारा प्रस्तुत अमेरिका की अर्थसंबंधी युद्धोत्तर अन्वेषण रिपोर्ट में परम्परागत सिद्धान्त का ही प्रतिपादन किया गया कि एक इच्छा को शान्त करने पर वह अन्य इच्छा को जन्म दे देती है तथा इच्छाओं का क्रम कभी समाप्त नहीं होता । " The survey has provaed conclusively what has been long held theoretically to be true that wants are almost insatiable, that one want makes way for another.” “Wants multiply." 
     महात्मा ईसा ने कहा था कि मनुष्य एक साथ ही भगवान् तथा धन को प्रेम नहीं कर सकता ("Ye cannot serve God and a mammon.")  
  ऊँट के लिए सुई में से गुजरना धनिक द्वारा परमात्मा के राज्य में प्रवेश करने की अपेक्षा सरल है। "For it is easier for a camel to go through a needle’s eye than for a richman to enter into the kingdom of God." 
   आध्यात्मिक साधक के मार्ग में धन की तृष्णा एवं धन का अभिमान बाधक हैं। उसे सादगी और संतोष से जीवन-यापन करना ही चाहिए। धन की लिप्सा मनुष्य को पाप में प्रवृत्त कर देती है। धन का प्रभाव धन के अभाव से अधिक दुःखदायक होता है। धन का लोभ मनुष्य को भटका कर अशान्त बना देता है तथा धन की प्रचुरता को मदान्ध बना देती है। कनक कनक ते सौ गुनी मादकता अधिकाय। वह खाये बौराय जग यह पाये बौराय (बिहारी )। 
     धन की प्रचुरता प्रायः मनुष्य को विलासि ता , दुर्व्यसन, अपराध, हिंसा और अशान्ति की ओर ले जाती है। वास्तव में धन में दोष नहीं है, धन की लिप्सा एवं आसक्ति में दोष होता है। मनुष्य धन के सदुपयोग से दीन दुःखीजन की सेवा आदि लोक-कल्याण के कार्य कर सकता है। अतः हमें त्यागपूर्वक भोग करना चाहिए। ईशावास्य उपनिषद् में इसी भाव को सूत्रात्मक रूप से कहा गया है - तेन त्यक्तेन भुज्जीथा मा गृधः कस्यस्विद् धनम्। 
    सन्त कबीर ने संतोषवृत्ति की प्रशंसा में कहा था - साँईं इतना दीजिये, जा में कुटुम्ब समाय, मैं भी भूखा ना रहूँ साधु न भूखा जाय। 
   परिश्रम और सच्चाई से धन अर्जित करना , जो भी प्राप्त हो जाय उसमें सन्तोष करना तथा उसका सदुपयोग करना विवेकसम्मत है। यदृच्छालाभसन्तुष्टो (गीता , ४.२२) यह एक तथ्य है कि मनुष्य सब कुछ यहीं एकत्रित करता है और सब कुछ यहीं छोड़कर सहसा चला जाता है। यदि सब कुछ छूटना है तो हम उसे स्वयं ही छोड़ दें अर्थात् उसके ममत्व, स्वामित्व और आसक्ति के भाव को छोड़कर भारमुक्त हो जाएँ। सब धन परमात्मा का ही है। अतः 'इदं न मम' (यह मेरा नहीं है। ) की भावना को शिरोधार्य करके धन का उपभोग एवं सदुपयोग करना सब प्रकार से श्रेष्ठ है। निश्चय ही आत्मज्ञान की अपेक्षा धन अत्यन्त तुच्छ है। बृहदारण्यक उपनिषद् में मैत्रेयी ने याज्ञवल्क्य ऋषि से पूछा - यदि यह धन से सम्पन्न सारी पृथ्वी मेरी हो जाये तो क्या मैं अमर हो सकती हूँ ? याज्ञवल्क्य ने कही - भोग सामग्रियों से सम्पन्न मनुष्यों का जैसा जीवन होता है, वैसा ही तेरा जीवन भी हो जाएगा। धन से अमृतत्व की तो आशा ही नहीं - 'अमृतत्वस्य नाशास्ति वित्तेन।' मैत्रेयी ने कहा - जिससे मैं अमृता नहीं हो सकती , उसे लेकर क्या करूँगी ? मुझे तो अमृतत्व का साधन बतलाएँ - 'येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन कुर्याम् ? यदेव भगवान्वेद तदेव मे ब्रूहि ।' जीवन का उद्देश्य तो अमृतस्वरूप आत्मा को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना है। उपनिषदों में अनेक स्थलों पर अमृतत्व की चर्चा है। जीवनकाल में आत्मतत्त्व को जानकर अमृतत्व प्राप्त करना ही उत्तम धन है। यही मानव की सर्वोच्च उपलब्धि भी है।
 
अजीर्यता ममृतानामुपेत्य 
जीर्यन् मर्त्यः व्कधः स्थः प्रजानन्।
अभिध्यायन् वर्णरति प्रमोदा-
नदीर्घे जीविते को रमेत ॥२८॥ 

शब्दार्थ- 
जीर्यन् मर्त्यः = जीर्ण होने वाला मरणधर्मा मनुष्य। 
अजीर्यताम् अमृतानाम् = वयो हानि रूप जीर्णता को प्राप्त न होने वाले अमृतों (देवताओं, महात्माओं) की सन्निधि में, निकतटता में। 
उपेत्य= प्राप्त होकर, पहुँचकर। 
प्रजानन् = आत्मतत्त्व की महिमा को जानने वाला अथवा उन (देवताओं, महात्माओं) से प्राप्त होने वाले लाभ को जाननेवाला। 
व्कधः स्थः = व्कधः (कु=पृथ्वी , अन्तरिक्ष आदि से अधः , नीचे होने के कारण पृथ्वी व्कधः कहलाती है- शंकराचार्य) में स्थि त व्कधः स्थ, नीचे पृथ्वी पर स्थित होकर। 
कः = कौन। 
वर्णरति प्रमोदान् अभिध्यायन् = रूप, रति और भोगसुखों का ध्यान करता हुआ (अथवा उनकी व्यर्थता पर विचार करता हुआ)। 
अति दीर्घे जीविते रमेत = अति दीर्घकाल तक जीवित रहने में रुचि लेगा । 

वचनामृत - जीर्ण होने वाला मरणधर्मा मनुष्य, जीर्णता को प्राप्त न होने वाले देवताओं (अथवा महात्माओं) के समीप जाकर, आत्मविद्या से परिचित होकर, (अथवा महात्माओं से प्राप्त होने वाले लाभ को सोचकर) पृथ्वी पर स्थित होने वाला , कौन भौतिक भोगों का स्मरण करता हुआ (अथवा उनकी निरर्थकता को समझता हुआ) अति दीर्घ जीवन में सुख मानेगा ? 

व्याख्या - नचिकेता कुमारावस्था में ही बुद्धि की परिपक्वता एवं जिज्ञासा की गहनता का परिचय देता है। वह यमदेव से कहता है कि जीर्ण हो जाने वाला तथा मृत्यु को प्राप्त होने वाला , मृत्युलोक में रहनेवाला , कौन मनुष्य जीर्ण न होने वाले अमृतस्वरूप महात्माओं का संग पाकर भी भौतिक भोगों का चिन्तन करते हुए दीर्घकाल तक जीवित रहने में रुचि लेगा ? यमराज जैसे महात्मा का सान्निध्य पाकर भी भोगों का चिन्तन करने की मूर्खता कौन विवेकशील मनुष्य करेगा ? मृत्युलोक में रहनेवाले मरणधर्मा मनुष्य के लिए यमराज के सान्निध्य में आकर आत्मज्ञान की प्राप्ति से बढ़कर अन्य कौन-सा सौभाग्य हो सकता है ? नचिकेता ने आत्मज्ञान के लिए आवश्यक वैराग्यभाव को प्रदर्शित करके स्वयं को उपदेश का सच्चा अधिकारी सिद्ध कर दिया । यह प्रसिद्ध ही है कि विषय वासना और भौतिक वस्तुओं की तृष्णा से ग्रस्त मनुष्य आत्मज्ञान की साधना नहीं कर सकता । नचिकेता सत्य का गंभीर अनुसंधाता है तथा संसार के सुखभोगों को तुच्छ समझकर उनका परित्याग करने पर दृढ़ है। वह मात्र दीर्घजीवी नहीं, दिव्यजीवी होना चाहता है। 

यस्मिन्निदं विचिकित्सन्ति मृत्यो 
यत्साम्परा ये महति ब्रूहि नस्तत्। 
योऽयं वरो गूढमनुप्रविष्टो 
नान्यं तस्मान्नचिकेता वृणीते ॥२९॥

शब्दार्थ -
मृत्यो = हे यमराज ! 
यस्मिन् इदम् विचिकित्सन्ति = जिस समय यह विचिकित्सा (सन्देह, विवाद) होती है
यत् महति साम्परा ये = जो महान् परलोक-विज्ञान में है
तत् = उसे।
नः ब्रूहि = हमें बता दो।
यः अयम् गूढम् अनुप्रविष्टः वरः = जो यह वर (अब) गूढ रहस्यमयता को प्रवेश कर गया है (अधिक रहस्यपूर्ण एवं महत्त्वपूर्ण हो गया है)।
तस्मात् अन्यम् = इससे अतिरिक्त अन्य (वर) को।
नचिकेता न वृणीते = नचिकेता नहीं माँगता ।
वचनामृत - हे यमराज, जिस विषय में सन्देह होता है, जो महान् परलोक-विज्ञान में है, उसे हमें कहो । जो यह (तृतीय) वह है, (अब) गूढ रहस्यमयता में प्रवेश कर गया है (अधिक रहस्यपूर्ण हो गया है)। उसके अतिरिक्त अन्य (वर को ) नचिकेता नहीं माँगता । 
व्याख्या -
नचिकेता अपने निश्चय पर दृढ़ है तथा कोई प्रलोभन उसे विचलित नहीं कर सकता । यमराज जैसे उपदेष्टा के सान्निध्य का स्वर्णिम अवसर प्राप्त करके वह उसे खोना नहीं चाहता । यमराज ने जितने भी प्रलोभन प्रस्तुत किए, नचिकेता ने उन सबको तुच्छ एवं हेय कह दिया । आत्मतत्त्व के ज्ञान से बढ़कर अन्य कुछ भी नहीं हो सकता । नचिकेता का तृतीय वर गूढ है और गंभीर विवेचना की अपेक्षा करता है।

POPULAR POSTS$type=three$author=hide$comment=hide$rm=hide

TOP POSTS (30 DAYS)$type=three$author=hide$comment=hide$rm=hide

Name

about us,2,Best Gazzal,1,bhagwat darshan,3,bhagwatdarshan,2,birthday song,1,computer,37,Computer Science,38,contact us,1,darshan,16,Download,4,General Knowledge,31,Learn Sanskrit,3,medical Science,1,Motivational speach,1,poojan samagri,4,Privacy policy,1,psychology,1,Research techniques,39,solved question paper,3,sooraj krishna shastri,6,Sooraj krishna Shastri's Videos,60,अध्यात्म,200,अनुसन्धान,22,अन्तर्राष्ट्रीय दिवस,4,अभिज्ञान-शाकुन्तलम्,5,अष्टाध्यायी,1,आओ भागवत सीखें,15,आज का समाचार,26,आधुनिक विज्ञान,22,आधुनिक समाज,151,आयुर्वेद,45,आरती,8,ईशावास्योपनिषद्,21,उत्तररामचरितम्,35,उपनिषद्,34,उपन्यासकार,1,ऋग्वेद,16,ऐतिहासिक कहानियां,4,ऐतिहासिक घटनाएं,13,कथा,6,कबीर दास के दोहे,1,करवा चौथ,1,कर्मकाण्ड,122,कादंबरी श्लोक वाचन,1,कादम्बरी,2,काव्य प्रकाश,1,काव्यशास्त्र,32,किरातार्जुनीयम्,3,कृष्ण लीला,2,केनोपनिषद्,10,क्रिसमस डेः इतिहास और परम्परा,9,खगोल विज्ञान,1,गजेन्द्र मोक्ष,1,गीता रहस्य,2,ग्रन्थ संग्रह,1,चाणक्य नीति,1,चार्वाक दर्शन,3,चालीसा,6,जन्मदिन,1,जन्मदिन गीत,1,जीमूतवाहन,1,जैन दर्शन,3,जोक,6,जोक्स संग्रह,5,ज्योतिष,51,तन्त्र साधना,2,दर्शन,35,देवी देवताओं के सहस्रनाम,1,देवी रहस्य,1,धर्मान्तरण,5,धार्मिक स्थल,50,नवग्रह शान्ति,3,नीतिशतक,27,नीतिशतक के श्लोक हिन्दी अनुवाद सहित,7,नीतिशतक संस्कृत पाठ,7,न्याय दर्शन,18,परमहंस वन्दना,3,परमहंस स्वामी,2,पारिभाषिक शब्दावली,1,पाश्चात्य विद्वान,1,पुराण,1,पूजन सामग्री,7,पूजा विधि,1,पौराणिक कथाएँ,64,प्रत्यभिज्ञा दर्शन,1,प्रश्नोत्तरी,28,प्राचीन भारतीय विद्वान्,100,बर्थडे विशेज,5,बाणभट्ट,1,बौद्ध दर्शन,1,भगवान के अवतार,4,भजन कीर्तन,39,भर्तृहरि,18,भविष्य में होने वाले परिवर्तन,11,भागवत,1,भागवत : गहन अनुसंधान,27,भागवत अष्टम स्कन्ध,28,भागवत अष्टम स्कन्ध(हिन्दी),1,भागवत एकादश स्कन्ध,31,भागवत एकादश स्कन्ध(हिन्दी),1,भागवत कथा,134,भागवत कथा में गाए जाने वाले गीत और भजन,7,भागवत की स्तुतियाँ,4,भागवत के पांच प्रमुख गीत,3,भागवत के श्लोकों का छन्दों में रूपांतरण,1,भागवत चतुर्थ स्कन्ध,31,भागवत चतुर्थ स्कन्ध(हिन्दी),1,भागवत तृतीय स्कंध(हिन्दी),9,भागवत तृतीय स्कन्ध,33,भागवत दशम स्कन्ध,91,भागवत दशम स्कन्ध(हिन्दी),1,भागवत द्वादश स्कन्ध,13,भागवत द्वादश स्कन्ध(हिन्दी),1,भागवत द्वितीय स्कन्ध,10,भागवत द्वितीय स्कन्ध(हिन्दी),10,भागवत नवम स्कन्ध,38,भागवत नवम स्कन्ध(हिन्दी),1,भागवत पञ्चम स्कन्ध,26,भागवत पञ्चम स्कन्ध(हिन्दी),1,भागवत पाठ,58,भागवत प्रथम स्कन्ध,22,भागवत प्रथम स्कन्ध(हिन्दी),19,भागवत महात्म्य,3,भागवत माहात्म्य,18,भागवत माहात्म्य स्कन्द पुराण(संस्कृत),2,भागवत माहात्म्य स्कन्द पुराण(हिन्दी),2,भागवत माहात्म्य(संस्कृत),2,भागवत माहात्म्य(हिन्दी),9,भागवत मूल श्लोक वाचन,55,भागवत रहस्य,53,भागवत श्लोक,7,भागवत षष्टम स्कन्ध,19,भागवत षष्ठ स्कन्ध(हिन्दी),1,भागवत सप्तम स्कन्ध,15,भागवत सप्तम स्कन्ध(हिन्दी),1,भागवत साप्ताहिक कथा,9,भागवत सार,34,भारतीय अर्थव्यवस्था,8,भारतीय इतिहास,21,भारतीय दर्शन,4,भारतीय देवी-देवता,8,भारतीय नारियां,2,भारतीय पर्व,48,भारतीय योग,3,भारतीय विज्ञान,37,भारतीय वैज्ञानिक,2,भारतीय संगीत,2,भारतीय सम्राट,1,भारतीय संविधान,1,भारतीय संस्कृति,4,भाषा विज्ञान,15,मनोविज्ञान,4,मन्त्र-पाठ,8,मन्दिरों का परिचय,1,महाकुम्भ 2025,3,महापुरुष,43,महाभारत रहस्य,34,मार्कण्डेय पुराण,1,मुक्तक काव्य,19,यजुर्वेद,3,युगल गीत,1,योग दर्शन,1,रघुवंश-महाकाव्यम्,5,राघवयादवीयम्,1,रामचरितमानस,4,रामचरितमानस की विशिष्ट चौपाइयों का विश्लेषण,126,रामायण के चित्र,19,रामायण रहस्य,65,राष्ट्रीय दिवस,4,राष्ट्रीयगीत,1,रील्स,7,रुद्राभिषेक,1,रोचक कहानियाँ,151,लघुकथा,38,लेख,182,वास्तु शास्त्र,14,वीरसावरकर,1,वेद,3,वेदान्त दर्शन,9,वैदिक कथाएँ,38,वैदिक गणित,2,वैदिक विज्ञान,2,वैदिक संवाद,23,वैदिक संस्कृति,32,वैशेषिक दर्शन,13,वैश्विक पर्व,10,व्रत एवं उपवास,36,शायरी संग्रह,3,शिक्षाप्रद कहानियाँ,119,शिव रहस्य,1,शिव रहस्य.,5,शिवमहापुराण,14,शिशुपालवधम्,2,शुभकामना संदेश,7,श्राद्ध,1,श्रीमद्भगवद्गीता,23,श्रीमद्भागवत महापुराण,17,सनातन धर्म,2,सरकारी नौकरी,1,सरस्वती वन्दना,1,संस्कृत,10,संस्कृत गीतानि,36,संस्कृत बोलना सीखें,13,संस्कृत में अवसर और सम्भावनाएँ,6,संस्कृत व्याकरण,26,संस्कृत साहित्य,13,संस्कृत: एक वैज्ञानिक भाषा,1,संस्कृत:वर्तमान और भविष्य,6,संस्कृतलेखः,2,सांख्य दर्शन,6,साहित्यदर्पण,23,सुभाषितानि,8,सुविचार,5,सूरज कृष्ण शास्त्री,453,सूरदास,1,स्तोत्र पाठ,60,स्वास्थ्य और देखभाल,4,हमारी प्राचीन धरोहर,1,हमारी विरासत,3,हमारी संस्कृति,98,हँसना मना है,6,हिन्दी रचना,33,हिन्दी साहित्य,5,हिन्दू तीर्थ,3,हिन्दू धर्म,2,
ltr
item
भागवत दर्शन: कठोपनिषद प्रथम अध्याय , प्रथम वल्ली
कठोपनिषद प्रथम अध्याय , प्रथम वल्ली
Kath upnishad, Kath upnishad pratham adhyaya, Kath upnishad pratham adhyaya pratham valli, Kath upnishad Sanskrit hindi, Kath upnishad hindi translati
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjcm48srUOEtUeyft1Gm8g4cPTK9PU8ecuZExxAHx5dOjGJbPSuIc_IaU7UfsPYyu4C1y3HO4cqYCWoGzOO5rH6ctBQp2m0dbh2vltLqfvPV1xhj3hFX-Gv6uwCxbLpeoeTB6Ix_nBvBhIouRslHxeK6djlpbNtwyPsv9EnAV_VhRKRdVlmgXVWTS4PlV0/w320-h320/Try%20Magic%20Media%20(2).png
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjcm48srUOEtUeyft1Gm8g4cPTK9PU8ecuZExxAHx5dOjGJbPSuIc_IaU7UfsPYyu4C1y3HO4cqYCWoGzOO5rH6ctBQp2m0dbh2vltLqfvPV1xhj3hFX-Gv6uwCxbLpeoeTB6Ix_nBvBhIouRslHxeK6djlpbNtwyPsv9EnAV_VhRKRdVlmgXVWTS4PlV0/s72-w320-c-h320/Try%20Magic%20Media%20(2).png
भागवत दर्शन
https://www.bhagwatdarshan.com/2023/04/blog-post_87.html
https://www.bhagwatdarshan.com/
https://www.bhagwatdarshan.com/
https://www.bhagwatdarshan.com/2023/04/blog-post_87.html
true
1742123354984581855
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content