कामदा एकादशी,कामदा एकादशी व्रत विधि। कामदा एकादशी की कथा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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   चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को कामदा एकादशी कहा जाता है। कामदा एकादशी हिंदू नववर्ष की पहली एकादशी होती है। कामदा एकादशी भगवान वासुदेव की महिमाको समर्पित है, इस शुभ दिन पर श्री विष्णु की पूजा की जाती है। यह एकादशी व्रत भगवान विष्णु की पूजा के लिए सबसे अच्छा माना जाता है। इस व्रत के प्रभाव से सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं और पापों का नाश होता है। 

  इस एकादशी व्रत के एक दिन पहले यानी दसवें दिन या दशमी को जौ, गेहूं और मूंग आदि को दिन में एक बार भोजन के रूप में सेवन करना चाहिए और भगवान विष्णु का स्मरण करना चाहिए। मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु को प्रसन्न करने के लिए व्रत-पूजा की जाए तो सभी पापों से मुक्ति मिल सकती है। 

कामदा एकादशी व्रत विधि

आपकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण करने वाली कामदा एकादशी की पूजा विधि इस प्रकार है: -

इस दिन स्नान से निवृत्त होकर व्रत का संकल्प लें और भगवान की पूजा करें।  एकादशी व्रत के एक दिन पहले से ही नियमों का पालन शुरू कर देना चाहिए। एकादशी के एक दिन पहले सेब्रह्मचर्य का पालन करें तथा एकादशी को स्नान आदि दैनिक क्रियायों के उपरांत किसी साफ स्थान पर भगवान श्रीविष्णु की प्रतिमा या तस्वीर स्थापित करें। भगवान विष्णु को फूल, फल, तिल, दूध, पंचामृत आदि चीजें चढ़ाएं। अंत में कपूर आरती करें और प्रसाद बांट दें।मन ही मन भगवान विष्णु के मंत्रों का जाप करें। 

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे।

हे नाथ नारायण वासुदेवाय।।

ॐ नारायणाय विद्महे। वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णु प्रचोदयात्।।

ॐ विष्णवे नम:

ॐ नमो नारायण। 

श्री मन नारायण नारायण हरि हरि।

  संभव हो तो विष्णु सहस्त्रनाम का जाप करें। रात्रि में भगवान विष्णु का स्मरण करें और पूजा स्थल के पास जागरण करें। एकादशी के अगले दिन यानी द्वादशी या बारहवें दिन पारण करें। ब्राह्मणों को भोजन करवाकर दक्षिणा सहित विदा करने के बाद ही भोजन करें। 

कामदा एकादशी की कथा 

 यह कथा सर्वप्रथम भगवान श्री कृष्ण ने धर्मराज युधिष्ठिर को सुनाई थी। इससे पहले वशिष्ठ मुनि ने इस व्रत की महिमा राजा दिलीप को सुनाई थी, जो इस प्रकार है ।

  प्राचीन काल में, भोगीपुर शहर में पुंड्रिक नाम का एक राजा शासन करता था। उसके नगर में अनेक अप्सराएं, किन्नर और गंधर्व रहते थे और उनका दरबार इन्हीं लोगों से भरा रहता था। गंधर्व और किन्नर प्रतिदिन गाते थे। ललिता नाम की एक सुंदर अप्सरा थी और उसका पति ललित, एक कुलीन गंधर्व वहां रहता था। दोनों के बीच अपार स्नेह था और वे हमेशा एक-दूसरे की यादों में खोए रहते थे।

  एक समय की बात है जब गंधर्व ललित राजा के दरबार में गा रहे थे,तभी अचानक उन्हें अपनी पत्नी ललिता की याद आ गई और वह अपनी आवाज के स्वर को नियंत्रित नहीं कर सके। 

  यह क्रिया करकट नाम के एक सर्प ने यह देख ली और राजा पुंड्रिक को यह बात बताई। यह सुनकर राजा क्रोधित हो गए और ललित को राक्षस होने का श्राप दे दिया। 

 इसके बाद कई सालों तक ललित दैत्य योनि में घूमता रहा। उसकी पत्नी उसे याद करती रही लेकिन अपने पति को इस हालत में देखकर दुखी हो जाती। 

   कुछ वर्ष बीतने के बाद ललित पत्नी ललिता विंध्य पर्वत पर ऋषि ऋष्यमुक के पास पंहुची और अपने पति की राक्षस योनि से मुक्ति के लिए उपाय पूछने लगी। ऋषि को उन पर दया आई और उन्होंने कामदा एकादशी का व्रत करने को कहा। उनका आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद, गंधर्व-पत्नी अपने स्थान पर लौट आईं और चैत्र नवरात्र के उपरांत पड़ने बाली कामदा एकादशी का व्रत किया इस एकादशी व्रत के प्रभाव से उसके पति को राजा पुण्डरीक के श्राप से मुक्ति मिली और उनका गंधर्व पुनः प्रकट हुआ।


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