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मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥

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  क्रोध, लालच, वासना आदि को वैदिक ग्रंथों में मानस रोग या मानसिक रोग कहा गया है। अर्थात् हम सब शरीर के रोगों से भलीभांति अवगत होते हैं, यहां...

  क्रोध, लालच, वासना आदि को वैदिक ग्रंथों में मानस रोग या मानसिक रोग कहा गया है। अर्थात् हम सब शरीर के रोगों से भलीभांति अवगत होते हैं, यहां तक कि केवल एक शारीरिक रोग में इतनी शक्ति होती है कि वह हमारे पूरे दिन को कष्टदायक बना देता है लेकिन हम यह नहीं जानते कि हम निरंतर बहुसंख्यक मानसिक रोगों से ग्रसित हो रहे हैं और क्योंकि हम वासना, लोभ आदि को मानसिक रोग रूप में स्वीकार नहीं करते और उनका निदान करने का प्रयास नहीं करते।

ध्यायतो विषयान्पुंस: संगस्तेषूपजायते ।

संगात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते॥

विषयों का चिन्तन करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है, आसक्ति से उन विषयों की कामना उत्पन्न होती है और कामना में विघ्न पड़ने से क्रोध उत्पन्न होता है 

 मनोविज्ञान मानव के मन मस्तिष्क को समझने की पद्धति है जिसके द्वारा इन रोगों का विश्लेषण करने के पश्चात इनके उपचार का प्रयास किया जाता है। जब हम कुछ पदार्थों से मिलने वाले सुख का बार-बार चिन्तन करते हैं तब मन उनमें आसक्त हो जाता है। उदाहरण के लिए समझते हैं 

  एक कक्षा में बहुत लड़के और लड़कियाँ पढ़ते हैं। वे एक-दूसरे के साथ निष्कपट भाव से बातचीत करते हैं किन्तु एक लड़का एक लड़की पर मोहित होकर उसके बारे में सोचना आरम्भ कर देता है। "यदि यह मेरी बन जाए, तो मैं बहुत प्रसन्नचित्त रहूँगा।" क्योंकि वह अपने मन में उस लड़की का निरन्तर चिन्तन करता है जिससे उसका मन उसमें आसक्त हो जाता है। वह अपने मित्र को बताता है कि वह उसके प्यार में मतवाला हो गया है और अध्ययन कार्य में उसका मन नहीं लगता क्योंकि उसका मन बार-बार उस लड़की की ओर आकर्षित होता है। उसका मित्र उसकी खिल्ली उड़ाते हुए कहता है कि वे सभी कक्षा में उस लडकी के साथ मिलते-जुलते हैं किन्तु उनमें से कोई भी उसके लिए पागल नहीं हुआ है तब फिर तुम क्यों उसके लिए अपनी रातों की नींद खराब कर रहे हो और अपनी पढ़ाई पर ध्यान नहीं दे रहे हो? 

  वास्तविकता यह है कि वह छात्र बार-बार यह चिन्तन करता है कि उस लड़की में सुख है और इसलिए उसका मन उस पर मोहित हो जाता है। इस प्रकार की आसक्ति या मोह अपने आप में एकदम निष्कपट प्रतीत होता है किन्तु समस्या यह है कि मोह से कामना उत्पन्न होती है। यदि किसी की मदिरापान में आसक्ति है, तब उसके मन में बार-बार मदिरापान करने की इच्छा उत्पन्न होगी। यदि किसी की धूम्रपान में आसक्ति है, तब उसका मन बार-बार धूम्रपान में सुख मानकर धूम्रपान करने के लिए तड़पेगा। 

एहि बिधि सकल जीव जग रोगी।

 सोक हरष भय प्रीति बियोगी॥

इस प्रकार आसक्ति कामना की ओर ले जाती है। एक बार जब कामना उत्पन्न होती है तब दो अन्य समस्याओं का जन्म होता है जो लोभ और क्रोध हैं। कामनाओं को तुष्ट करने से लोभ उत्पन्न होता है। 

जिमि प्रतिलाभ लोभ अधिकाई।।

  यदि हम अपनी कामनाओं की तुष्टि करते हैं तब वे लोभ की ओर ले जाती है। इसलिए कामनाओं को तुष्ट करने से इनका उन्मूलन नहीं होता।

यत् पृथिव्यां व्रीहियवं हिरण्यं पशवः स्त्रियः।

न दुह्यन्ति मन:प्रीतिं पुंसः कामहतस्य ते ।।

  यदि कोई मनुष्य सभी प्रकार की धन, संपदा, ऐश्वर्य और संसार के इंद्रिय भोग-विलास भी प्राप्त कर ले तो भी उसकी कामनाओं की तुष्टि नहीं होगी इसलिए इसे दुखों का कारण मानते हुए बुद्धिमान पुरुष को कामनाओं का त्याग करना चाहिए।

 इसका दूसरा पहलू यह है कि यदि कामनाओं की तुष्टि में कोई बाधा उत्पन्न होती तब क्या होगा?  इससे क्रोध की ज्वाला और अधिक भड़कती है। मन में यह ध्यान रखें कि क्रोध अपने आप उत्पन्न नहीं होता। यह इच्छाओं की पूर्ति में बाधा आने से उत्पन्न होता है और इच्छाएँ आसक्ति उत्पन्न करती हैं और आसक्ति इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करने से उत्पन्न होती है। इस प्रकार से हम देखते हैं कि इन्द्रियों के विषयों के सुख का थोड़ा सा भी चिन्तन हमें लोभ और क्रोध दो प्रकार के मनोविकारों की ओर धकेलता है।

क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।

स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥

  क्रोध निर्णय को बिगाड़ देता है, जैसे सुबह की धुंध सूरज की रोशनी पर एक धुंधला आवरण बनाती है। क्रोध में मनुष्य ऐसी गलतियाँ कर बैठता है जिसका पछताना उसे बाद में पड़ता है, क्योंकि बुद्धि भावनाओं के धुंध से घिर जाती है। लोग कहते हैं, “वह मुझसे बीस साल बड़ा है। मैंने उससे इस तरह बात क्यों की? मुझे क्या हुआ है?" हुआ क्या था कि गुस्से से  judgement of faculty प्रभावित हो गई और इसलिए एक बुजुर्ग को डांटने की गलती हो गई। जब बुद्धि मोहमय हो जाती है, तो यह स्मृति के विस्मय की ओर ले जाती है। व्यक्ति तब भूल जाता है कि क्या सही है और क्या गलत है, और भावनाओं के प्रवाह के साथ बहता है। नीचे की ओर उतरना वहाँ से जारी रहता है, और स्मृति के विस्मय का परिणाम बुद्धि के विनाश में होता है। और चूंकि बुद्धि आंतरिक मार्गदर्शक है, जब यह नष्ट हो जाती है, तो व्यक्ति बर्बाद हो जाता है। इस प्रकार देवत्व से अपवित्रता के अवतरण के मार्ग का वर्णन इन्द्रियविषयों के चिंतन से प्रारंभ कर बुद्धि के नाश तक किया गया है। इससे बचने का उपाय एक ही है  - 

राम कृपाँ नासहिं सब रोगा।

जौं एहि भाँति बनै संजोगा॥

सदगुर बैद बचन बिस्वासा।

संजम यह न बिषय कै आसा॥

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भागवत दर्शन: मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥
मानस रोग कछुक मैं गाए। हहिं सब कें लखि बिरलेन्ह पाए॥
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