पनडेरा, पंडेरा और पानेरा क्या है ? लोक भोजपुरी: चइता के तीन रंग ? कुछ कहता है चैती चौमासा..चैत्र में बारिश के आधार पर अनुमान क...
पनडेरा, पंडेरा और पानेरा क्या है ? लोक भोजपुरी: चइता के तीन रंग ? कुछ कहता है चैती चौमासा..चैत्र में बारिश के आधार पर अनुमान का यह ऋषि ज्ञान ?
ज्येष्ठे मूलाख्यनक्षत्रे शीतकुम्भं प्रदापयेत् ॥
पुराण में यह बात तब कही गई थी जब जेठ के महीना में थोड़ी गरमी होने लगती थी। इसी मक्षिका स्थाने मक्षिका न पकड़े रहो, अब चैत की नवरात में जो घड़ा लेकर आते हो न, उसी की बात हो रही है। चैत में ही घड़ों को देना चाहिये कि नहीं? अच्छा किसी को मत दो.. प्याऊ की व्यवस्था तो देखी होगी न? किस महीने से दिखने लगती है? अच्छा अपने घर में फ्रिज का ठण्ढा पानी कब से पीना शुरू कर देते हो? हैं? तब पुराण ध्यान नहीं आता होगा कि जेठ की पूर्णिमा से फ्रिज का ठण्ढा पानी पीना शुरू करें ! इसी कारण भगवान् ने गीता से कहा था कि शास्त्र से अधिक शास्त्रविधि का पालन करो।
पनडेरा, पंडेरा और पानेरा
घरों में जलस्थान बनाने की परंपरा बड़ी पुरानी है। घट कलश, चरु-चरवी और गंगाजली (लोटा), झारा, गिलास वगैरह इसके अंग रहे। चाणक्य ने पानेरा व पानेरी का जिक्र किया है। प्रपा के महत्व को तो ऋग्वेद में बताया गया है लेकिन वहां इसके रचनात्मक रूप के वर्णन का अभाव है।
हर्षचरित में पौंसले का जो वर्णन है, वह कई अर्थों में रोचक है। कई तरह के कलशों का जिक्र है और पानी को ठंडा रखने के लिए रेत पर गिले कपड़े से ढककर कलश रखने जैसी विधि वही है, जो आज भी हमारे बीच है लेकिन फ्रीज़ ने उस परंपरा को दरकिनार करने में कसर नहीं छोड़ी और घर के वास्तु को बिगाड़ने का भी काम किया।
वास्तु विषयक अनेक ग्रंथों घर में सोलह उपयोगी स्थल बनाने का जो संदर्भ है, वह जलस्थल से आरंभ होता है। इसकी वजह थी कि वरुण स्थान समस्त रचनाओं को संतुलित करता। इससे यह विश्वास भी मजबूत हुआ कि यह देवी की तरह है। इसी कारण पंडेरा को 'पंडेरी' कहा जाने लगा।
ऐसे कई परिवार हैं, जो अपने मूल स्थान की पंडेरी को किसी भी सामूहिक आयोजन में पूजना नहीं भूलते। वंशवर्द्धन पर भी पंडेरी पूजी जाती है। पंडेरी पर कोई कभी पांव नहीं रखता। सिंदूरी त्रिशूल इसे शक्ति स्थल सिद्ध करता है। इसी पर पितृ स्थान, इसके ईशान कोण में देवकोना व आग्नेय कोण में दीप स्थान रखा जाता।
इस तरह घर में पंडेरी से अनेक स्थलों का निर्धारण किया और माना जाता, मगर यह भी रोचक है कि मर्तबान के धोने व पानी के टपकने पर जो कुंडी रखी जाती, उसी से नाबदान या प्रणाल को निश्चित किया जाता। यह विवरण नारद संहिता, वसिष्ठ संहिता में है और ऊंचाई व निम्नता को देशानुसार तय किया गया है। यह विधान शुक्रजन्य मधुमेहादि व्याधि से बचाता लेकिन अब इस परंपरा पर हमारा ध्यान नहीं जाता। रसोई में ही जल स्थान तय कर दिया जाता है। है न पंडेरा से जुड़ी रोचक बातें। कुछ आपके ध्यान में भी होगी। यदि हां तो जरूर बताइयेगा।
लोक भोजपुरी, चइता के तीन रंग
“चैती” पहचान लेना सबसे आसान काम है। इसमें बार-बार “हो रामा” सुनाई दे जाएगा। तो चैती सुनने-सुनाने के बहाने आप अपने आप को आसानी से “शास्त्रीय संगीत” सुनने वाला बुद्धिजीवी घोषित कर सकते हैं। इस किस्म के “बुद्धिजीवी” होने में आम तौर पर “बुद्धिजीवियों” को पड़ने वाली गालियों का खतरा भी नहीं होता। ऐसा इसलिए क्योंकि चैती होली-फागुन की ऋतू में गावों में अक्सर सुनाई दे जायेगी। ये आपको ड्राइंग रूम में बैठा आर्मचेयर इंटलेक्चुअल नहीं बल्कि जमीन से जुड़ा बौद्धिक बना देता है।
अब पहचानने का आसान तरीका यानि “हो रामा” समझ में आ गया हो तो बता दें कि इसके भी तीन प्रकार होते हैं – चैती, चैता और घाटो। ये थोड़ा ध्यान से सुनने पर समझ में आ जायेगा। अब आप शायद सोच रहे हैं कि इसमें बार-बार “हो रामा” क्यों आता है? तो चैत्र मास (मार्च-अप्रैल) में रामनवमी आती है। भारतीय लोक-परम्पराओं में राम के बिना कोई काम नहीं होता, इसलिए लोक गीतों की चैती में “हो रामा” आ ही जाता है। इस मास को और भी गीतों की किस्मों के लिए जाना जाता है, जैसे – कजरी या होरी लेकिन उनके बारे में फिर कभी।
फागुन रेचक है। वास्तविक मधुउत्सव तो चैत्र में होता है। नौ दिन नवदुर्गा अनुष्ठान, जन जन में रमते राम का नवजन्म नये संवत्सर में। नवान्न दे पुनः प्रवृत्त होती धरा का स्वेद सिंचन, धूप में सँवरायी गोरी का पिया को आह्वान - गहना गढ़ा दो न, बखार तो सोने से भर ही गयी है!
चैत में शृंगार का परिपाक होता है। गेहूँ कटता है, रोटी की आस बँधती है, मधुमास भिन्न भिन्न अनुभूतियाँ ला रहा होता है एवं ऐसे में उस राम का जन्म होता है जो आगे चल कर मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाये किंतु उनके जन्मोत्सव में जो भिन्न भिन्न पृष्ठभूमियों के लोकगायकों एवं नर्तकों की हर्षाभिव्यक्ति होती है, उसमें उल्लास स्वर नागर शास्त्रीयता तथा अभिरुचि की मर्यादाओं को तोड़ता दिखता है। इसमें गाये जाने वाले चइता चइती की टेर अरे रामा, हो रामा होती है।
चइता पुरुष गान है। पूरी प्रस्तावना के साथ गान होता है। प्रकृति भी आने वाले के स्वागत में है, रसाल फल गए हैं, महुवा मधुवा गए हैं, पवन कभी लहराता है तो कभी सिहराता है। घर में नया अन्न आ गया है, पूजन हो रहा है, मंगल गान है, क्रीड़ा है। मस्ती भरे वातावरण में राम जी जन्म लेते हैं! ढोल की ढमढम के साथ बधाई गीतों की धूम है।
चैत माह रबी फसल का माह है। महीनों के श्रम के फल के घर पहुँचने का माह है। ऐसे में कृषि प्रधान लोक में उत्सव न हो, हो ही नहीं सकता! प्रकृति भी ऐसे में नवरसा जाती है। पेंड़ पौधों से लेकर मनुष्यों तक सबमें नवरस का संचार होने लगता है, वायु दिशा बदल देती है, शुष्क हो जाती है। देह में मीठा मीठा दर्द उभर आता है और मन? फागुन में वसंतोत्सव मना कर नेह बन्धनों को प्रगाढ़ कर चुका मन अब फल चखने की तैयारी में लग जाता है। इच्छायें गर्भिणी हो जाती हैं। बागीचों के आम बौरा चुके होते हैं। ऐसे में आती है रामनवमी। ‘राम जी की दुनिया राम जी के खेल’ मानने वाली कृषि संस्कृति तो नमक को भी रामरस कहती आई है! उनके जन्म के बहाने फसल के घर आने का उत्सव आयोजन क्यों न हो जाय!
रामनवमी की रात का पूजन नये गेहूँ या जौ की बनाई पूरियों और हलवा से होता है। कुछ तो जेनेटिक हस्तक्षेप और कुछ ऋतुचक्र की विचलन – अब गेहूँ बैसाख में ही हो पाता है लेकिन पकती हुई बालियों से नया अन्न निकाल कर पुराने में मिला नया पुरान पूजन कर लिया जाता है। मकर संक्रांति से प्रारम्भ हुये अन्न उत्सव का समाहार नये अन्न से बनी नवमी की नौ रोटियों से होता है:
खिचड़ी के खीच खाच, फगुआ के बरी
नवमी के नौ रोटी, तब्बे पेट भरी।
संक्रांति पर्व के मिश्रित अन्न, होली की बड़ी और नवमी की नौ रोटियों के बिना पेट कैसे भर सकता है भला? अब जो ढोल झाल निकलते हैं, उनमें जो उत्साह दिखता है उसका रंग कुछ और ही होता है। चैत माह में चैता, चैती और घोटा गाये जाते हैं। इन्हें अर्धशास्त्रीय पद्धतियों में भी गाया जाता है लेकिन मैं यहाँ लोकरूप ही प्रस्तुत करूँगा।
इन गीतों के बोलों में प्राय: मिलन के पंचम स्वर बोलती कोयल का घर उजाड़ने की बात होती है। कोयल जो अपना घर नहीं बनाती, लोक में घरवाली हो जाती है जिसकी बोली सुन कर या तो सइयाँ सेज छोड़ कर खेत की ओर चल देता है और मिलन पूर्णता नहीं पा पाता या कोयल के स्वर में एक विरहन का आलाप माना जाता है जो कि एकदम नहीं सुहाता। वक्रोक्ति या उलटे ढंग से बात कहने की लोकशैली के दर्शन चैत माह के गीतों में होते हैं। नागर लोग भले कोयल की बोली को सर्वदा वांछित मानते रहें, गाँव की कोइलर तो घरनी सी है जिसकी मधुरता कभी कभी अति मीठेपन के कारण ही नहीं सुहाती। अरे भाई! यह मौसम तो टटका टिकोरे की खटाई, मजूरे से तिताई और पसीने की लुनाई का मौसम है, इसमें मिठाई का क्या काम? तब जब कि समूची सृष्टि ही नवरस से प्रफुल्लित होती है, बगीची तक ‘लरकोर’ यानि संतानवती हो जाती है; प्रिय मिलन की मादक इच्छा की अभिव्यक्ति होने लगती है। पैर नृत्य में अपने आप ही थिरक उठते हैं।
चैता या चइता मुझे पुरुषराग लगता है जिसकी संगी स्त्रीरागधारी चैती है। किसान बदलते मौसम, बड़े होते और उजास उड़ेलते दिन, फलवती होती बगिया – सबका अनुभव करता है और उसे लगता है जैसे अन्धेरे में प्रकाश टपकने लगा हो! प्रीत की डोर लगा मन पतंग हो उड़ उड़ आसमान छूने लगता है।
हरपुर नवका टोला के केदार की टोली तो सजनी के सजने के उत्साह को खेत, बारी, हल, बैल सब बेंच कर गहना गढ़ाने की बात कह बयाँ करती है। सँवरने की स्त्री इच्छा पति के स्वरों में ग़जब ढंग से अभिव्यक्ति पाती है। सजनी को साजन से इतना प्यार चाहिये और साजन को भी इतना प्यार उड़ेलना है कि अयुक्ति की इंतहाँ हो जाय! जिन हल, बैल, खेतों के कारण उत्सव मनाने लायक अन्न घर में आया, उन्हें ही बेंच कर इस चैत महीने गहना गढ़ा दो! और तो और यह घर ही बेंच दो जिसकी मैं घरनी हूँ!! अब क्या कहें ऐसी इच्छा पर!
कुछ कहता है चैती चौमासा..
यदि चैत्र का महीना लगते ही बारिश हो गई। कहीं कम, कहीं ज्यादा और कहीं तो अंधड़ में ओले-ओले हो। पकी-पकाई फसल की मूंछे नोच गई है ये बारिश...। सोचिए, ये क्यों हुआ, ये तो मौसम विज्ञान वाले ही जाने और क्या हुआ ये हम देख ही रहे हैं मगर क्या होगा ये उन किसानों को मालूम है जिनके चेहरे पर मुस्कान के बीच फसल के मोल-भाव तक तय हो रहे थे मगर पानी ने बालियों के पेट में पड़े गेहूं को भी भीगोकर कंपा दिया हो...।
हां, मुझे 'वृष्टिविज्ञान' और 'कृषि पराशर' ग्रंथों की याद आ गई। उस जमाने में भी चैत्र में बारिश होती रही होगी और इसी बारिश से वे आने वाले मौसम को देखते रहे होंगे... और ऐसी स्मृतियों के आधार पर ही मौसम का अनुमान लिया गया होगा। ऐसे ही योग भोजराजकृत मेघमाला, घाघ भड़डरी, डाक वचनार आदि में भी लिखे गए हैं...। इस मास में महीना, वार और तिथि को समान फलदायक कहा गया है : अथान्त्यत् प्रवक्ष्यामि फलं योगं समुद्भवम्। मास वार तिथीनां च समं ज्ञान प्रकाशनम्।। अपने आसपास कब और किस योग में बारिश हुई है, हमारे पुरातन ज्ञान के आधार को यहां देखकर आप स्वयं अनुमान लगा लीजिएगा ।
नारद अपने मयूर चित्रकम् या वृष्टि विज्ञान में कहते हैं : यदि चैत्र मास में प्रतिपदा को सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार हो तो पावस काल में बारिश खूब होती है, खूब सस्य का योग होता है किंतु प्रतिपदा को शनिवार व मंगलवार हो तो चारा तक नहीं हो पाता, शासकों के बीच भी क्लेश होता है। कृष्ण पक्ष में पंचमी व बुधवार को मंगल यदि वक्री हो तो तैलीय पदार्थ महंगे होते हैं। अनाज भी महंगाई का रुख करता है। यदि शुक्ल पक्ष की पंचमी को बारिश हो जाए तो पावस काम में मेघ कम ही जल बरसाते हैं। इसी प्रकार यदि कृष्ण पक्ष में तिथि बढ़ जाए व शुक्ल पक्ष में घटती हों तो अन्न का संकट होता है, मगर इस बार विपरीत योग बना है। कृष्ण पक्ष में तिथि कम हुई है, 10 व 11 एक साथ आ रही है... हां, पराशर के श्लोकों का अनुवाद करने की जरूरत नहीं क्योंकि पढ़कर स्वयं ही सोचियेगा ।
अवनि तनय वारे वारिवृष्टिर्न सम्यग्
बुध गुरु भृगुजानां शस्य सम्पत् प्रमोद:।
जलनिधिरपि शोषं याति वारे च शौरे-
र्भवति खलु धरित्री धूलिजालैरदृश्या।।
चैत्राद्यभागै चित्रायां भवेच्च चित्तला क्षिति:।
शेषे नीचैर्न वात्यर्थं क्ष्मामध्ये बहुवर्षिणी।।
मूलस्यादौ यमस्यान्ते चैत्रे वायुरहर्निशम्।
आर्द्रादीनि च ऋक्षाणि वृष्टिहेतोर्विशोधयेत्।। (कृषि पराशर 45-47)
चैत्र में बारिश के आधार पर अनुमान का यह ऋषि ज्ञान आपके सम्मुख है.. सोचियेगा और चैत्रीय विक्रम संवत्सर के अनुसार योजनाएं बना लीजिएगा,,, जय जय।
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