तीन संतों का आविर्भाव

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 रूस के महापुरोहित को पता चला कि एक झील के पार, पहाड़ों के पीछे छिपे, तीन संतों का आविर्भाव हुआ है। और लोग भागे जा रहे हैं। गरीब ग्रामीणों में बड़ी प्रतिष्ठा है। भोले-भाले लोग भगवान की तरह पूजा कर रहे हैं उन संतों की। यह महापुरोहित को बरदाश्त न हुआ।

पुरोहित को संत कभी बरदाश्त नहीं होते। क्योंकि संत की मौजूदगी, पुरोहित का धंधा टूटता है। संत सभी तरह की औपचारिकता के विरोध में है। संत यानी एक बगावत, एक विद्रोह। संत कभी भी गैर-बगावती नहीं हो सकता--सिर्फ विनोबा भावे को छोड़ कर। वे सरकारी संत हैं--अगर सरकारी संत कोई हो सकता है। संत तो विद्रोही ही होगा। सरकार और समाज और व्यवस्था हमेशा उससे अड़चन में होगी।

पुरोहित घबड़ाया। और फिर उसने कहा कि यह बात समझ में नहीं आती। मेरी बिना स्वीकृति के कोई संत कैसे हो सकता है?

ईसाइयत ने तो हद मूढ़ता कर दी। वे संतत्व के लिए सर्टिफिकेट देते हैं चर्च से। वस्तुतः अंग्रेजी में जो संत है, सेंट, वह एक यूनानी शब्द से बनता है, जिसका अर्थ होता है सैंकटस। जिसको सैंक्शन मिल गया, वह संत। जिसको अधिकारियों के द्वारा स्वीकृति मिल गई, प्रमाणपत्र मिल गया, वह संत।

पुरोहित नाराज हुआ कि मेरी बिना आज्ञा के? क्योंकि फरमान निकाले जाते हैं ईसाइयत में हर साल कि कितने संत हो गए! फरमान में नाम होते हैं। इनका नाम तो निकला भी नहीं है। मगर खबरें रोज आती गईं, भीड़ बढ़ती गई। शहरों से लोग जाने लगे, चर्चों में लोगों का आना कम हो गया। संतों ने दीवानगी पैदा कर दी। आखिर पुरोहित को भी जाना पड़ा। देखना तो चाहिए!

वह गया अपनी मोटर बोट पर बैठ कर। सीधे-सादे लोग थे, उसको देख कर खड़े हो गए। उसका चोगा, उसके चमकते हुए सोने के सितारे, छाती पर लगे हुए सम्राटों के द्वारा दी गई स्वीकृतियां सम्मान--उसका ढंग प्रभावशाली था।

जिनके भीतर कुछ नहीं होता, वे प्रभावशाली ढंग पैदा कर लेते हैं। जिनके भीतर आत्मा राख की तरह होती है, ज्योति की तरह नहीं, वे पद्मभूषण, भारतभूषण, भारतरत्न और न मालूम क्या-क्या पद-पदवियां इकट्ठी कर लेते हैं।

देख कर तीनों संत खड़े हो गए। तीनों ने झुक कर उसे प्रणाम किया।

संत तो सदा ही झुकने को तैयार है। उसने झुकने की मौज, झुकने का मजा, झुकने की मस्ती जान ली। वह झुकने का राज पकड़ गया है।

पुरोहित पहले तो मन में डरा था कि पता नहीं ये बगावती संत झुकें न झुकें। राजी हों, न राजी हों। लेकिन ये तो सीधे-सादे गांव के किसान थे। इन पर कब्जा करना तो कठिन ही न था। उसने जोर से कड़क आवाज में कहा कि तुमने यह क्या उपद्रव मचा रखा है? यह इतनी भीड़-भाड़ यहां क्यों आ रही है?

उन तीनों ने कहा कि हमने कुछ भी नहीं किया। हमने किसी को बुलाया भी नहीं। सच तो यह है कि लोगों के आने से हमारी प्रार्थना में बड़ी बाधा पड़ रही है। आपकी बड़ी कृपा होगी, आप लोगों को रोक दें। हम बड़े मजे में थे वर्षों तक, कोई जानता न था। यह झील थी, यह पहाड़ था, हम थे। बड़ा मजा था। अब यह भीड़-भड़क्के से हम बड़े परेशान हो रहे हैं। आपकी बड़ी कृपा होगी। और हम कोई संत वगैरह नहीं हैं। मगर हम कितना ही कहें, लोग मानते ही नहीं। जितना हम कहते हैं कि हम नहीं हैं, उतनी भीड़ बढ़ती जा रही है।

महापुरोहित स्वस्थ हुआ। उसने कहा, कोई चिंता के योग्य नहीं हैं। ये तो बड़े साधारण से लोग हैं। उनको कहा, प्रार्थना में बाधा पड़ती थी? क्या प्रार्थना करते थे?

तो वे तीनों जरा शर्माए। उन्होंने कहा कि अब आप यह मत पूछो। क्योंकि हम बेपढ़े-लिखे हैं; प्रार्थना करना हमें आता नहीं। और हमने किसी से प्रार्थना सीखी भी नहीं है। हम बिलकुल गंवार हैं। आप इसमें पक्के रहो। और हमने अपनी ही एक प्रार्थना बना ली है।

तब तो पुरोहित और नाराज हुआ कि यह भी कभी तुमने सुना कि प्रार्थना और हर कोई बना ले? चर्च की प्रार्थना सुनिश्चित है। तुम ईसाई हो?

उन्होंने कहा कि निश्चित।

तो तुमने कैसी प्रार्थना बनाई है बिना आज्ञा के? तुम अपनी प्रार्थना का रूप बताओ।

वे बड़े शर्माने लगे। निश्चित ही, प्रार्थना कोई किसी को बता सकता है? प्रार्थना तो हार्दिक है, निजी है, एकांत की है। प्रार्थना किसी को बताना तो ऐसे ही होगा, जैसे कि बीच बाजार में खड़े होकर किसी को प्रेम करने लगना। वह बात बेहूदी होगी, अशोभन होगी। प्रेम तो एकांत चाहता है। प्रार्थना तो और भी एकांत चाहती है। कानों-कान किसी को खबर न होनी चाहिए उसकी।

तो वे कहने लगे, अब आप यह मत पूछें। आप पूछते हैं तो बताना पड़ेगा। लेकिन हम कुछ जानते नहीं, ऐसी ही हमने एक घरेलू ढंग की प्रार्थना बना ली है। और आप हंसेंगे और हमारी बड़ी मजाक होगी। परमात्मा तो झेल लेता है, क्योंकि जानता है--हम नासमझ, अज्ञानी, अपराधी। मगर ये संसार के लोग बहुत हंसेंगे।

पुरोहित तो और अकड़ गया। उसने कहा, बतानी ही पड़ेगी। क्योंकि अगर गलत है, तो मैं सुधार कर दूंगा। अगर बिलकुल गलत है, तो तुम्हें ठीक-ठीक प्रार्थना--स्वीकृत चर्च के द्वारा--वह मैं तुम्हें दे दूंगा। तुम बोलो!

तो वह नहीं माना तो वे बोले। उन्होंने एक छोटी सी प्रार्थना बना ली थी। ईसाइयत मानती है कि परमात्मा के तीन रूप हैं। जैसा कि हिंदू मानते हैं त्रिमूर्ति; ऐसा ही ईसाई मानते हैं ट्रिनिटी। तो उन तीनों ने कहा, हमने एक छोटी सी प्रार्थना बना ली है कि तुम भी तीन हो, हम भी तीन हैं, हम पर कृपा करो। अब यह भी कोई प्रार्थना हुई! यह तो मजाक हो गई। तुम भी तीन, हम भी तीन--वे भी तीन ही थे--अब और ज्यादा क्या कहना? तुम भी तीन हो और हम भी तीन हैं, बात बन गई। अब तुम हम पर कृपा करो। और तो कुछ कहने को ज्यादा इससे है भी नहीं।

पुरोहित को भी हंसी आ गई। गंभीरता टूट गई। उसने कहा, हद नासमझ हो तुम लोग। अब दुबारा यह मत करना। यह कोई प्रार्थना हुई!

उसने लंबी प्रार्थना, जो चर्च की स्वीकृत प्रार्थना थी, उनको कही। सुनी उन्होंने बड़े भाव से। पर कहा, बहुत लंबी है, हम भूल जाएंगे। आप फिर एक दफा कह दो। फिर उसने कही। फिर भी वे बोले कि कृपा होगी बड़ी, एक दफा और दोहरा दो। क्योंकि हमें याद हो जाए। कहीं कोई शब्द भूल गए, या गड़बड़ हो गई, तो हम फंसेंगे। अभी तक जो भूल हुई, हुई; अब आगे तो न हो। तो तीन बार पुरोहित ने कहा। उसने कहा, ये तो बिलकुल महामूढ़ हैं। प्रार्थना को भी तीन दफे कहना पड़ रहा है। बिलकुल ठीक व्यवस्थित करके सब, बड़ा प्रसन्न होकर कि तीन भटकों को मार्ग पर ले आया...

सिर्फ मूढ़ ही भटकों को मार्ग पर लाने का खयाल रखते हैं। सिर्फ मूढ़ ही सोचते हैं कि लोग भटक रहे हैं, उनको मार्ग पर लाना है। 

लेकिन पुरोहित अकड़ा हुआ, प्रसन्न चित्त, कि आना व्यर्थ न हुआ। यात्रा सार्थक हुई। अब यह उपद्रव बंद हुआ। जाकर कह देगा कि ये भी कोई संत हैं! ये तो गांव के गंवार हैं।

लेकिन पुरोहित जब मध्य झील में था और बड़े प्रसन्न मन से लौट रहा था, एक बड़ा काम करके। उस प्रार्थना को तीन संतों को सिखा कर लौट रहा था, जिसको करना वह खुद भी नहीं जानता है। जो उसने कभी नहीं की। शब्द दोहराए हैं, कंठस्थ हैं। काश, प्रार्थना शब्दों में होती! बड़ा सरल हो जाता। बीच झील में था कि घबड़ा कर उसने देखा: पीछे एक तूफान की तरह कुछ आ रहा है। समझ में न आया; नाविक भी समझ न पाए कि ऐसा कभी देखा नहीं, इस झील में ऐसा कभी होता नहीं। यह क्या हो रहा है? जब थोड़ा तूफान पास आता मालूम पड़ा, तब उसे दिखाई पड़ा कि वे तीनों संत--गंवार--झील पर भागते हुए चले आ रहे हैं। डूबते नहीं पानी में। पानी पर ऐसे चल रहे हैं जैसे रास्ता हो।

तीनों आकर पास खड़े हो गए। हाथ जोड़ कर कहा कि रुकिए, हम भूल गए वह प्रार्थना। आप कृपा करके एक बार और बता दें!

तब उस पुरोहित की भी आंख खुल गई। अंधों की भी कभी खुल जाती है। 

यह देख कर महिमावान रूप उसे समझ में आया कि मूढ़ कौन है। ये गंवार हैं या मैं गंवार हूं! इस बार वह झुका उनके चरणों में। उसने कहा, मुझे माफ कर दो। तुम्हारी प्रार्थना पुरानी ही ठीक है। हमारी स्वीकृति की जरूरत नहीं। उसकी स्वीकृति मिल चुकी है, ऐसा लगता है। हम कौन हैं? बीच के दुकानदार हैं। तुम्हारा उससे सीधा संबंध हो गया, तुम हमें भूल जाओ। और हमारे लिए भी प्रार्थना करना! जब तुम अब कहो कि तुम तीन हो, हम तीन हैं; तो अब कहना, तुम तीन हो, हम चार हैं--मुझे भी जोड़ लेना-

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