धार्मिक क्रियाओं की बाढ़ क्यों ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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जब जब होई धरम की हानी।

बारहि असुर अधम अभिमानी॥

तब तक धर प्रभू विविध शरीरा।

हरहि दयानिधि सच्जन पीड़ा॥

  जब जब इस धरती पर धर्म की हानि होगी, असुरों और अधर्मियों का अन्याय धरती पर बढ़ जाएगा. तब तब प्रभु अलग अलग रूपों में अवतार लेकर धरती पर आयेंगे, और संज्जनों और साधु संतों को उन अधर्मियों के अन्याय से मुक्ति दिलाएंगे. ये रामचरितमानस की वो चौपाई है, जिसमें सम्पूर्ण युगों और कालखंडों का सार है। मानवजाति के लिए ये एक सम्पूर्ण बात है।

करहिं अनीति जाइ नहिं बरनी।

सीदहिं बिप्र धेनु सुर धरनी॥

और वे ऐसा अन्याय करते हैं कि जिसका वर्णन नहीं हो सकता तथा ब्राह्मण, गो, देवता और पृथ्वी कष्ट पाते हैं, तब-तब वे कृपानिधान प्रभु भाँति-भाँति के (दिव्य) शरीर धारण कर सज्जनों की पीड़ा हरते हैं।

  कलयुग में भगवान विष्णु के 24 वें अवतार के बारे में कहा जाता है कि‘कल्कि अवतार’के रूप में उनका आना सुनिश्चित है।

उनके 23 अवतार अब तक पृथ्वी पर अवतरित हो चुके हैं। इन 24 अवतार में से 10 अवतार विष्णु जी के मुख्य अवतार माने जाते हैं। यह है मत्स्य , कूर्म , वराह , नृसिंह , वामन , परशुराम , राम . कृष्ण , बुद्ध , कल्कि ।

अन्य अवतरण में श्री सनकादि मुनि , नारद अवतार , नर-नारायण,कपिल मुनि , दत्तात्रेय , यज्ञ , भगवान ऋषभदेव , आदिराज पृथु , भगवान धन्वन्तरि , मोहिनी अवतार ,भगवान नृसिंह , श्रीहरि अवतार , हयग्रीव अवतार , महर्षि वेदव्यास , हंस अवतार आदि भगवान के अवतार माने जाते हैं ।

  लेकिन वर्तमान परिदृश्य में इस कलियुग में शायद ही प्रभु को यह काम करना पड़े। क्योंकि यातायात और संचार के बढ़ते साधन ने लोगों को इतनी आर्थिक मजबूती दे दी है कि लोगों का ध्यान अब धरम-करम पर अधिकाधिक होने लगा है। इधर तीन दशकों में हर धर्म का विकास बड़ी तेजी से हुआ है। धार्मिक क्रियाकलापों की बाढ़-सी आ गई है। इष्टदेव भले ही अलग हो लेकिन ध्येय सबका एक ही होता है भूल से भी किये पापों से निजात पाना। पूजा-पाठ के ढंग अलग-अलग जरूर है लेकिन लक्ष्य एक ही अपने ईश्वर को प्रसन्न करके अपने मनोवांछित फलों की पूर्ति हेतु तथास्तु प्राप्त करना।

  यदि आप धर्म की रक्षा करते हैं तो धर्म भी आपकी आगे आकर रक्षा करता है। जो मनुष्य धर्म की रक्षा नहीं कर पाता वह निर्लज्य और मनुष्य हीन मानवता विहीन कहा जाता है। हर मनुष्य की पहचान उसका धर्म होता है और धर्म किसी जाति पर आधारित नहीं होता बल्कि धर्म मानवता का होता है मानवता का धर्म निभाने में असमर्थ होता है तो वह मनुष्य योनि में जन्म लेने के योग्य या हकदार नहीं होता।

  ईश्वर ने हमें पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ दी है तो पाँच कर्मेन्द्रियाँ भी दी है। ज्ञानेन्द्रियों से प्राप्त ज्ञान के उद्दीपन से कर्मेन्द्रियाँ अपने अपने कर्मों में लगती हैं। केवल अच्छा सुनने से, केवल किसी मूर्ति या व्यक्ति को देखने से, केवल किसी खुशबू को सूँघने से , केवल सत्संग के वचन सुनने से तथा केवल पवित्र नदियों में स्नान करने से मोक्ष की प्राप्ति असम्भव है। पांचो ज्ञानेद्रियों को सद्ज्ञान प्राप्त करने में लगाओ और पांचो कर्मेन्द्रियों को निर्धारित कर्तव्यों के कर्म में लगाओ तो मुक्ति के द्वार खुल सकते हैं। भगवान कृष्ण ने ये भी बताया हैं कि कौन लोग किस तरह भक्त जन्म मरण के चक्र से छूट जाते हैं -

मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमषाश्वतम्।

नाप्नुवन्ति महात्मनः संसिद्धिं परमानगताः ॥

परम् सिद्धि कौ प्राप्त महात्मा मुझे प्राप्त होकर दुखो के घर और पुनर्जन्म से मुक्त हो जाते हैं -

आब्रह्मभुवनाल्लोका पुनरावर्तिनो अर्जुन।

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥

अर्थात् ब्रह्मलोक तक सभी लोकों में लोग आते जाते रहते हैं लेकिन जो मुझे प्राप्त होते हैं उनका पुनर्जन्म नहीं होता।भगवान ने ये भी बताया हैं कि सब कुछ में ही हूं और पुरा जगत मुझसे ही हैं, सबसे में हूं, मुझमे ही सब हैं।

समोऽहं सर्वभूतेषु न मे द्वेष्योस्ति न प्रियः।

ये भजन्ति तु मां भक्त्या मयि तेषु चाप्यहम् ॥

भगवान का दिव्य रूप देखकर अर्जुन यह मान गया कि आप ही सब कुछ हैं और पुरा जगत आप मे ही व्याप्त हैं

त्वमादिदेव पुरुषः पुराणः 

त्वमस्य विश्वस्य परमनिधानम्।

वेत्तासिवेद्यं च परं च धाम 

त्वया ततं विश्वमनन्तरूप॥

अतः भगवान ने कर्म करने का अधिकार, पूरी श्रद्धा और लग्न से, भगवान को स्वयं को समर्पित करके, विना कर्म में लिप्त हुए, फल कि इच्छा के बिना कर्म करने का अधिकार भक्त को दिया।

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