कुछ लोगों के प्रश्न होते हैं कि बौद्वमतप्रवर्तक बुद्धदेव भगवान के नवें अवतार माने जाते हैं, हर एक संकल्प के देश-कालसंकीर्त्तन में ‘‘बौद्...
कुछ लोगों के प्रश्न होते हैं कि बौद्वमतप्रवर्तक बुद्धदेव भगवान के नवें अवतार माने जाते हैं, हर एक संकल्प के देश-कालसंकीर्त्तन में ‘‘बौद्धावतारे’’ पढ़ जाता है, फिर उनसे प्रतिष्ठापित धर्म अधर्म कैसे हो सकता है ?
‘‘कुछ लोग यह भी कहने लगते हैं कि बुद्ध ने वेदों और वैदिक धर्म का खण्डन नहीं किया, किन्तु वैदिक धर्म में फैले हुए पाखण्डों का खण्डन किया है। आगे चलकर बौद्ध धर्म में अनाचार फैल जाने से भगवान ने ही श्री शंकराचार्य रूप से अवतीर्ण होकर उसे दूर किया। इस पर वैदिको का कहना है कि अवश्य ही बुद्ध भगवान के अवतार थे। परन्तु जिन पुराणों में बुद्धावतार वर्णन है, वहीं उसका प्रयोजन भी कहा गया है।
यह ठीक है कि गीता के कथनानुसार भगवान का अवतार धर्मग्लानि एवं अधर्माभ्युत्थान को मिटाने और धर्मसस्थापन के ही लिये होता है।
"यदा यदा हि धर्मस्यग्लानिर्भवति"
इसी दृष्टि से बुद्धावतार का भी यह प्रयोजन अवश्य होना चाहिये। यहाँ यह समझ लेना चहिये कि जैसे वैदिक धर्म में अधिकारियों की प्रवृत्ति न होना दोष है, वैसे ही अनधिकारियों की प्रवृत्ति होना भी दूषण ही है और जैसे अधिकारियों को कर्मों में प्रवृत्त करना आवश्यक है, वैसे ही अनधिकारियों की निवृत्ति भी आवश्यक है। ये दोनों की कर्म दुष्कर हैं।
आज जो पुराणश्रवण और मन्दिर-शिखरदर्शन से ही कृतकृत हो सकते हैं वे ही नव्य लोगों के बहकाने में आकर शास्त्रमर्यादा के विपरीत वेदाध्ययन तथा मन्दिर-प्रवेश चाहते हैं और हितैषियों के समझाने से भी नहीं मानते हैं।
किसी समय ठीक ऐसी स्थिति हो गयी थी। वेदाध्ययन तथा तदुक्त अग्निहोत्रादि कर्म के अनधिकारी देवताओं का अभिनव करने की दृष्टि से इन कर्मों में प्रवत्त हो गये और यज्ञ-व्याज से पशुवध तथा सुरापान का विस्तार करने लगे। शास्त्रों में यज्ञ के अंगरूप से यद्यपि पशुवध अनुमोदित है तथापि यज्ञ-व्याज से उदर-पोषणा पशुवध पाप ही है। इस तरह धर्म की ओट में अधर्म का प्रचार होने लगा। उस समय किसी के समझाने बुझाने से भी उनकी उन कर्मों से निवृत्ति असम्भव थी। ऐसी स्थिति में उन्हे उन कर्मों से निवृत्त करने के लिये भगवान को श्रद्धेय बनकर प्रकट होने की आवश्यकता प्रतीत हुर्इ बस, इसीलिए बुद्धावतार हुआ।
बुद्धदेव महाविरक्त और सिद्ध थे। उन्होंने अपने चमत्कारों से उन असुर-स्वभाव वालो के मनों को मोहित कर लिया, फिर वेदों और वेदोक्त धर्मों से उनकी अश्रद्धा उत्पन्न कर दी। जब बुद्धदेव में ऐेसे लोगों की पूर्ण श्रद्धा उत्पन्न हो गयी, तब उन्होंने जो कुछ भी कहा उस पर उन लोगों ने पूर्ण विश्वास किया। बस, वे भी वेद और वेदोक्त धर्म की निन्दा करने लगे। जो किसी समझाने से भी असम्भव था वह सरल हो गया इस कार्य के सम्पन्न हो जाने पर बुद्धदेव ने उस रूप से फिर दूसरी बात कहना अनुचित समझा।
बाद में जब बुद्ध के चमत्कार के प्रभाव से धर्माधिकारियों को भी अपने धर्म से अश्रद्धा होने लगी, तब फिर भगवान को अवतार ग्रहण की आवश्यकता प्रतीत हुई। अतः वेद एवं तदुक्त धर्मों में श्रद्धा स्थिर करने के लिये भगवान फिर शंकराचार्य रूप में प्रकट हुए और बौद्धमत-खण्डन करके वैदिक धर्म की स्थापना की।
इस तरह दोनों ही अवतारों की सार्थकता हो जाती है। वैदिकगण जैसे भगवान को अनादि मानते हैं, वैसे ही वेदों का भी। अत: ‘नास्तिको वेदनिन्दकः’ के आधार पर वेदनिन्दक को ही नास्तिक कहा जाता है।
तुलसीदास जी ने भी कहा है कि-
‘‘जो कोई दूषहिं श्रुति करि तर्क ।
परहिं ते कोटि कल्प भरि नर्क ।।
अत: आस्तिक लोग भगवान से भी अधिक सम्मान वेदों का करते हैं। नैयायिक आदि परमेश्वर-निर्मित होने से वेदों का प्रामाण्य हैं। परन्तु, वेदान्तियों का कहना है कि यदि परमेश्वरनिर्मित होने से वेदों को प्रामाण्य है तो यह कहना होगा कि परमेश्वर में क्या प्रमाण है?
यदि वेद को प्रमाण कहें, तब तो ‘अन्योऽन्याश्रयदोष’ अवश्य होगा अर्थात वेद के आधार पर ईश्वर सिद्धि और ईश्वर-निर्मित होने से वेदप्रमाण्यसिद्धि।
कहा जा सकता है कि ‘क्षित्यड्कुरादिकं सकत्तर्तृ कं कार्यत्वात् धटवत्’ इत्यादि अनुमानो से परमेश्वर की सिद्धि होगी और ईश्वरनिर्मित होने से वेदों का प्रामाण्य सिद्ध होगा। पर यह पक्ष भी ठीक नहीं है; क्योंकि अनुमान से ईश्वर सामान्य की ही सिद्धि होती है, ईश्वर विशेष की नहीं, जैसे धूम से वह्नि सामान्य की ही सिद्धि होती है वह्निविशेष की नहीं।
अनुमानसिद्ध परमेश्वर ‘वेदकार’ है या ‘बौद्धागम कार’, ‘बाइबिलकार’ है या ‘कुरानकार’ यह नहीं कहा जा सकता।
इस तरह कौन परमेश्वर है यह सिद्ध नहीं होता। जिन-जिन युक्तियों से नैयायिक, वैशेषिक ‘वेदकार’ को परमेश्वर सिद्ध करेंगे, उन्हीं युक्तियों से ‘बाइबिल’ आदि के अनुयायी ‘बाइबिलकार’ आदि को परमेश्वर सिद्ध कर देंगे। यदि सभी को परमेश्वर ही मान लें तब तो उनके प्रचारित सिद्धान्तों में मतभेद न होना चाहिेये।
कुछ लोग यह कहकर समन्वय करने की चेष्ठा करते हैं कि उन-उन देशों कालों के अनुसार उन-उन सिद्धान्तों की रचना हुई है, अतः सिद्धान्तभेद होने पर भी अधिकारीभेद संगत है।
पहले तो यह बात उन ग्रन्थों और उनके पण्डितों को ही मान्य नहीं है, सभी लोग यही कहते हैं कि हमारा ही धर्म और धर्मग्रन्थ सब देश और सर्वकाल के लिये मानने योग्य हैं अत: ईसाई, मुसलामान आदि भारत में भी अपने ही धर्म को फैलाना चाहते हैं फिर आत्मा, ईश्वर आदि वस्तु ऐसी है कि वह देश-कालभेद से बदला नहीं करती।
अतः उनमें सर्वज्ञ का मतभेद नहीं हो सकता। इसीलिये वैदिक लोग परमेश्वर निर्मित होने से वेदों का प्रामाण्य नहीं मानते, अपितु वेदसिद्ध होने से ही परमेश्वर का अस्तित्व मानते हैं।
वैदिकों ने ‘‘शास्त्रयोनित्वात्’’ इस सूत्र में परमेश्वर को वेदैकसमधिगम्य माना है-
‘‘शास्त्रमृग्वेदादिरेव योनिः स्वरूपसिद्धौ प्रमाणं यस्य, तस्य भावस्तत्त्वं तस्मात्’’
इस दृष्टि से यह कहा है कि परमेश्वर की स्वरूपसिद्धि में एक मात्र शास्त्र ही प्रमाण है।
‘‘तन्त्वौपनिषदं पुरुषं पृच्छामि’’
यहाँ पर जैसे चक्षुमात्र से ग्राह्य रूप को ‘चाक्षुष’ कहा जाता है, वैसे ही वेदोपनिषदगम्य परम पुरुष को ‘औपनिषद’ कहा जाता है।
इसी तरह धर्म भी केवल वेदों से ही जाना जाता है, जैसे ‘‘चक्षुषैव रूपमुपलभ्यते’’ और ‘‘दोषरहितेन आलोकादिसहकृतेन मनःसंयुक्तेन चक्षुषा रूपमुपलभ्यत एवं।’’
इस तरह जैसे अयोगव्यवच्छेदक और अन्ययोगव्यवच्छेदक हो ‘एवकार’ से चक्षु का और रूप का असाधारण सम्बन्ध निश्चित होता है, वैसे ही वेदों से ही धर्म का बोध होता है। अत: भगवान भी गीता में कर्तव्याकर्तव्यनिर्णय के लिये एकमात्र शास्त्र को ही प्रमाण कहते हैं-
यः शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्त्तते कामकारतः।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम् ॥
तस्माच्छास्त्रं प्रमाणं ते कार्या कार्यकार्यव्यवस्थितौ।
ज्ञात्वा शास्त्रविधानोक्तं कर्म कर्त्तुमिहार्हसि॥
यहाँ ‘शास्त्र’ शब्द का अर्थ वेद एवं तदनुयायी स्मृति, इतिहासादि ही है। अतः प्रथम वेदों की अपौरूषेयता पर ही विचार होता है। भट्टपाद शंकराचार्य आदि महाविद्वानों ने सर्वापेक्षया अधिक विचार वेदों की अपौरूषेयता पर ही किया है। अतः अपौरुषेय वेद ही मुख्य शास्त्र है, उनको मानने वाला ही आस्तिक और उनके निन्दक ही नास्तिक हैं। वैदिक लोग श्रीकृष्ण की ‘गीता’ का उपनिषदरूप गौ का दुग्ध होने से आदर करते हैं, न कि सर्वज्ञ परमेश्वर की उक्ति होने से -
‘‘सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दनः।’’
यहाँ विज्ञगण भगवान की सर्वज्ञता का उपयोग अकृत्रिम वेद का सिद्धान्त निर्णय करने में करते हैं। सर्वज्ञ निर्मित भी ग्रन्थ कृत्रिम होने से वैसा आदरणीय नहीं होता, जैसा कि अकृत्रिम अपौरुषेय वेद।
अत: आस्तिक गण बुद्धि की पूजा करते हुए भी वेद विरुद्ध होने से उनकी उक्ति का आदर नहीं करते। श्रीकृष्ण की उक्ति का वेदसम्मत होने से आदर करते हैं।
एक बार भीष्म जी अपने पिता का श्राद्ध कर रहे थे, उस समय उनके पिता का दिव्य हस्त प्रकट हुआ। भीष्म ने उसे पहचाना और वैदिको से प्रश्न किया कि‘‘क्या हस्त पर पिण्डदान करने की विधि है?’’ वैदिकों ने कहा‘‘‘ ‘‘नहीं, वेदी और कुशाओं पर ही पिण्ड-प्रदान की विधि है।’’ तब भीष्म ने हस्त पर पिण्ड न देकर कुशाओं पर ही पिण्डदान किया। भीष्म के पिता बड़े प्रसन्न हुए और कहा कि ‘‘मैं तुम्हारी शास्त्र श्रद्धा देखने को ही प्रकट हुआ था।’’ इस दृष्टि से वेद ही मुख्य शास्त्र है, तदुक्त कर्म ही मुख्य धर्म है, उनकी मर्यादा-रक्षार्थ ही बुद्धदेव एवं शंकराचार्य का अवतार हुआ।
वैदिक धर्म से यद्यपि प्राणिमात्र का कल्याण हो सकता है, परन्तु अधिकार के अनुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, त्रैवर्णिक उपनयनादि संस्कार सम्पन्न होकर वेदाध्ययन के अधिकारी हैं। शूद्र, अन्त्यज आदि वेदोपबृंहण रूप इतिहास-पुराण-श्रवण के अधिकारी हैं। राजसूय में क्षत्रिय का अधिकार है, ब्राह्मण का नहीं और वाजपेय में ब्राह्मण का ही अधिकार है, क्षत्रियादि का नहीं।
जैसे वैद्य के औषधालय की सभी औषध सब रोगियों के लिये उपयुक्त नहीं है, वैसे ही वेदोक्त सभी कर्म सबके लिये उपयुक्त नहीं है। किन्तु वहाँ अधिकार की चर्चा आवश्यक है। इन सब विचारों का ध्यान रखने से बुद्धदेव को भगवान का अवतार मानते हुए भी उनके उपदेश को अधर्म बतलाने में कोई विरोध नहीं पड़ता। यदि साधारण दृष्टि से देखें तो भी इससे वैदिक धर्म की अनुपमेय उदारता का ही परिचय मिलता है।
वैदिक धर्म को छोड़कर क्या संसार का कोई ऐसा धर्म है, जिसने अपने विरोधी को भगवान का अवतार मानकर उसका आदर किया हो?
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