भगवान श्रीकृष्ण द्वारा भगवद्गीता प्रकट करने के लिए अर्जुन का चयन क्यों ?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  एक बार एक नन्हा बालक अपने निर्धन पिता के साथ मेला देखने के लिए गया था। वह अपने पिता की उंगली पकड़े हुए था । जैसे-जैसे मेला में वह बालक प्रवेश करने लगा , रंग - बिरंगी वस्तुओं को देखकर उसका मन ललचाने लगा। वह अपने पिता से मनपसन्द वस्तुओं की मांग करने लगा। पिता के पास अधिक पैसे नहीं थे , अतः वह कहते थे कि पहले मेला घूम लें , फिर लौटते समय हम खरीदेंगे । भीड़ बढ़ती जा रही थी । अचानक मेले में एक भीड़ का रेला आया और बालक का हाथ अपने पिता के हाथ से छूट गया। 

  बालक ' बापू - बापू ' कहकर चिल्लाने लगा। अपने पिता को न देखकर एवं न पाकर वह रोने लगा । तभी वहां कई लोगों की नजर इस बालक पर गई । रोते बालक को चुप कराने के लिए किसी ने गुब्बारा दिया , किसी ने उसे खिलौने लाकर दिया , किसी ने मिठाई लाकर दी । बालक कुछ भी नहीं ले रहा था , वह केवल अपने बापू की रट लगा रहा था । वह कहता था कि मुझे बापू चाहिए।

  जिन वस्तुओं की मांग वह अपने पिता से कर रहा था , वे सारी वस्तुएं उसको उपलब्ध थीं , लेकिन वह नन्हा बालक बार-बार क्रंदन - स्वर में केवल अपने पिता की मांग कर रहा था। साथ में पिता रहे , तो यह सब सारा सामान ठीक है अन्यथा व्यर्थ है। - यह भाव उस छोटे से बालक को भी समझ में आ रहा था। 

  ठीक यही दशा अर्जुन की भी थी। महाभारत युद्ध की तैयारी अपने चरम पर थी। अंतिम समय में अर्जुन एवं दुर्योधन दोनों भगवान श्री कृष्ण के पास सहायता मांगने पहुंचे थे । भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि एक ओर मेरी एक अक्षौहिणी नारायणी सेना है तथा दूसरी ओर निहत्था मैं हूं । इन दोनों में से किसी एक को तुम लोगों को चुनना है। अर्जुन की बारी पहले आई क्योंकि अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण ने पहले देखा था। इसका कारण यह था कि वह भगवान श्री कृष्ण के चरण तले खड़ा था। 

अर्जुन ने उस नन्हे बालक की भांति पदार्थ नहीं , परमेश्वर श्रीकृष्ण को ही मांगा। दुर्योधन इस निर्णय को जानकर बड़ा प्रसन्न हुआ और वह एक अक्षौहिणी नारायणी सेना प्राप्त कर वापस चला गया। घटना बस इतनी ही है।

इसकी गहराई पर जाकर विचार करने पर हम देखते हैं कि एक ओर साक्षात् परमेश्वर हैं, दूसरी ओर परमेश्वर-प्रदत्त पदार्थ हैं। दोनों में से चयन किसका करना है ? - यह हमें तय करना है । 

अधिकतर लोग परमात्मा को नहीं चाहते, परमात्मा से चाहते हैं। दुर्योधन ने प्रभु से चाहा। अर्जुन ने प्रभु को चाहा।

केवल ' से ' तथा ' को ' का अंतर है ,* पर यह अंतर बहुत गहरा है । यह घटना प्रभु के प्रति अर्जुन की तड़प को दर्शाती है और दुर्योधन की वस्तु के प्रति ललक को प्रदर्शित करती है । 

हमें तो केवल यह दिखाई देता है कि अर्जुन ने अपने रथ की बागडोर सारथी श्रीकृष्ण को सौंप दी थी , लेकिन वास्तव में अर्जुन ने अपने समग्र जीवन की बागडोर परमात्मा के हाथों सौंप दिया था ।

  यही कारण है कि धर्म-धुरंधर भीष्म , धर्मप्राण संजय , धर्मात्मा विदुर , धर्मराज युधिष्ठिर ,धर्मज्ञाता द्रोणाचार्य , धर्मप्रवीण कृपाचार्य एवं धर्मशीला द्रौपदी के रहते हुए भी भगवान ने भगवत्-गीता के प्राक्ट्य हेतु अर्जुन का ही चयन किया था। अर्जुन पूर्ण शरणागति में था ।

अब हमें यह तय करना है कि हम दुर्योधन की भांति प्रभु से मांगें या अर्जुन की भांति प्रभु को ही मांगें । 

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