श्री राधा रानी के प्रेम का आदर्श क्या है?

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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   एक बार श्रीकृष्ण अपनी रानियों के साथ गंगा जी में स्नान करने सिद्धाश्रम गए। संयोगवश वहाँ श्री राधा रानी भी उसी समय अपनी हजारों सखियों के साथ गंगा स्नान करने पहुंची। रुक्मिणी जी ने श्री राधा रानी के अद्भुत सौंदर्य के बारे में सुना था। जब​ उन्हें यह पता चला तो वे राधा रानी से मिलने के लिए उत्सुक होने लगीं । उन्होंने श्री राधा रानी को अपने परिसर में आमंत्रित किया जिसे श्री राधा रानी ने स्वीकार कर लिया।

  जैसे ही श्री राधा रानी ने रुक्मणी जी के परिसर में प्रवेश किया तो सभी रानियां उनके रूप माधुर्य तथा आभा को देखकर स्तब्ध रह​ गईं। उन्होंने सहर्ष​ श्री राधा रानी तथा सखियों का स्वागत किया । तब​ रुक्मिणी जी ने श्री राधा रानी से एक प्रश्न किया।

" सभी रानियां तथा गोपियां श्रीकृष्ण को अपना प्रियतम मानकर प्रेम करती हैं। क्या तुम्हें उनसे ईर्ष्या नहीं होती ?”

 श्री राधारानी मुस्कुराई तथा बड़ा ही सुंदर​ उत्तर दिया । मेरी प्यारी बहन! चंद्रमा तो केवल एक ही है परंतु चकोर तो बहुत हैं। कल्पना कीजिए यदि एक चकोर चंद्रमा पर अपना अधिकार कर ले तो बाकी सभी चकोर तो मर जायेंगे ।

 इसी प्रकार सूर्य एक है हम सभी उसी के प्रकाश से दृष्टि पाते हैं। यदि कोई एक सूर्य पर अधिकार कर ले तो बाकी सब नेत्रहीन हो जाएंगे। संक्षेप में कहें, श्री कृष्ण ही प्रेम तत्व हैं । 

  यदि मैं उन पर अपना एकाधिकार कर लूंगी तो अन्य जीव उनके प्रेम से वंचित रह जायेंगे । दूसरी बात यह है कि मेरे श्याम सुंदर अन्य जीवों से प्रेम करके सुख प्राप्त करते हैं तो मुझे कोई आपत्ति क्यों होगी?"

  इन उदाहरणों से अब आप यह समझ गए होंगे कि मायिक प्रेम की तुलना श्री राधा रानी व गोपियों के प्रेम से नहीं की जा सकती। यहां तक कि दोनों एक क्षेत्र के भी नहीं है तो तुलना करना नितांत​ मूर्खता का द्योतक​ है।

  संसार में जीव स्वार्थ से ही प्रेम करता है । इसलिये प्रेम का भौतिक, मानसिक और आध्यात्मिक कामनाओं से परे होना जीव की कल्पना से परे है । हमारा अनुभव मायिक क्षेत्र तक सीमित है अतः हम दिव्य प्रेम को भी उसी पैमाने से नापते हैं। इसीलिए हम दोनों प्रेम की तुलना करने की चेष्टा करते हैं। मायिक प्रेम का आधार स्वसुख है जब कि राधा रानी के प्रेम में स्वसुख वासना की गंध भी नहीं होती। मायिक प्रेम को काम या राग कहते हैं जिसका आधार​ केवल और केवल स्वार्थ है। जबकि दिव्य प्रेम स्वार्थ रहित होता है जिसमें सिर्फ देना देना ही होता है।

 दिव्य प्रेम का मुख्य मापदण्ड​ यह है कि -

 "प्रेम के समाप्त होने का कारण हो तो भी वह समाप्त नहीं हो तो वह प्रेम है।"

"अपने प्रेमास्पद के सुख में सुखी रहना।

हमारी श्री राधा रानी के प्रेम का अनुमान ब्रह्मा शंकर तक नहीं लगा सकते। 


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