माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव। बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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   जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए।  जो (कर्मानुसार) बंधन और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है, वह ईश्वर है॥

कबीर माया डाकनी, सब किसही कौ खाइ।

दाँत उपाड़ो पापणी, जे संतौं नेड़ी जाइ॥

  माया के विषय में कबीर दास के विचार हैं की यह माया सभी को समाप्त करने वाली, खा जाने वाली है. लेकिन यही माया यदि संतजन के निकट भी जाती है। तो संतजन इसके दांत को उखाड़ फेंकते हैं. अतः माया संतजन के, राम भक्त के निकट नहीं जाती है. भाव है की माया से बचने का एक ही आधार है।

माया मरी न मन मरा , मर -मर गए शरीर।

आशा तृष्णा न मरी ,कह गए दास कबीर॥

  श्रुति और दृष्टि से हमारा मन बनता है। मन से जब वाक (वाणी )मिल जाती है तो चेतना भी इसमें आ जुड़ती है।श्रुति और दृष्टि जिसके पास नहीं हो तो उसकी बुद्धि का विकास नहीं होता। माया और मन दोनों की साधना करनी होगी। एक को साधे कुछ नहीं होगा। क्योंकि माया मन को आकर्षित करती है और मन माया से आबद्ध हो जाता है। माया का क्षेत्र बाहर की ओर है आभासी जगत की जगत की ओर है और मन का अंदर की ओर । लेकिन मन जब बाहर की ओर देखता है माया को भीतर ले आता है। माया से विमोहित हो जाता है। माया अनादि है। जो है नहीं लेकिन जिसके होने की प्रतीति होती है वह माया है।

   हमारा मरना जीना देह के स्तर पर होता है इसीलिए देह मरती रहती है हम आते जाते रहते हैं। लेकिन वासनाओं की पूर्ती कभी नहीं होती। वासनाओं की पूर्ती के लिए ही हम दोबारा आते हैं। परमात्मा बार बार मौक़ा देता है इस देहात्मक बुद्धि से ऊपर उठो। मन को अमन करो। जब परमात्मा से लगेगा तो मन अमन हो जाएगा। जन्म जन्मानतरों के कर्म बंधन ,संचित- कर्म नष्ट हो जाएंगे । प्रारब्ध को भुगतकर व्यक्ति मुक्त हो सकता है। इसीलिए कृष्ण गीता में कहते हैं -हे अर्जुन तुम अपना मन और बुद्धि सिर्फ मेरे में लगाओ। एक मेरा ही ध्यान करो और अपना कर्तव्य कर्म करो।

तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः।

वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥

 श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि मनुष्यों को चाहिए कि वह संपूर्ण इंद्रियों को वश में करके समाहितचित्त हुआ मेरे परायण स्थित होवे, क्योंकि जिस पुरुष की इंद्रियां वश में होती हैं, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है।

विहाय कामान् य: कर्वान्पुमांश्चरति निस्पृह:।

निर्ममो निरहंकार स शांतिमधिगच्छति॥

 जो मनुष्य सभी इच्छाओं व कामनाओं को त्याग कर ममता रहित और अहंकार रहित होकर अपने कर्तव्यों का पालन करता है, उसे ही शांति प्राप्त होती है। ईश्वर के नाम का सुमिरण, जो व्यक्ति इश्वर के नाम का सुमिरण करते हैं, माया उसका कुछ भी अहित नहीं कर पाती है।

मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्।

माया प्राकृत शक्ति है जबकि भगवान शक्तिमान हैं। रामचरितमानस में उल्लेख किया गया है

सो दासी रघुबीर कि समुझें मिथ्या सोपि।

"कुछ लोगों का विचार है कि माया मिथ्या अर्थात अस्तित्त्वहीन है परन्तु माया वास्तव में एक शक्ति है जो भगवान की सेवा में लगी रहती है।

माया से बचने का उपाय केवल ईश्वर शरण एवं वेद पुराण 

माया-मुग्धा जीवेर नहीं स्वत: कृष्ण-ज्ञान।

 जीवेरे   कृपाय   कैला   कृष्ण  वेद  पुराण॥

   जब कोई जीव बाह्य ऊर्जा से मुग्ध होता है, तो वह स्वतंत्र रूप से अपनी मूल कृष्ण भावनामृत को पुनर्जीवित नहीं कर सकता। ऐसी परिस्थितियों के कारण, कृष्ण ने कृपा करके उसे चार वेद और अठारह पुराण जैसे वैदिक साहित्य दिए हैं।" 

न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:।

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता:॥

 माया ने जिनका ज्ञान हर लिया है ऐसे दुष्ट कर्म करने वाले मूढ़, नरों में अधम, और आसुरी स्वभाव वाले मेरी शरण में नहीं आते।

  माया का काम है फंसाना। माया का अर्थ केवल धन से नहीं होता बल्कि जिस चीज में हमारा मन अटकता है, वही हमारे लिए माया है। जैसे किसी का मन धन में अटकता है, किसी का भोग में, किसी का रूप में, किसी का शब्द में, किसी का स्वाद में, किसी का दुष्ट कर्मों में, किसी का अपने में और किसी का अपने वालों में आदि-आदि अनेक स्थानों या किसी एक स्थान पर भी यदि मन अटक जाता है वही उसके लिए माया है। मन के माया में आते ही हमारी ऊर्जा बाहर की तरफ बहने लगती है, जिससे आत्मा का ज्ञान नष्ट हो जाता है और व्यक्ति संसार में बंधने वाले दुष्ट कर्म करने लगता है जिससे मूढ़ता को प्राप्त हो जाता है। इस तरह के लोग आध्यात्मिक दृष्टि से सबसे निचले स्तर के होते हैं, ऐसे लोग आसुरी स्वभाव वाले कहलाते हैं। ये परमात्मा को पाने की चाह नहीं रखते, इसलिए प्रभु की शरण में नहीं आते।

दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया ।

मामेव ये प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते ॥

   प्रकति के तीन गुणों से युक्त मेरी दैवीय शक्ति माया से पार पाना अत्यंत कठिन है किन्तु जो मेरे शरणागत हो जाते हैं, वे इसे सरलता से पार कर जाते हैं।

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