कबीर ने कभी दुकान नहीं छोड़ी, याद रखना। कबीर ने अभी अपना काम नहीं छोड़ा, पत्नी नहीं छोड़ी, बच्चे नहीं छोड़े। कबीर परमज्ञान को उपलब्ध हो गए ल...
कबीर ने कभी दुकान नहीं छोड़ी, याद रखना। कबीर ने अभी अपना काम नहीं छोड़ा, पत्नी नहीं छोड़ी, बच्चे नहीं छोड़े। कबीर परमज्ञान को उपलब्ध हो गए लेकिन जुलाहे थे, सो जुलाहे रहे। बुनते थे, सो बुनते रहे। कपड़े बुनते थे तो कपड़ों का बुनना जारी रहा। अब उन्हीं कपड़ों में राम की धुन भी बनने लगे। अब उन्हीं कपड़ों में अपना हृदय भी फैलाने लगे। पहले साधारण आदमियों के लिए बुनते थे, फिर राम के लिए बुनने लगे। फिर हर ग्राहक राम हो गया। यह क्रांति तो हुई। फिर ग्राहक-ग्राहक को रमा कहने लगे; साहिब कहने लगे। यह तो फर्क हुआ। लेकिन जो काम था, वह वैसाही चलता रहा।
कबीर के भक्त उनसे कहते थे...। हजारों उनके भक्त थे। उनसे कहते थे: ‘अब आप ये कपड़े बुनना बंद कर दें; शोभा नहीं देता। आपको कमी क्या है? हम हैं, हम सब फिक्र करने को तैयार हैं।’ मगर कबीर हंसते। वे कहते कि जो प्रभु ने मुझे अवसर दिया है और जो करने की आज्ञा दी है, वह मैं करता रहूंगा। जब तक हाथ-पैर में बल है, जो मैं जानता हूं वह करता रहूंगा। फिर मुझे बड़ा आनंद है। फिर तुमने देखा नहींः वे जो बाजार में राम कभी-कभी मेरा कपड़ा लेने आते है, कितने प्रसन्न होकर जाते हैं। यह मेरी पूजा। यह मेरी आराधना।
गुण तो बदला लेकिन काम वही का वही रहा। तो कबीर की फकीरी का मतलबः घर-द्वार छोड़ कर भाग जाने से नहीं है। कबीर की फकीरी बड़ी आंतरिक है। बड़ी हार्दिक है। कबीर की फकीरी समझ की क्रांति है।
‘मन लागो मेरा यार फकीरी में।’
तो फकीरी का अर्थ क्या? फकीरी का अर्थः जो है, उससे तृप्ति। जैसा है, उससे तृप्ति। और की आकांक्षा मर गई। परिग्रह के भाव मुक्ति हो गई। इसलिए कबीर कहते हैंः क्या मेरा क्या तेरा? शरम नहीं आती--कबीर कहते हैं--किसी चीज को अपनी बताने में? सब परमात्मा की है। सबै भूमि गोपाल की। तुझे बीच में अपना दावा करते शर्म नहीं आती? न तो कुछ लेकर आया, न कुछ लेकर जाएगा। और बीच में दावा कर लेता है? धन्यवाद दे परमात्मा को कि वस्तुओं के उपयोग का तुझे मौका दिया। लेकिन तेरा यहां कुछ भी नहीं है। और जब तेरा है ही नहीं, तो छोड़ेगा कैसे?
तो एक तो फकीर है, जो छोड़ कर भागता है; लेकिन छोड़कर भागने में तो ‘मेरा’ था, यह भ्रांति बनी ही रहती है। मेरा नहीं था, तो छोड़ा कैसे!
दो भ्रांतियां हैं--एक पकड़ने की भ्रांति; एक छोड़ने की भ्रांति। असली फकीरी भ्रांति से मुक्ति का नाम है। न तो मेरा है कुछ, तो पकडूं कैसे? न मेरा है कुछ, तो छोडूं कैसे? छोड़ने वाला मैं कौन; पकड़ने वाला मैं कौन? जिसने मुझे भेजा, वही जाने; उसकी मरजी, जो चाहे करा ले।
‘मन लागो मेरा यार फकीरी में।’
और एक बात खयाल में लेनाः ‘यार’ की फकीरी। उस प्यारे से प्रेम लग गया, इसलिए फकीरी।
एक फकीरी है, जैसे जैन मुनि को फकीरी होती है। उस फकीरी में गणित है, प्रेम नहीं। उस फकीरी में हिसाब-किताब है, प्रेम नहीं है। उस फकीरी में वही पुरानी दुकान है। हिसाब लगा रहा हैः ‘इतने उपवास करूं, तो कितना पुण्य होगा! इतने व्रत रखूं, तो कितना पुण्य होगा! इतना-इतना पुण्य हो जाएगा, तो किस-किस स्वर्ग में जाऊंगा--पहले, कि दूसरे, कि सातवें?’ मगर प्रेम वहां कुछ भी नहीं है।
एक और फकीरी है। कबीर उसी की बात कर रहे हैं। वह फकीरीः उसकी यारी से पैदा होती है; उसके प्रेम में पड़ने से पैदा होती है। और दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है, याद रखना। इसलिए जैन, तथाकथित जैन मुनि के चेहरे पर तुम आनंद की आभा न पाओगे। हिसाब पाओगे, गणित पाओगे, तर्क पाओगे; लेकिन मस्ती न पाओगे। बेखुदी न पाओगे। कोई झरना फूटा हो--ऐसा नहीं पाओगे। सब सूख गया--ऐसा पाओगे। वृक्ष में अब फूल तो नहीं लगते, यह तो सच है। अब पत्ते भी नही उगते, यह भी सच है। रूखा-सूखा वृक्ष खड़ा है, एैसा जैन मुनि है। बसंत नहीं आता अब। बसंत से सबंध टूट गया। पतझड़ से ही उसने नाता बना लिया।
सूफी फकीर है, उसकी फकीरी और ढंग की। उसकी फकीरी में प्रभु का प्रेम है। उसने संसार में कुछ छोड़ा नहीं है। अगर कुछ छोड़ना पड़ा है, अगर कुछ छूट गया है, तो वह उसके प्रेम से छूटा है।
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