आचार्य चाणक्य और उनका अर्थशास्त्र

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 चाणक्य के बारे में पढ़ने-जानने की कोशिश करेंगे तो नजर आएगा कि उनकी रचना “अर्थशास्त्र” में उन्होंने अपने बारे में कुछ लिखा ही नहीं है। एक “मुद्राराक्षस” को छोड़ दें तो ऐसे व्यक्ति पर किताबें क्यों नहीं लिखी गयीं ये सोचकर आश्चर्य होता है। फिर हमें याद आता है कि हिन्दुओं को नैतिकता की ऊँची अटारी पर चढ़कर भी तो बैठना होता है! चाणक्य का अमोघ अस्त्र उनका गुप्तचर तंत्र था। राजनीति के लिए जब कोई गुप्तचर तंत्र का प्रयोग कर रहा हो, तो उसके तरीके क्रूर होंगे, वो कंचन और कामिनी का खुलकर अपने शत्रुओं के खिलाफ इस्तेमाल भी करेगा। मुगल शासन के दौर वाले भक्तिकाल में रहने वालों की भावना इससे आहत हो जाती होगी।

 शायद यही वजह है की चाणक्य के गुप्तचर तंत्र पर ही नहीं बल्कि शिवाजी के गुप्तचर तंत्र पर भी कुछ नहीं लिखा गया। जबकि चाणक्य की ही तरह शिवाजी के पास भी एक अच्छा खासा सफल गुप्तचर विभाग था। “चाणक्य के जासूस” का विषय चाणक्य के राजनीति, सैन्य रणनीति, व्यवस्था परिवर्तन जैसे कामों में जासूसों का इस्तेमाल है। ये उपन्यास है, इसलिए तथ्यों के साथ साथ इसमें कल्पना का सहारा भी लिया गया है। चूँकि लेखक खुद ही जासूसी के विभाग से सेवानिवृत्त हुए हैं, इसलिए जहाँ जरूरत पड़ी वहां अपने अनुभवों से काल्पनिक दृश्य रचने में उनका लेखन डगमगाता नहीं है।

 चाणक्य और उसके जासूस क्रूर क्यों हैं? वो इसलिए क्योंकि चाणक्य का मुकाबला धननंद के महामात्य कात्यायन से था जो अमात्य राक्षस के नाम से भी जाने जाते हैं। जब चाणक्य अपने शिष्य चन्द्रगुप्त को मगध के सिंहासन तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे थे तो अमात्य राक्षस उसे विषकन्या के जरिये मार डालने की कोशिश करते हैं। चाणक्य ने चन्द्रगुप्त को बचाने के लिए राजा पुरु की बलि चढ़ा दी थी। राजा पुरु, चन्द्रगुप्त के लिए मित्रराष्ट्र के रुप में अपनी सेना लेकर लड़ने आया था। पूरा युद्ध ना हो, कम से कम रक्तपात में सत्ता का हस्तांतरण हो जाये इसी के लिए चाणक्य अपने गुप्तचर तंत्र का प्रयोग करते हैं।

 अगर आज “फोर्थ जनरेशन वारफेयर” की बात होती है, तो कहा जाता है की युद्ध परंपरागत हथियारों और किन्हीं युद्ध के मैदान से आगे निकल आया है। आज जो इस्तेमाल होते हैं, उन्हें तकनिकी रूप से हथियार भी नहीं कहा जा सकता। उसमें प्रचार तंत्र, सांस्कृतिक हमलों और मानसिक दबाव का खुलकर इस्तेमाल होता है। ऐसा माना जाता है की टीवी और मीडिया के दूसरे माध्यमों से युद्ध हमारे घर के अन्दर बल्कि जेब तक पहुँच आया है। चाणक्य ने बरसों पहले धननंद के साथ कुछ ऐसा ही किया होगा। तभी तो सबसे बड़े साम्राज्य के राजा ने बिना लड़े भागने की कोशिश की और इसी प्रयास में मरा।

  चाणक्य के जासूस यहीं नहीं रुके थे। चन्द्रगुप्त को राज्य दिलवाने के बाद वो राज्य को बढ़ाने में लगे रहे। महामात्य कात्यायन को अपने पक्ष में ले आना और राजा पुरु के पुत्र मलयकेतु को पाटलिपुत्र का सहयोगी बनाना भी इसमें शामिल रहा। अगर कभी चाणक्य के युग की जासूसी की दुनियां में रूचि जागे तो इसे पढ़िए।

विष्णुगुप्त चाणक्य

मनुष्य: कुरुते तत्तु यन्न शक्यं सुरासुरै: ।[ मुद्रा राक्षस]

  मनुष्य जो कर सकता है , वह न देवता के वश की बात है और न असुर ही वह कर सकता है । मनुष्य सृजन भी करता है किन्तु विनाश भी वही करता है । देवता भी उसी में है तो दानव भी उसी में है ।मनुष्य की ऐसी पहचान किसने की ? महामति चाणक्य ने ।

  ई.पू चौथी शती । वही प्रचंड विद्रोही ! राष्ट्रीयता का प्रतिपादक ! राष्ट्र की अवधारणा का जनक ! भारत की राजनैतिक एकता का स्वप्नद्रष्टा और उस स्वप्न को धरती पर साकार करने वाला : जीवन के यथार्थ को इतने स्पष्ट शब्दों में प्रकट कर देने वाला चिन्तक ! महान मेधावी चाणक्य ! वही चाणक्य , जिसने सिकन्दर के आक्रमण को छोटे-छोटे स्वार्थों से ऊपर उठ कर देखा था । सिकन्दर के आक्रमण को उसने किसी जनपद , किसी राज्य , किसी जाति , किसी संप्रदाय , किसी वर्ण के संकट की नजर से नहीं देखा , राष्ट्र के संकट के रूप में देखा था और मौर्यसाम्राज्य स्थापित किया था । वही चाणक्य , जिसने प्रयोजनवाद की प्रतिष्ठा करते हुए कहा था कि - 

न प्रयोजनमन्तरा मनुष्य: स्वप्नेsपि विचेष्टते । 

 प्रयोजन के बिना ,मनुष्य स्वप्न में भी चेष्टा नहीं करता । वही चाणक्य , जिसने अपने अर्थशास्त्र ग्रन्थ में लिखा था कि -

 सर्वज्ञता लोकज्ञता । शास्त्रज्ञोऽप्यलोकज्ञो भवेन्मूर्खतुल्य:।५४२-५४३] 

  अर्थात्‌ जो शास्त्र को जानता है किन्तु लोक को नहीं जानता तो वह मूर्ख तुल्य ही है ! लोक के संबंध में इतनी बडी बात चाणक्य ने क्या यों ही कह दी थी ?? चाणक्य ने बडे साफ-साफ शब्दों में निर्भय हो कर अपनी बात कही थी  - धर्मस्य मूलं अर्थ: , अर्थस्य मूलं राज्य: । 

  चाणक्य ने समझाया कि धर्म का मूल अर्थव्यवस्था है ! अर्थव्यवस्था का मूल राज्यव्यवस्था है ! धर्म का मूल अर्थ है और अर्थ का मूल राज्य है। यदि अर्थव्यवस्था में कुछ गड्ड़मड्ड है तो समझ लीजिये कि धर्म के मूल में ही गड़बड़ी है। उसने योगसाधना और यज्ञ यागादि अनुष्ठान [ धर्म के उपलक्षण] को धर्म का मूल नहीं बतलाया ।

  धर्मवीरभारती ने कहा था कि पेशावर से पाटलिपुत्र तक का संचालन चाणक्य करते थे,स्वयं झोंपडी में रहते थे कौटिलीय अर्थशास्त्र' नामक सुविख्यात राजनैतिक ग्रंथ के रचनाकार।

येन शास्त्रं च शस्त्रं च नंदराजगता च भूः।

अमर्षेणोद्धृतान्याशु तेन शास्त्रमिदंकृतम्॥ 

                                                                       ( कौ. अ. १५.१.१८० )

( नंदराजाओं जैसे दुष्ट राजवंश के हाथ में गये पृथ्वी, शस्त्र एवं शास्त्रों को जिसने विमुक्त किया, उसी आचार्य के द्वारा इस ग्रंथ की रचना की गयी है )

  राजनीतिशास्त्र जैसे अनूठे विषय की चर्चा करने के कारण ही नहीं, बल्कि चंद्रगुप्त मौर्यकालीन भारतीय शासनव्यवस्था की प्रामाणिक सामग्री प्रदान करने के कारण, 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। उसकी तुलना मेगॅस्थिनिस के द्वारा लिखित 'इंडिका' से की जा सकती है ।

पिता से प्राप्त इनका नाम विष्णुगुप्त था। ई. स. ४०० में रचित 'कामंदकीय नीति-सार' में इसका निर्देश विष्णुगुप्त नाम से ही किया गया है -

नीतिशास्त्रामृतं श्रीमानर्थशास्त्र महोदथेः । 

समुद्दध्रे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेधसे ।।

( अर्थशास्त्ररूपी समुद्र से जिसने नीतिशास्त्ररूपी नवनीत का दोहन किया, उस विष्णुगुप्त आचार्य को मैं प्रणाम करता हूँ)।

 चणक नामक आचार्य का पुत्र होने के कारण, इनको 'चाणक्य' पैतृक नाम प्राप्त हुआ । कौटिलीय अर्थशास्त्र में इन्होंने स्वयं का निर्देश अनेक बार 'कौटिल्य' नाम से किया है, जो संभवतः गोत्र नाम था। म. म. गणपतिशास्त्री के अनुसार, इसके नाम का सही पाठ 'कौटल्य' था, जो इसके 'कुटल' नामक गोत्रनाम से व्युत्पन्न हुआ था ।

 हेमचंद्र के 'अभिधानचिंतामणि में इनके निम्नलिखित नामांतर प्राप्त है:- वात्स्यायन, मल्लनाग, कुटिल, चणकात्मज, द्रामिल, पक्षिलत्वामिन्, विष्णुगुप्त, अंगुल ( अभिधान. ८५३ - ८५४) ।

  इनके जीवन की कहानी विशाखदत्त कृत 'मुद्राराक्षस नाटक में प्राप्त है, जहाँ ये 'ब्राह्मण' के रूप में चित्रित गये हैं । महापद्म नंद राजा के द्वारा किये अपमान का बदला लेने के लिए, चंद्रगुप्त मौर्य को मगध देश के राजगद्दी पर प्रतिष्ठापित करने की कथा वहाँ प्राप्त है।

कौटिलीय अर्थशास्त्र - यह एक राजनीतिशास्त्रविषयक ग्रंथ है, जिसमें राज्य संपादन एवं संचालन के शास्त्र को 'अर्थशास्त्र' कहा गया है। इस ग्रंथ में पंद्रह अधिकरण, एक सौ पचास अध्याय, एक सौ अस्सी प्रकरण एवं छः हजार श्लोक है। 

 कौटिल्य के अर्थशास्त्र में राज्यशासन से संबंधित समस्त अंगोपांगों का विस्तृत वर्णन है। इस ग्रंथ में प्रमुख विषय निम्न लिखित हैं -

१. विनयाधिकारिक ( राजा के लिए सुयोग्य आचरण )

२. अध्यक्षप्रचार (सरकारी अधिकारियों के कर्तव्य )

३. धर्मरथीय (न्यायविधि)

४. कंटकशोधन (राज्य की अंतर्गत शांति एवं सुव्यवस्था )

५. योगवृत्त ( फितुर लोगों का बंदोबस्त )

६. मंडलयोनि( राजा, अमात्य शास्त्ररूपी आदि 'प्रकृतियों' के गुणवैशिष्ट्य )

७. षाड्गुण्य ( पर राष्ट्रीय राजकारण ); 

८. व्यसनाधिकारिक ( प्रकृतियों के व्यसन एवं उनका प्रतिकार ); 

९ अभियास्यत्कर्म ( युद्ध की तैयारी ); 

१०. सांग्रमिक ( युद्धशास्त्र ); 

११. संघवृत्त (राज्य के नानाविध संघटनाओं के साथ व्यवहार ); 

१२. आबलीयस (बलाढ्य शत्रु से व्यवहार ); 

१३. दुर्गमोपाय ( दुर्गों पर विजय प्राप्त करना ); राजनीति 

१४. औपनिषदिक (गुप्तचरविद्या ); 

१५. तंत्रयुक्ति (अर्थशास्त्र की युक्तियाँ ) ।

 इस ग्रंथ में, युद्धशास्त्रीय, आर्थिक, वैधानिक, वाणिज्य आदि समस्त अंगों का विस्तृत वर्णन किया गया है, यहाँ तक कि, राज्य में उपयोग करने योग्य वजन, नाप एवं काल-मापन के परिमाण भी वहाँ दिये गये हैं।

 इनके द्वारा पूर्वाचार्यों में मनु, बृहस्पति, द्रोण-भरद्वाज, उशनस्, किंचलक,कात्यायन, घोटकमुख, बहुदंती, वातव्याधि, विशालाक्ष , पाराशर, पिशुन शुक्र , कौणपदन्त आदि का उल्लेख हुआ है।

  ये सारे ग्रंथ 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' के रचनाकाल में यद्यपि अनुपलब्ध थे, फिर भी उशनस् का ओशनस अर्थशास्त्र पिशुन का 'अर्थशास्त्र' एवं द्रोण भारद्वाज का 'अर्थशास्त्र' उस समय उपलब्ध था, जिनके अनेक उद्धरण 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' में प्राप्त है।

  कौटिलीय अर्थशास्त्र का प्रभाव - प्राचीन भारतीय साहित्य में से वात्स्यायन, विशाखदत्त, दण्डिन् बाण, विष्णुशर्मन् आदि अनेकानेक ग्रंथकार एवं मल्लिनाथ, मेधातिथिन आदि टीकाकार 'कौटिलीय अर्थशास्त्र' से प्रभावित प्रतीत होते थे, जो उनके ग्रंथों में प्राप्त उद्धरणों से स्पष्ट है। दण्डिन् के 'दशकुमारचरित' में प्राप्त निर्देशों से प्रतीत होता है कि, राजकुल में उत्पन्न राज कुमारों के अध्ययनग्रंथों में भी इस ग्रंथ का समावेश होता था ( दशकुमार. ८) ।

'कौटिलीय अर्थशास्त्र' के पुनरुद्धार का श्रेय सुविख्यात दाक्षिणात्य पण्डित डॉ. श्यामशास्त्री को दिया जाता है। जिन्होंने इस ग्रंथ का प्रामाणिक संपादन किया १९०९ में । अनेक विद्वानों ने ' मेगस्थनीज की इंडिका और कौटिलीय अर्थशास्त्रकी तुलना भी की है।

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