तुलसी दास जी कहते हैं कि जिनकी श्री राम में ममता और अपनत्व जैसे "मैं राम जी का और राम जी हमारे " का भाव हो या सिय राम मैं स...
तुलसी दास जी कहते हैं कि जिनकी श्री राम में ममता और अपनत्व जैसे "मैं राम जी का और राम जी हमारे " का भाव हो या सिय राम मैं सब जग जानी और सब संसार में समता है और ना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर बिना भेदभाव के, जिनका किसी के प्रति राग, द्वेष, दोष और दुःख का भाव नहीं है, श्री राम के ऐसे भक्त भव सागर से पार हो जातें हैं।
देखा जाय तो हमारे जीवन में सुख-दुःख तो दिन-रात की तरह आते ही रहते हैं पर जैसे हम दिन-रात को अप्रभावित हुए देखते हैं, वैसे ही जब सुख-दुःख से अप्रभावित रहना सीख जाते हैं, तभी सहज जीवन का आरम्भ होता है ।
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई ।
जाके सिर है मोर मुकुट मेरो पति सोई ॥
तब जगत हमारे लिए होकर भी नहीं रहता, उसका वियोग या संयोग हमारे आनन्द में बाधा नहीं देता। कोई भी बंधन हमें तब त्याज्य लगता है। मन तब भीतर टिकना सीख लेता है और नित्य नवीन रस का अनुभव करता है। किन्तु समता की इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए आवश्यक है नियमित साधना। जीवन इस संसार रूपी कर्मक्षेत्र में स्वयं को निखारने के लिए ही मिला है, सोने को तपकर उसमें से अशुद्धियाँ निकाली जाती हैं, वैसे ही भीतर ज्ञान और योग की अग्नि में तपकर ही समता का रस प्रकटता है।
आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते ।
योगारूढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते ॥
‘जो योग (समता)- में आरूढ़ होना चाहता है, ऐसे मननशील योगी के लिये कर्तव्य-कर्म करना कारण कहा गया है और उसी योगारूढ मनुष्य का शम (शान्ति) परमात्मप्राप्ति में कारण कहा गया है।’
अक्रियता से परमात्म प्राप्ति उपराम होने का तात्पर्य है कि राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख आदि द्वन्द न हों। जैसे रास्ते में चल रहे हैं तो कहीं पत्थर पड़ा है, कहीं लकड़ी पड़ी है, कहीं कागज पड़ा है, पर अपना उससे कोई मतलब नहीं होता, ऐसे ही किसी भी क्रिया और पदार्थ से अपना कोई मतलब नहीं रहे-
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन’।
उनसे तटस्थ रहे। तटस्थ रहना भी एक विद्या है। साधक तटस्थ रहते हुए सब काम करे तो वह संसार से असंग हो जाता है। संसार में लाभ हो, हानि हो, आदर हो, निरादर हो, सुख हो, दुःख हो, प्रशंसा हो, निन्दा हो, उसमें तटस्थ रहे तो परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। अगर वह उसमें राग-द्वेष, हर्ष-शोक, सुख-दुःख कर लेगा तो भोग होगा, योग नहीं। भोगी का कल्याण नहीं होता।
एक बात जो मुझे बहुत अच्छी तरह समझ में आती है वह है कि परोक्ष या अपरोक्ष रूप से हमारी मानसिक कामनाएँ यानि इच्छाएँ ही हमारे सब बंधनों का कारण है ।इनसे मुक्त होने का उपाय भी पता है। पर उसके लिए कठोर साधना करनी पड़ती है जो इतनी सरल नहीं है । मात्र संकल्प से कुछ नहीं होता । कोई भी साधना आसानी से नहीं होती, उसके लिए तितिक्षापूर्वक बहुत अधिक कष्ट सहन करना पड़ता है । हम चाहें कितने भी संकल्प कर लें पर ये इच्छाएँ हमारा पीछा नहीं छोड़ेंगी । इनसे मुक्त होने के लिए सत्संग, भक्ति, निरंतर नाम-जप, शरणागति, ध्यान और समर्पण साधना करनी ही पड़ती है, जो बड़ी कष्टप्रद होती हैं । भाई सोने को अग्नि में तपाओगे तभी किसी के गले का हार (आभूषण ) बनेगा, बहुत लम्बे अभ्यास के पश्चात जाकर परमात्मा की कृपा से हम कामनाओं से मुक्त हो सकते हैं।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे ।
कामनाओं से मुक्त होने के लिए कहना बड़ा सरल है पर करना बहुत कठिन । मेरी अति अल्प और सीमित बुद्धि जहाँ तक काम करती है, सबसे सरल मार्ग है। परमात्मा की उपस्थिति का निरंतर आभास और पूर्ण प्रेम से निरंतर मानसिक नाम-जप एवं स्मरण करें ।
मिलें न रघुपति बिन अनुरागा।
कियें जोग जप ताप विरागा ॥
परमात्मा सिर्फ प्रेम से ही मिलते हैं । बिना प्रेम यानि बिना भक्ति के कोई भी साधन सफल नहीं होता । हम भगवान के हैं और भगवान हमारे हैं । यह भाव निरंतर रखने का अभ्यास करें । तब जाकर कामनाओं से पीछा छूटेगा।
मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोक्तं सूत्रे मणिगणा इव॥
हे धनंजय! मेरे सिवाय इस जगत का कोई दूसरा कारण नहीं हो सकता। मैं ही इस सम्पूर्ण संसार का महकारण हूँ। जैसे मोती सूत के धागे की माला में पिरोए हुए होते हैं, वैसे ही यह सम्पूर्ण जगत मुझमें ही ओत-प्रोत है। यह संसार मुझसे ही उत्पन्न होता है, मुझमें ही स्थित रहता है और मुझमें ही लीन हो जाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि भगवान के सिवाय संसार की स्वतंत्र सत्ता नहीं है।
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