वेदों के नामकरण का वैज्ञानिक विवेचन

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 विद्या-महाविद्या-निसर्ग या प्रकृति से जो ज्ञान मिलता है वह विद्या है। ज्ञान प्राप्ति के ४ मार्ग होने के कारण ४ वेद हैं तथा विद् धातु के ४ अर्थ हैं। पहले तो किसी वस्तु की सत्ता होनी चाहिये। इसका अर्थ है आकार या मूर्त्ति जिसका वर्णन ऋग्वेद करता है। (विद् सत्तायाम्-पाणिनीय धातु पाठ ४/६०)। उसके बारे में कुछ जानकारी हमारे तक पहुंचनी चाहिये। यह गति है जिसका वर्णन यजुर्वेद करता है। उससे सूचना की प्राप्ति होती है-विद्लृ लाभे (६/४१)। सूचना मिलने पर उसका विश्लेषण पूर्व ज्ञान के आधार पर मस्तिष्क में होता है। यह ज्ञान वहीं तक हो सकता है जहां तक उस वस्तु की महिमा या प्रभाव है। महिमा रूप सामवेद है। विद् ज्ञाने (२/५७)। इन सभी के लिये एक स्थिर आधार (अथर्व = जो थरथराये नहीं) की जरूरत है जो मूल अथर्व वेद है। वस्तु का आकार तभी दीखता है जब उसका रूप परिवेश से भिन्न हो। उसकी गति भी स्थिर आधार की तुलना में होती है। विचार और ज्ञान भी पूर्व सञ्चित ज्ञान (मस्तिष्क या पुस्तक में) तथा समन्वय से विचार करने से होता है। इस रूप में विद् के २ अर्थ हैं-विद् विचारणे (७/१३), विद् चेतनाख्यान निवासेषु (१०/१७७) ।

४ वेदों के वर्गीकरण का आधार है-

ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।

सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥

                                                    (तैत्तिरीय ब्राह्मण ३/१२/८/१)

  कोई वस्तु तभी दीखती है जब वह मूर्ति रूप में हो। अव्यक्त निर्विशेष का वर्णन नहीं हो सकता क्योंकि उसमें कोई भेद नहीं है। पुरुष (व्यक्ति या विश्व) के ४ रूप हैं-केवल स्थूल रूप क्षर दीखता है। अदृश्य अक्षर क्रिया रूप परिचय है-उसे कूटस्थ कहा गया है। इसी का उत्तम रूप अव्यय है-पूरे विश्व के साथ मिला कर देखने पर कहीं कुछ कम या अधिक नहीं हो रहा है। अरात्पर में कोई भेद नहीं है अतः वर्णन नहीं है। वर्णन के लिये भाषा की जरूरत है-उसमें प्रत्येक वस्तु के कर्म के अनुसार नाम हैं या ध्वनि के आधार पर शब्दों को वर्ण (या उनका मिलन अक्षर) में बांटा (व्याकृत) किया है। कुल मिलाकर ६ दर्शन और ६ दर्शवाक् (लिपि) हैं। हनुमान ९ व्याकरण जानते थे-कम से कम उतने प्रकार की भाषा थी। वर्ण-अक्षरों के रूप सदा बदलते रहते हैं, ये भी मूर्ति हैं जिनके बिना कोई मन्त्र नहीं दीखता है। (गीता अध्याय ८, ऋग्वेद १/१६४/४१ में लिपि का वर्गीकरण)

  मूल वेद को अथर्व कहते थे-इसे सर्वप्रथम ब्रह्मा ने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को पढ़ाया था। इसकी २ शाखा हुयी-परा विद्या या विद्या जो एकीकरण है। अपरा विद्या या अविद्या वर्गीकरण है। अपरा विद्या से ४ वेद और ६ अङ्ग हुये (मुण्डकोपनिषद् १/१/१-५)। मूल अथर्व के ३ अङ्ग ऋक्-साम-यजु होने पर मूल अथर्व भी बचा रहा। अतः त्रयी का अर्थ ४ वेद हैं-१ मूल + ३ शाखा। इसका प्रतीक पलाश-दण्ड है, जिससे ३ पत्ते निकलते हैं, अतः पलास ब्रह्मा का प्रतीक है और इसका दण्ड वेदारम्भ संस्कार में प्रयुक्त होता है।  

  अश्वत्थरूपो भगवान् विष्णुरेव न संशयः। रुद्ररूपो वटस्तद्वत् पलाशो ब्रह्मरूपधृक्॥ (पद्मपुराण, उत्तर खण्ड ११५/२२) अलाबूनि पृषत्कान्यश्वत्थ पलाशम्। पिपीलिका वटश्वसो विद्युत् स्वापर्णशफो। गोशफो जरिततरोऽथामो दैव॥(अथर्व २०/१३५/३)

  प्राप्त ज्ञान का प्रयोग महाविद्या है क्योंकि अपनी क्रिया से मनुष्य महः (परिवेश को पभावित करता है। यह गुरु परम्परा से ही प्राप्त होता है अतः इसे आगम कहते हैं। स्रोत को शिव, मन को वासुदेव (वास = चिन्तन का स्थान) तथा ग्रहण करने वाले योषा (युक्त होने वाली) को पार्वती कहा है-

आगतं पज्चवक्त्रात्तु, गतं च गिरिजानने। मनं च वासुदेवस्य, तस्मादागम उच्यते॥ (रुद्र यामल)

   सृष्टि और वेद का आरम्भ- पहले मूल वेद एक ही था। इसे ब्रह्मा ने अपने ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को पढ़ाया था अतः उसे अथर्ववेद कहते थे। बाद में उसका परा और अपरा विद्या मे अङ्गिरा ने विभाजन किया। उनके शिष्य सत्यवह भरद्वाज ने अपरा विद्या का विभाजन 4 वेद और 6 अङ्गों में किया। यह मुण्डक उपनिषद् के प्रथम 5 श्लोकों में है। अतः भरद्वाज गोत्र वालों को आङ्गिरस भरद्वाज कहते हैं। मूल वेद अथर्ववेद होने के कारण इसके बारे में सभी वेदों में लिखा है ऋग्वेद के प्रथम मण्डल में ही 30 बार सामवेद तथा प्रायः 40 बार अथर्ववेद का उल्लेख है। पर इस ऐतिहासिक क्रम को नष्ट करने के लिए अंग्रेजों ने प्रचार किया कि ऋग्वेद सबसे प्राचीन ग्रंथ है। वैदिक क्रम को नष्ट करने के लिए यूनेस्को आदि भी ऐसी घोषणा करते रहते हैं। भारतीय लोग विदेशियों की नकल के अतिरिक्त कुछ नहीं करते। मूल अथर्व से 3 शाखाएं ऋक्, यजु, साम निकली, पर मूल भी बना रहा। अतः त्रयी का अर्थ 4 वेद होता है-एक मूल और 3 शाखा। इसका प्रतीक पलास दण्ड है जिससे 3 पत्ते निकलने पर मूल भी बना रहता है। यज्ञोपवीत के समय वेदारम्भ संस्कार के लिये वेद का प्रतीक पलास दण्ड का प्रयोग होता है। यह वेद निर्माता ब्रह्मा का भी प्रतीक है।

मूल अथर्ववेद का प्रथम श्लोक है-

ये त्रिषप्ताः परियन्ति विश्वाः = जो 3 प्रकार के 7 हैं उनसे सभी विश्व व्याप्त हैं।

  इसके 15 प्रकार के अर्थ हैं। एक अर्थ है कि 7-7 लोक आकाश में, पृथ्वी पर तथा शरीर के भीतर हैं।

 सांख्य दर्शन के अनुसार यह सृष्टि का क्रम है। चूँकि सृष्टि का आरम्भ 3 सप्तक से हुआ, अतः वेद का आरम्भ भी उसी से हुआ तथा मनुष्य भी अपना काम वैसे ही शुरू करता है। आकाश में पहले 7 लोक हुये, तब 8 दिव्य सृष्टि और 6 पार्थिव सृष्टि हुई। 7 लोक हैं-भू, भुवः (ग्रह कक्षा), स्वः (सौर मण्डल), महः (आकाश गंगा की सर्पाकार भुजा में सूर्य के चारों तरफ उसकी मोटाई के बराबर का गोला। इसके 1000 तारा शेषनाग के 1000 सिर हैं), जनः (आकाश गंगा), तपः (दृश्य जगत् जहां तक का प्रकाश यहां तक आ सकता है), सत्य (अनन्त आकाश)।

  हर लोक की चेतना या प्राण का एक स्तर है जो उस लोक की दिव्य सृष्टि है। अव्यक्त स्रष्टा या ब्रह्म सर्वव्यापी है-कुल 8 दिव्य सृष्टि हुई। पृथ्वी पर 6 प्रकार की सृष्टि है-मनुष्य ब्रह्म या विश्व की प्रतिमा है। मनुष्य मस्तिष्क में उतने ही कण (न्यूरॉन) हैं जितना दृश्य जगत् मे आकाश गंगा, या हमारी आकाश गंगा में उतने तारा हैं।एक निर्जीव या मृत (मिट्टी) है। एक अर्ध चेतन वृक्ष है। बाकी 3 जल, स्थल तथा वायु के जीव हैं।

   सामवेद की शाखा-साम का अर्थ महिमा या प्रभाव है। किसी वस्तु का जहां तक प्रभाव होता है, वहीं तक दीख सकता है या अनुभव हो सकता है। हमारे तक सूर्य का प्रकाश पहुंचता है, अतः उसे देख सकते हैं। साम द्वारा ज्ञान होने के कारण भगवान् वेदों में सामवेद हैं (गीता १०/२२)।

  सामान्यतः किसी का प्रभाव १००० व्यक्तियों तक होता है। १००० व्यक्ति एक साथ रह सकते हैं, सेना में इतने लोगों का खाने, रहने की व्यवस्था हो सकती है (हजारे, हजारिका उनके नेता हैं)। हम १००० लोगों को जान सकते हैं। एक साथ रहना = सह + स्र = १०००। सहस्र का फारसी में हस्र = प्रभाव हुआ है।

  आकाश में सूर्य का मुख्य प्रभाव उसके १००० व्यास तक है, जिसे सहस्राक्ष कहा है (सूर्य = चक्षु, अक्ष)। इस सीमा के भीतर शनि तक के ग्रहों का ही हम पर प्रभाव होता है, अतः सूर्य को सहस्रांशु कहते हैं। पृथ्वी का गुरुत्व प्रभाव भी उसके व्यास के १००० गुणा तक है जिसे पुराणों में १ लाख योजन व्यास का जम्बू द्वीप कहा गया है, जहां पृथ्वी व्यास के १००० भाग को १ योजन कहा गया है।  

  अतः सामवेद को सहस्रवर्त्मा कहा है। पृथ्वी के भीतर ३ धाम हैं तथा बाहर के धाम क्रमशः २ गुणा बड़े हैं। १० बार २ गुणा करने पर (२ का १० घात) १००० गुणा होता है। अतः १००० गुणा आकार तक १३ धाम होंगे, इसलिये चरण-व्यूह में सामवेद के १३ भेद ही कहे हैं। सामतर्पण विधि में १३ शाखाओं की सूची है-राणायन, शाटमुन्य, व्यास, भागुरि, औलुण्डि, गौल्गुलवी, भानुमान औपमन्यव, काराटि, मशक गार्ग्य, वार्षगण्य, कुथुम, शालिहोत्र, जैमिनीय।

   ३ साम मुख्य हैं अतः विष्णु सहस्रनाम में त्रिसामा नाम है। सृष्टि निर्माण में ३ साम हैं-अप् (जल जैसा फैला पदार्थ), वराह (मिश्रण की निर्माण अवस्था), भूमि (सीमा बद्ध पिण्ड)। आकाश में सूर्य के ३ प्रभाव क्षेत्र विष्णु के ३ पद हैं-ताप, तेज, प्रकाश (१००, १०००, लाख व्यास तक)। अन्य प्रकार से इनको अग्नि, वायु, रवि (आदित्य) कहा है जो ११, २२, ३३ अहर्गण (धाम) तक हैं।

   किसी पिण्ड के ३ प्रकार के प्रभाव हैं-बाहर की तरफ (कुथुमि), भीतर की तरफ (जैमिनि), रमणीय क्षेत्र (राणायनीय-अघमर्षण सूक्त में महे रणाय चक्षसे)। अतः ३ प्रमुख शाखा उपलब्ध हैं-कुथुमि, जैमिनीय, राणायनीय। 

  कुथ-कुत्स अवक्षेपणे (धातु पाठ १०/१६५, हिन्दी में थूक, ओड़िया में छेप), कुथ पूतीभावे (धातु ४/१२-दुर्गन्ध आना, धनिया भी गन्ध युक्त है), कुथ संश्लेषणे (समाज में एकता का दायित्व ब्राह्मणों का है जो इसके लिये शिक्षा देते हैं)।

 जमु अदने (धातुपाठ १/३१७)-जैमिनीय भीतर ग्रहण करने का साम है, जिमाना = भोजन कराना।

  रण शब्दार्थः गत्यर्थः (धातुपाठ १/३०३, ५३९)-जहां तक गति या शब्द द्वारा प्रभाव हो-राणायनीय शाखा।


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भागवत दर्शन: वेदों के नामकरण का वैज्ञानिक विवेचन
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