बर माँगत मन भइ न पीरा। गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा।।

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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   श्रीरामकथा में श्रीराम के एवं भरतजी के चरित्र की मार्मिक कथाएँ पत्थर को भी पिघलाने वाली हैं। श्रीराम के वनगमन हो जाने तथा महाराज दशरथजी के परलोक गमन के पश्चात् भरत और शत्रुघ्न के ननिहाल से लौटने के उपरान्त ही भरतजी के चरित्र की विशेषताओं की झलक मानस में यत्र-तत्र-सर्वत्र अपनी अमित छाप छोड़ती चली जाती है। भरत श्रीराम को महल में न देखकर अत्यन्त ही दु:खी हो जाते हैं। माता कैकेयी भरत को प्रसन्न करने के लिये सारी कथा सुना देती हैं। तब भरत दु:खी होकर उससे कहते हैं-

 बर  माँगत   मन  भइ  न  पीरा।

   गरि न जीह मुँह परेउ न कीरा।।

अरि बेरिन महाराज दशरथजी से दो वर माँगते हुए तुझे पीड़ा नहीं हुई। प्रथम वर में राज्य माँगते हुए तेरी जिव्हा गल क्यों नहीं गई तथा दूसरे वर में श्रीराम को वनवास माँगते हुए तेरे मुँह में कीड़े क्यों नहीं पड़ गये।

भरतजी ने मात्र इतना ही नहीं उससे भी अधिक माता कैकेयी को जो कुछ कहा वह श्रीरामचरित मानस में गूढ़ गम्भीर-चिन्तन-मनन करने का विषय है-

हंसबंसु  दशरथु  जनकु, राम  लखन  से  भाइ।

  जननी तूँ जननी भई, बिधि सन कछु न बसाइ।।

  भरत जी माता कैकेयी से कहते हैं मुझे सूर्यवंश, दशरथजी जैसे पिता और श्रीराम-लक्ष्मण जैसे भाई मिले, किन्तु हे जननी। मुझे जन्म देने वाली माता तू हुई। क्या किया जाय विधाता के आगे किसी का कुछ भी वश नहीं चलता है-

 इस दोहे को वाल्मीकि रामायण के अयोध्याकाण्ड में सर्ग 35 के सन्दर्भ में देखा जाए तो ऐसा भी संकेत एवं भावार्थ हो सकता है। भरत अपनी माता कैकेयी से कहते हैं कि हे माँ तू अपनी माता (नानी) के समान हो गई तथा जैसी तेरी माता माता न होकर कुमाता थी, तू ऐसी ही हो गई। इस कुमाता के प्रसंग को वाल्मीकि रामायण में श्रीराम के वनगमन के प्रसंग में मंत्री सुमंत्र एवं कैकेयी के बीच एक अन्तर्कथा के माध्यम से किया गया है- 

  ऐसी कथा आती है कैकयी के पिता अश्वपति को एक महात्मा से वरदान मिला था वह पृथ्वी पर जितने भी जीव-जन्तु, कीड़े- मकोड़े, पशु-पक्षी सभी की आवाज सुन और समझ सकते थे,,लेकिन इस वरदान के साथ एक श्राप भी था कि.. वह इन सब की बाते किसी को भी बताएंगे तो उनकी उसी वक्त मृत्यु हो जाएगी..

     एक बार कैकय नरेश कैकयी की माँ पृत्वी के साथ चौके में बैठकर भोजन कर रहे थे। एक चींटी चावल का एक दाना लेकर जा रही थी चौके के बाहर दूसरी चीटी ने विनम्रता पूर्वक कहा-ये दाना मुझे दे दो, वो बोली-तुम अंदर जाकर ले आओ, उसने कहा कि मै गन्दगी से गुजरकर आई हूं अतः अपवित्र हूं, चौके मैं नहीं जा सकती। पहली चींटी ने सहृदता का परिचय देकर दाना उसे सौप दिया और फिर दूसरा दाना लेने चौके में लौट आई। 

       यह संवाद सुनकर कैकय नरेश ने अनुभव किया कि मेरे राज्य की चींटियां भी पवित्रता-अपवित्रता का कितना ख्याल करती है। वे एकाएक हंसने लगे। महारानी पृथ्वी ने उनकी प्रसन्नता का कारण जानना चाहा,,महाराज ने कहा में अगर बताऊंगा तो मेरी मृत्यु हो जाएगी लेकिन कैकयी की माँ को कुछ संदेह था और वो हठ करने लगी जिद्द पर अड़ गई मुझे बताइए,,बार बार राजा के समझाने पर भी रानी पृथ्वी ने हठ नही छोड़ी,,यहाँ तक कह दिया तुम जियो या मरो मुझे कोई फर्क नही पड़ता किन्तु मुझे ये चींटिया क्या बोल रही थी वो बताओ,,,तुरन्त राजा उन महात्मा जी के पास गए और सारी कहानी महात्मा जी को बताई कैसे रानी कोप भवन में जिद्द पर अड़ी बैठी है,,,महाराज कोई उपाय बताइए,,महात्मा जी ने पुनः दोहराया राजन वचन बदला नही जा सकता,,,यह सत्य है अगर आपने किसी को कुछ भी बताया तो उसी वक्त आपकी मृत्यु हो जाएगी अब निर्णय आपको लेना है,,,बहुत सोच विचार कर राजा ने रानी का परित्याग कर राज्य से बाहर कर दिया वे जान गए थे मेरी पत्नी को मेरे जीवन मेरी भलाई की कोई चिंता नही है,,इसी बात को भरत जी कहते है,,तुम्हारे पिता तो सही समय पर उचित निर्णय लेकर बच गए किन्तु मेरे पिता महाराज दशरथ तो बड़े सीधे और भोले है तेरी कुटिलता को समझ नही पाए तेरे पिता की तरह अगर निर्णय ले लेते तो उनके भी प्राण बच जाते,,,जननी तू जननी भई... 

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