भक्त और भगवान् की महिमा

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 आत्मविद्याविलासः ग्रन्थ में श्रीसदाशिवेन्द्रसरस्वती महाभाग ने जो लक्षण अखिलागमार्थतत्त्वज्ञ यतीन्द्र के बताये हैं, जन्मातरीयसाधनाओं से सुसम्पन्न देवनमस्या महामति शबरी माता जी में भी वही लक्षण स्फुट थे ।

  वे जातिगत अभिमान से विहीन थीं, समस्त प्राणियों में पूर्णता का दर्शन करती थीं, वे भूरिभागा धन्यतमा माता अखिलागमार्थतत्त्वज्ञस्वरूपा होकर भी मूर्खों की तरह ही बाहर से रहती हुईं गोपनीय आत्मतत्त्व में ही विचरण करतीं थीं ।

   अहो ! ये तो यहीं के भिल्लवन की भिलनी है , यहीं के निवासी भीलों , किरातों के वंश में पैदा हुई है, अधम है, जातिभ्रष्ट नीच होकर भी ब्राह्मणों सा आचार करती देखी जाने से कर्मभ्रष्ट भी है इत्यादि पूर्वक समाज के एक शिष्टवर्गविशेष ने उनके प्रति शंकापंककलंकों की चपेट में आकर उनको जो कुछ नाम दे कर उनको प्रसिद्ध कर दिया, उन समदर्शी माता ने सब हरिप्रसाद समझ कर ग्रहण किया। 

   परन्तु देखिये कि प्रीत की रीत रंगीलो हि जानै !, इन सब बाह्य सांसारिक मान -अपमानों को तो , प्रारब्धं बलवत्तरं खलु विदां भोगेन तस्य क्षयः , सम्यग्ज्ञानहुताशनेन विलयः प्राक्सञ्चितागामिनाम् (अर्थात् विद्वान् का प्रारब्ध कर्म अवश्य ही बलवान् होता है , उसका क्षय भोगने से ही हो सकता है , उसके अतिरिक्त पूर्वसंचित व आगामी कर्मों का तो तत्त्वज्ञान रूप अग्नि से क्षय हो जाता है ) ऐसा रहस्य जानने वालीं उन देवताओं से भी नमस्कृत होने वालीं माता ने , बिना किसी विरोध के सहर्ष स्वीकार कर लिया , पर सर्वज्ञ , स्वतन्त्र ईश्वर ने क्या किया ! जिन अपनी प्राणप्रियतमा सीता जी के वियोग में रो रो कर धरती पर गिरते पड़ते वियोग का अनुभव कर रहे थे, वही उन माता के प्रेम के वशीभूत होकर उनसे मिलन पर अपार औत्सुक्य का , हर्ष का अनुभव करने लगे ! 

   सबका सन्ताप श्री भगवान् हरण करते हैं पर श्री भगवान् का भी सन्ताप हरण किसने किया ? तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी सन्तुष्टो येनकेनचित् इस गीतोक्त प्रियभक्तलक्षण की मूर्तिमान स्वरूपा माता शबरी माता ने । ऐसी सर्वसन्तापहारिणी माता भला कभी तुच्छ दैहिक दैविक भौतिक तापों से असन्तुष्ट होती ? कदापि नहीं । इस प्रकार आत्मसन्तुष्ट होने पर ही तो ब्राह्मण सही अर्थों में स्वराज्यसिंहासन पर विराजमान महीभुज होता है न । पर ऐसे दिग्गज भक्तराजों को पहचाने कौन ! बड़े बड़े विज्ञेय भी भगवान् के परम प्रेमी भक्तों को जान नहीं पाते , यही तो भक्तों की दिव्यता है। 

यॉर चित्ते कृष्ण प्रेम करये उदय । 

ताँर वाक्य क्रिया मुद्रा विज्ञेय न बुझय ।। 

   पर एक ओर भक्तों की महिमा का पार नहीं तो दूसरी ओर भगवान् भी कम नहीं , समस्त जगत् को अपने वशीभूत करने वाले वे शिष्ट ब्राह्मणों के परम आदर्श , कैवल्य के नायक , अनन्तरूप , शेषशायी भगवान् नारायण की अपार करुणा, कृपा, भक्तवत्सलता तो देखो कि लोकप्रसिद्ध ऐसी किरातवंश की अधम पतिता शबरी को शंकापंक में उससे भी बेसुध पड़ी गौमाता की तरह समझते हुए उद्धार करने आये वे प्रभु उनकी अतुल्य प्रेम भक्ति के वशीभूत होकर उनके घर जाकर उन्हीं कथित शिष्टों के सामने उनको अपना आतिथ्य प्रदान किया , उन्हीं का स्वपरीक्षण से प्रदत्त अवशिष्ट पत्र, पुष्प, फल, जल ग्रहण कर ये दिखा दिया कि मैं क्यों ब्रह्मण्यदेव कहलाता हूं , क्यों अपनी छाती पर ब्राह्मणों का चरण प्रहार पाता हूं, क्यों मैं अपने माता , पिता , परिवार सबको छोड़कर अपने प्रेमी भक्त ब्राह्मणों के पास दौड़ता हुआ चला आता हूं ! ब्राह्मणों के ब्राह्मणत्व की रक्षा करने वाला मुझे क्यों कहा जाता है ! श्रौत - स्मार्त्त अपनी वैदिक परम्पराओं की रक्षा का भार मैं कैसे उठाकर सृष्टि का परिपालन करता हूं , ये सब भगवान् श्रीराम का जीवन- चरित्र पग पग पर सिखाता है । विनम्रता की पराकाष्ठा उन माता ने भक्तिरसवृद्धि व लोककल्याण के लिये ही तो नवधा भक्ति का परिचय श्रीभगवान् से पूछा था ,श्रीभगवान् ने भी उनका यह मनोभाव जानकर ही उनको सन्तुष्ट किया , अन्यथा भक्ति के सर्वोच्च सिंहासन पर विराजमाना उन भक्तिमती माता को भक्तितत्त्व का अज्ञान कहॉ था !  स्वयं विधाता श्रीब्रह्माजी भी भक्त और भगवान् की ये गाथा गाते हुए भावविह्वल हुए बिना नहीं रह पाते, तो हमारी क्या गति हो । नारायण, नारायण , नारायण ।। नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते । 

नमो ब्रह्मण्यदेवाय गोब्राह्मणहिताय च ।

जगद्धिताय कृष्णाय गोविन्दाय नमो नमः ।।

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