ऋग्वेद की २१ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शाकल-शाखा और शांखायन शाखा । यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में...
ऋग्वेद की २१ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शाकल-शाखा और शांखायन शाखा ।
यजुर्वेद में कृष्णयजुर्वेद की ८६ शाखाओं में से केवल ४ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- तैत्तिरीय-शाखा, मैत्रायणीय शाखा, कठ-शाखा और कपिष्ठल-शाखा
शुक्लयजुर्वेद की १५ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ग्रन्थ ही प्राप्त है- माध्यन्दिनीय-शाखा और काण्व-शाखा ।
सामवेद की १,००० शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त है- कौथुम-शाखा और जैमिनीय-शाखा।
अथर्ववेद की ९ शाखाओं में से केवल २ शाखाओं के ही ग्रन्थ प्राप्त हैं- शौनक-शाखा और पैप्पलाद-शाखा।
उपर्युक्त १२ शाखाओं में से केवल ६ शाखाओं की अध्ययन-शैली प्राप्त है- शाकल, तैत्तरीय, माध्यन्दिनी, काण्व, कौथुम तथा शौनक शाखा । यह कहना भी अनुपयुक्त नहीं होगा कि अन्य शाखाओं के कुछ और भी ग्रन्थ उपलब्ध हैं, किन्तु उनसे शाखा का पूरा परिचय नहीं मिल सकता एवं बहुत-सी शाखाओं के तो नाम भी उपलब्ध नहीं हैं ।
अथर्वण संहिता
प्राचीन छान्दस में रची अथर्वण संहिता में ऐसा बहुत कुछ है जो इसे त्रयी नाम से प्रसिद्ध बाकी वैदिक संहिताओं ऋक्, साम और यजु से अलग करता है। सम्पूर्ण संहिता के मंत्रद्रष्टा ऋषि और कुल केवल एक हैं - अथर्वांगिरस। परम्परा की मानें तो लगभग 3000 ई.पू. में कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा वैदिक संहिताओं को व्यवस्थित किया गया। वह समय बहुत ही उथल पुथल का था - आर्यावर्त के दो प्रसिद्ध शक्तिशाली राजकुलों कुरु और पांचाल के बीच वैमनस्य, वैदिक मुनियों की उनके पक्ष विपक्ष में गोलबन्दी, 'लौकिक' और 'अलौकिक' के बीच बढ़ता विभेद, कर्मकांडों की जटिलता के कारण बौद्धिक वर्ग से जनसामान्य का दुराव, अवैदिक नागादि परम्पराओं से वैदिकों का संघर्ष और लुप्त होती उत्तर पश्चिम भारत की जीवन संस्कृति जननी महान सरस्वती!
ऐसे में थोड़े अंतराल से दो समनामधारी मेधावी व्यक्तित्त्व उभरते हैं - कृष्ण। एक जो कि एक साथ ऋषि पराशर, कुरुवंश और निषाद कुल से जुड़ता है - द्वैपायन। यह लोकधर्मी व्यक्ति एक ओर तो वैदिक ऋत की संकल्पना को लोक से जोड़ता है तो दूसरी ओर राजवंशों में अपने प्रभाव से उथल पुथल को शमित करने के प्रयास करता है। यह व्यक्ति जानता है कि स्वास्थ्य और कल्याण से जुड़ी अथर्वण विद्या को बिना संहिताओं में स्थान दिये लोक और वेद का वैभिन्य बना रहेगा। उसके इस प्रयास का स्थापित 'राज' ऋषि संस्थाओं द्वारा घनघोर विरोध होता है जिसकी अगुवाई हस्तिनापुर का पुरोहित वर्ग करता है।
समान पुरखे कुरुओं की ही एक पुरानी शाखा यदु में जिसे कि अभिशाप है कि उनके यहाँ कोई राजा नहीं हो सकता, यादव कृष्ण का उद्भव होता है। स्पष्ट है कि यह शाखा विकासशील वैदिक कर्मकांडों से तालमेल न मिला पाने के कारण पीछे रह गयी और इस कारण ही अधिक 'लौकिक' हैं। पशुचारी गोपों के सान्निध्य में रहने वाले इस अ-राजस कृष्ण की दृष्टि बहुत ही व्यापक और नवोन्मेषी है। छलिया तो वह है ही! उसकी विराट सोच द्वैपायन के प्रयासों से इतर चलती है। वह कृषि आधारित समांतर आराधना परम्परा को पुन: व्यवस्थित करता है। ध्यान रहे कि सभी वैदिक सत्र ऋतु और कृषि चक्र आधारित ही थे और आर्थिक गतिविधियों से जुड़े थे। कृष्ण सागर पार के यम और मग प्रदेशों से व्यापारिक सम्बन्धों को सुदृढ़ करता है और अपने उद्योग से जीवित ईश्वर की उपाधि प्राप्त करता है।
लेकिन इन दोनों पर भारी है सूखती सरस्वती। सरस्वती जिसके तट पर, जिसके पवित्र कुंडों पर पवित्र ऋचायें गढ़ी जातीं, जो वर्ष भर चलने वाले श्रौत सत्रों की वाहिका है, अब सदानीरा नहीं है।
इस पृष्ठभूमि में रहने के नये स्थान, व्यापार और आर्थिक गतिविधियों के नये केन्द्रों के अन्वेषण और स्थापना के उद्योग होते हैं। वन कटते हैं, वैदिकों और अवैदिकों में आपसी और विरुद्ध संघर्ष होते हैं। निर्बल होते कुरु और पांचाल घरानों का भीतरी संघर्ष और उससे जुड़े तमाम समीकरणों के कारण भारत युद्ध होता है जो अपने प्रसार और विनाश के कारण कालांतर में महान कहलाता है। यादव कृष्ण सूत्रधार होता है और द्वैपायन कृष्ण महाविनाश की गाथा लिखता है।
परिणामत: संहिता सृजन की धारा क्षयी होती है और ईसा से लगभग 1900 वर्ष पहले तक सरस्वती के साथ ही अंतत: सूख जाती है। ऋषि द्वैपायन और यादव कृष्ण मिथकीय महापुरुषों का आकार ले लेते हैं जिनके नाम तमाम चमत्कार कर दिये जाते हैं। द्वैपायन अब वेदव्यास हैं, संहितायें अपौरुषेय ईश्वर वाणी हैं जिन्हें द्वैपायन द्वारा सुनिश्चित किये गये घरानों द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी सँजोना है। अथर्वण परम्परा अब संहिताओं में स्थापित है जिसके आचार्य 'ब्रह्मा' कहलाते हैं।
इसकी नौ शाखाओं में अब केवल दो शाखायें बची हैं - शौनक और पिप्पलाद। अन्य भागों के अलावा शौनक शाखा वर्तमान गुजरात और उत्तर प्रदेश में पाई जाती है तो पिप्पलाद शाखा उड़ीसा में।
आरम्भ में वाणी के देवता या देवी की स्तुति की परम्परा सम्भवत: अथर्व से ही प्रारम्भ हुई। पिप्पलाद का स्त्रीसूचक शन्नो देविर्भिष्टये हो या शौनक का पुरुष सूचक ये त्रिषप्त..वाचस्पति ...हो, अनुमान यही होता है।
अथर्वण परम्परा के साथ एक और खास बात है कि यह पश्चिम से भी पुरानी और अलग थलग विकसित हुई पूरब की संस्कृति से कुछ अधिक ही जुड़ी है। इसके आचार्य पिप्पलाद और वैदर्भी इक्ष्वाकु वंश के राजकुमार हिरण्यनाभ के राज्य में निवास करते हैं। यह वही वंश है जिसमें कृष्णों से भी 'एक युग पुराने' राम का जन्म हुआ था।
आश्चर्य नहीं कि कालांतर के पुरबिया प्रतिद्वन्द्वी धर्म जैन और बौद्ध अथर्वण परम्परा से कुछ अधिक ही खीझे दिखते हैं। वे इसे अग्गवान या अहवान वेद कहते हैं।
अथर्वण संहिता - 2
(क) किताबी मजहबों के आने से पहले संसार भर में स्त्री पुरुष सम्बन्ध समग्रता में देखे जाते थे। उनमें गोपन तो था किंतु घृणास्पद कुछ नहीं था। विक्टोरियन 'पवित्रता' और इव की कथित पतनमुखी प्रलोभनी वृत्ति को ले स्त्री के प्रति इसाई घृणा भाव का जुड़ाव 'नारी नरक का द्वार' की चरम नकारात्मकता के साथ हुआ तो स्त्री पुरुष सम्बन्धों के प्रति जो सहज स्वीकार्य भाव था वह विकृत हुआ। सभ्यता का नागर देहात के गँवार पर चढ़ बैठा।
नवरात्र पर्व स्त्री तत्त्व को समझने का पर्व है। ऋतु परिवर्तन के साथ जननी के नव रूपों की आराधना का पर्व है। वर्ष में विषुव के दो दिन जब कि दिन रात बराबर होते हैं और ऋतु परिवर्तन की भूमिका बनती है, धरती गहिमणी होती है, नभ आतुर होता है तो सृष्टिजनक काम के अनुशासन को नवरात्र पर्व मनाया जाता है। छ: महीने पश्चात 20 मार्च को विषुव पड़ेगा और 31 मार्च को युगादि या वर्ष प्रतिपदा यानि नववर्ष का प्रारम्भ। मदनोत्सव कामपर्व उच्छृंखल होली बीत चुकी होगी। पुन: अनुशासन पर्व होगा मातृ आराधना के नव दिनों के रूप में।
इस बार नवरात्र के पश्चात विजया पड़ेगी यानि सुपुरुष राम की कुपुरुष रावण पर विजय। उस समय रामनवमी पड़ेगी यानि राम का जन्म। यह जो जन जन में रमा राम है न, बहुत पुराना है। ऋतुचक्र के साथ उसके जन्म और विजय को देखिये। मातृशक्ति उपासना के साथ उसकी संगति को समझिये और समझिये कि ये पर्व महज प्रदर्शन या ढकोसले नहीं, समाज के नियामक रूप में ऋतुचक्र की संगति में गढ़े गये हैं। अब यह हम पर है कि हम इनका क्या करते हैं।
(ख) ऋचि यजुषि साम्नि शांतेऽथ घोरे - गोपथ ब्राह्मण
द्वैपायन व्यास द्वारा संकलन और पुनर्व्यवस्थन के पहले एक समय ऐसा भी था जब पाँच वेद थे। यह जो अथर्ववेद है न, उसकी दो धारायें थीं - अथर्वण और अंगिरा। अथर्वण धारा भैषज विद्या यानि आयुर्वेद से सम्बन्धित थी जिसे 'शांत' कहा गया और आंगिरस धारा यातु यानि जादू, टोने, टोटके से सम्बन्धित थी जिसे 'घोर' कहा गया। आंगिरस धारा के ही हैं देवगुरु वृहस्पति और ऋषिशिरोमणि भृगु भी ।
छान्दोग्य उपनिषद में देवकीपुत्र कृष्ण को घोर आंगिरस का शिष्य बताया गया है। कृष्ण मगदेश (वर्तमान ईरान) से सूर्यपूजक अग्नि परम्परा के (सकलदीपी, शाकल या शकद्वीप के वासी, वर्तमान पारसी) ब्राह्मणों को बुला कर मूलस्थान (मुल्तान) में सूर्यमन्दिर की स्थापना करवाते हैं। ये सकलदीपी आज भी यातुविद्या प्रवीण माने जाते हैं। कृष्ण के पुत्र साम्ब का कोढ़ अर्कक्षेत्र कोणार्क में इन्हीं पुरोहितों के निर्देशन में की गयी आराधना से दूर होता है।
पुराण भी मगदेशियों के चार वेद बताते हैं - वाद, विश्ववाद, विदुत और 'आंगिरस'।
एक बात स्पष्ट है कि देव दानव या आर्य अनार्य के आजकल के अकादमिक भेद अति सरलीकरण हैं और दूसरी यह कि वैदिक संस्कृति का प्रसार वर्तमान भारत की सीमाओं से परे बहुत दूर तक था। कतिपय भेदों के साथ उनमें आपसी सम्वाद, सम्पर्क और प्रतिद्वन्द्विता भी थी। तीसरी यह कि चाहे मगदेशियों को बुलाना हो या द्वारिका तट से समुद्र मार्ग दवारा यमदेश (मालागासी, मेडागास्कर?) से सम्पर्क बनाना हो, कृष्ण का योगदान अप्रतिम है।
(ग)ये जो राम और कृष्ण हैं न, बहुत रहस्यमय हैं या यूँ कहूँ कि अथर्वण धारा में बढ़ते हुये मेरे लिये रहस्यमय हुये जा रहे हैं। अवतारवाद के पीछे बहुत कुछ छिपा हुआ है जो आज दिखता ही नहीं। विकासवादी वाममार्गी क्षत्रिय जनक के दरबार को उपनिषद और आरण्यकों से जुड़ा और वेद परवर्ती बताते हैं लेकिन ऐसा है क्या?
बृहदारण्यक को ही ले लीजिये। यह बहुत पुरानी शतपथ परम्परा का अंश है। इसके पाँचवे अध्याय के तेरहवे ब्राह्मण में चार मंत्र हैं। ये चार वेदों से एक एक कर जुड़ते हैं। पहले में ऋग्वेद के लिये उक्थं का प्रयोग है, दूसरे और तीसरे के यजु: और साम स्पष्ट हैं। चौथे के लिये 'क्षत्रं' का प्रयोग है:
'क्षत्रं प्राणो वै क्षत्रं हि वै क्षत्त्रं त्रायते हैनं प्राण: क्षणितो: प्र क्षत्त्रमन्नमाप्नोति क्षत्त्रस्य सायुज्य ँ सलोकतां जयति य एवं वेद।'
आचार्य शर्मा अर्थ करते हैं:-
प्राण ही क्षत्र (बल) है, इसलिये प्राण की उपासना करें। प्राण ही क्षत्र है अर्थात् इस शरीर की शस्त्रादि जनित क्षति से रक्षा करता है। अत: क्षत से रक्षा करने के कारण प्राण का क्षत्रत्व प्रसिद्ध है। अन्य किसी से त्राण (रक्षा) न पाने वाले क्षत्र (प्राण) को प्राप्त करता है। जो भी व्यक्ति इस तरह जानता है, वह क्षत्र के सायुज्य और सालोक्य को प्राप्त कर लेता है।
अथर्वण का क्षात्र से सम्बन्ध प्रमाणित है चाहे भैषजविद्या द्वारा प्राण रक्षा हो या यातुविद्या द्वारा या शस्त्रविद्या द्वारा।
आचार्य शर्मा आगे अन्यत्र बताते हैं:-
गायत्री का चतुर्थ पद 'परो रजसे सावदोम्' भी आठ अक्षरों वाला कहा गया है। विश्वामित्र कल्प तथा प्राचीन संध्या प्रयोगों में इसका उल्लेख मिलता है। उपनिषद् का कथन है कि गायत्री के तीन पाद ही जपनीय हैं, यह चौथा पाद 'दर्शत' पद - देखा जाने वाला - अनुभूतिगम्य कहा गया है। इसका पदच्छेद होता है - परो रजसे - असौ- अद: ॐ अर्थात रजस् पदार्थ या प्रकाश से परे यह और वह सब ॐ अक्षररूप ब्रह्म ही है। जब साधक के प्राणों के स्पन्दन गायत्री के तीन पदों से एकात्मकता स्थापित कर लेते हैं, तो चौथे पद का आभास-अनुभव होने लगता है। इसलिये इसे दर्शत पद कहा है।... (विद्रोही) विश्वामित्र पर अटक जाता हूँ। याद आता है कन्हैयालाल मुंशी के उपन्यासों लोपामुद्रा लोमहर्षिणी में कहीं एक अवैदिक स्त्री को गायत्री का दर्शन कराता और उसे आश्रम की प्रथम पूजनीया बनाता विद्रोही विश्वामित्र। ... 'दर्शन' महत्त्वपूर्ण है। महत्त्वपूर्ण हैं राजा के दरबार में दार्शनिक बहसें, महत्त्वपूर्ण है philosophy के लिये दर्शन शब्द का प्रयोग और महत्त्वपूर्ण है मंत्र के लिये 'द्रष्टा' की परिकल्पना। कहीं यह विश्वामित्र की गायत्री के बाद ही तो प्रचलित नहीं हुई?
पहले देख चुका हूँ - इक्ष्वाकुओं की राम धारा में फलते फूलते अथर्वण आचार्य। यह रजस, यह प्रकाशमार्गी सूर्य, अग्नि और उससे भी परे जाने की क्षात्र अभिलाषा, गोपन यातु, अवतारवाद, विष्णु के वक्ष पर लात मार कर उसकी महत्ता सिद्ध करते 'आंगिरस' परम्परा के भृगु जाने कितने संकेत छिपे हुये हैं।
आ नो भद्रा: क्रतवो यंतु विश्वत:
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