भगवान तो भक्तों एवं सच्चे सन्तों के ही अधीन होते हैं । भागवत में उद्धव से स्वयं भगवान ने कहा है - अहं भक्त पराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ...
भगवान तो भक्तों एवं सच्चे सन्तों के ही अधीन होते हैं । भागवत में उद्धव से स्वयं भगवान ने कहा है -
अहं भक्त पराधीनो ह्यस्वतन्त्र इव द्विज ।
मैं अपने भक्तों के वश में रहता हूँ, मेरे उपर मेरी कोई स्वतंत्रता नहीं है।
सन्त मिले ये सब टले, काल जाल जम चोट।
सीस नवावत ढहि पड़े ,लख पापन की पोट।।
सन्तों की परख करने के बाद जब भी उन से मिलने के लिए जाइये ,अपनी माया और अभिमान दोनो को ही अपने घर पर छोड़ दीजिए।
जब माया अभिमान को छोड़ कर घर से आगे जाते हैं ,तब प्रत्येक पग पग पर यज्ञ के समान पुण्य की प्राप्ति होती है।
सन्त के मिलते ही काल जाल और यम की चोट सब तल जाते हैं ,और जैसे ही आप उनके चरणों मे सीस झुकते हैं ,लाखो पापों की पोटली जो अपने अपने सर में रखे बैठे हैं ,गिर कर चूर चूर हो जाती है।
दुर्लभो मानुषो देहो देहीनां क्षणभंगुरः।
तत्रापि दुर्लभं मन्ये वैकुण्ठप्रियदर्शनम्॥
मनुष्य-देह मिलना दुर्लभ है। वह मिल जाय फिर भी क्षणभंगुर है। ऐसी क्षणभंगुर मनुष्य-देह में भी भगवान के प्रिय संतजनों का दर्शन तो उससे भी अधिक दुर्लभ है।
नाहं वसामि वैकुण्ठे योगिनां हृदये न वै।
मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद ॥
हे नारद ! कभी मैं वैकुण्ठ में भी नहीं रहता, योगियों के हृदय का भी उल्लंघन कर जाता हूँ, परंतु जहाँ मेरे प्रेमी भक्त मेरे गुणों का गान करते हैं वहाँ मैं अवश्य रहता हूँ।
संत संग अपबर्ग कर कामी भव कर पंथ ।
कहहिं संत कबि कोबिद श्रुति पुरान सदग्रंथ ॥
श्रीरामचन्द्र महाराज सनकादि (सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार) से कहा है कि संत का संग ही अपवर्ग का- मोक्ष का देने वाला है- कामी, सांसारिक का नहीं। सांसारिक (कामी) का संग तो आवागमन रूप भवसागर गिराने-भरमाने-भटकाने वाला मार्ग होता है । सन्त, कवि, पण्डित, वेद, पुराण तथा (सभी) सद्ग्रन्थ ही ऐसा कहते हैं ।
गगन मंडल के बीच झर झर झरे अंगार ।
संत न होते जगत् में तो जल मरता संसार ।।
संत मिलन जब तक पुण्यों की पूँजी इकट्ठी नहीं और भगवत् कृपा नहीं होता, तब तक कदापि नहीं होता । तुलसीदास जी ने ठीक ही लिखा जो कि श्रीरामजी की वाणी है कि-
पुण्य पुंज बिनु मिलहि न संता ।
सतसंगति संसृति कर अंता ॥
जैसा कि कहा गया है, ठीक वही बात यह चौपाई अथवा ठीक इस चैपाई की ही बात मुझ सन्त ज्ञानेश्वर द्वारा कहा गया है बल्कि भगवान श्रीरामचन्द्र जी ने इसी चौपाई के द्वार सत्संग की बात भी बता दिये हैं कि ‘जब तक पुण्य की पूँजी (राशि) एकत्रित नहीं होती, संत नहीं मिलते और जब संत नहीं मिलते, तो सत्संग नहीं मिलता और सत्संग मिले बगैर आवागमन रूपी संसार चक्र से आप को मुक्ति कदापि नहीं मिल सकती है ।’
सत्संग ही है जो संसृति यानी आवागमन रूपी संसार चक्र को मिटा सकता है- आवागमन चक्र का अन्त कर सकता है । इसी बात को ध्यान में रखते हुये ही संत-महिमा की महत्ता स्वयं-खुद भगवान् के पूर्णावतार रूप भी श्रीरामचन्द्र जी महान् उदारता देखिये कि अपने अनन्य सेवक-भक्त रूप संत जन की महिमागाते हुये स्वयं अपने से भी बड़ा महत्व- अपने से भी बड़ी मर्यादा प्रदान कर देते हैं। परम प्रभु के उदारता की भी कोई सीमा है ?
कोई नहीं । इसीलिये तो वे असीम भी कहलाते हैं । परमप्रभु का प्रसाद रूपी भगवद्ज्ञान प्राप्त सेवक दास रूप संतों पर अपने अनन्य सेवकों पर कितना ही ख्याल रहता है कि क्या कहा जाय । माता सवरी को उपदेश देते हुये श्री राम जी ने यहाँ तक कह दिया कि-
सप्तम भगति मोहिमय जग देखा ।
मोंते संत अधिक करि लेखा ।।
अर्थात् हे शबरी ! नवधा भक्ति के अन्तर्गत सातवीं भक्ति यह है कि सम्पूर्ण जगत् को मेरे मय देखें-भगवद्मय देखे तथा संतजन को मुझसे भी अधिक माने- पुनः यानी सारे संसार को तो मुझमय जाने-देखे-भगवद्मय जाने-देखें, मगर संत जन को- लेकिन संतों को तो मुझसे भी और ही अधिक लखे-जाने-माने-देखें ।
सुत दारा अरु लक्ष्मी पापी घर भी होय ।
संत समागम हरि कथा तुलसी दुर्लभ दोय ॥
अर्थात् पुत्र-पुत्री परिवार-पत्नी, धन-दौलत आदि तो पापी के घर भी हुआ करता है इसलिये यह बहुत बड़़ी बात नहीं है- इसीलिये इसकी कोई खास मर्यादा नहीं है कि हमें तो कई-कई पुत्र-पुत्री हैं, काफी सुन्दर पत्नी है, काफी अपार धन-सम्पदा है । हम बहुत ही भरे-पूरे घर-परिवार वाले है । हम काफी धन-दौलत वाले हैं । हम काफी सुखी-सम्पन्न हैं । हमको अब कोई परवाह नहीं है- कोई बात नहीं है ।
रावण के पास तो पुत्र एवं पौत्रों का भंडार था, कंस एवं जरासंध के पास भी पुत्र थे।
मेरी समझ से सद्ग्रन्थों को देखने से एवं सत्पुरुषों-महापुरुषों की वाणियों को देखने से तो यही लग रहा है कि इन पुत्र-पुत्री घर-परिवार, धन-दौलत आदि सुखी-सम्पन्नता की कोई ही अहमियत नहीं है- कोई ही महत्ता नहीं है । महत्ता है संत समागम की- संत के साथ उठने-बैठने-रहने की एवं महत्ता है हरिकथा की-भगवत् कथा की । मर्यादा-महत्ता है हरि चर्चा-भगवत् चर्चा की-सत्संग की, जो संत समागम से ही हो सकता है, इसीलिये इन दोनों- संत समागम और हरि कथा- को ही तुलसी जी ने भी दुर्लभ ही बताया है ।
प्रिय मित्रों ! असलियत तो यह है कि भगवान् की सारी दुर्लभता सच्चे संत की दुर्लभता पर ही निर्भर होता है यानी सच्चा संत ही दुर्लभ होता है । जैसे संत मिल जाते हैं वैसे ही यदि आप श्रद्धालु एवं भगवद् उत्कट जिज्ञासु हैं तो भगवान् को तो मिलना ही है- इसमें सन्देह ही नहीं- मिलना ही है निःसन्देह क्योंकि भगवत् कृपा विशेष से ही संत मिलन हो सकता है-होता है अन्यथा नहीं । साथ ही साथ संत मिलन हो ही और आप पर भगवत् कृपा नहीं, उससे संत की पहचान ही नहीं हो पायेगी-संत होते-रहते हुये भी उसे जानकारी-समझदारी नहीं हो पायेगी-विश्वास ही नहीं हो पायेगा कि यह संत है, जिसका कुपरिणाम यह होता है कि अपनी ही कमियाँ-अपने ही दोष उन्हें उन संत में आभासित होने लगता है- उन संत-सत्पुरुष में ही दिखायी देने लगता है जिससे संत के साथ ही साथ भगवान् से भी उनकी दूरी बढ़ने लगती है और जस-जस दूरी बढ़ता जाता है उनके अन्दर संत के प्रति दुर्भावना भी बढ़ती जाती है जिनमें से कुछ तो विद्रोही रूप अपना लेते हैं जिनमें कुछ पतिंगे की तरह नष्ट भी हो जाया करते हैं । अतः भगवत् कृपा से ही कुछ भी-सबकुछ ही सम्भव है । अतः सारी दुर्लभता संत की- जो कि भगवद्जन ही होते हैं- एकमात्र भगवद्जन ही । श्रीकृष्ण जी महाराज ने भी कहा है कि भगवान् को ही अपना सर्वस्व यानी कुछ ही मानने वाले संत-महात्मा ही दुर्लभ होते हैं ।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते ।
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः ।।
अर्थात् बहुत-बहुत जन्मों के बाद अन्तिम जन्म (आवागमन चक्र का अन्तिम जन्म) जब होता है तब कोई मनुष्य ज्ञानवान् होकर और मेरे शरणागत होता है । जिस ज्ञानवान् और वैराग्यवान् सन्त को-भगवद् शरणागत को एकमात्र भगवान् वासुदेव ही सर्वे-सर्वा, सब कुछ ही दिखायी दे-जिसे अपना और सारे जगत् का भी सर्वस्व सब कुछ एकमात्र भगवान् ही जानने-समझने-दिखायी देने में आवे- ऐसा महात्मा बहुत ही दुर्लभ होता है ।
तन करि मन करि बचन करि काहू दूखत नाहि ।
तुलसी ऐसे सन्त जन राम रूप जग माहिं ।।
अर्थात् तन से, मन से और वाणी से जो किसी को भी किसी प्रकार दुःख नहीं देता- कष्ट नहीं पहुँचाता है, तुलसीदास जी कहते हैं कि ऐसे (लक्षणों से युक्त) जो सन्त होंगे, वे जगत् में-संसार में राम के रूप में ही विचरते-रहते-भ्रमण करते हैं । अर्थात् तन से यानी शारीरिक रूप से-अपने शरीर से जो किसी को भी कष्ट नहीं देता हो;
अब यहाँ पर गहन मनन-चिन्तन की आवश्यकता है कि सन्त वह है जो अपने तन से किसी भी दूसरे कोई कष्ट न देता हो मगर संत के सदाचार-सद्भाव, सद्व्यवहार एवं सुकर्म से क्षुब्ध होकर कोई दुर्जन-कोई दुष्ट व्यक्ति संत से सत्पुरुष से टकराता-संघर्ष करता है जिसके प्रतिकार रूप में यदि उस दुर्जन को - उस दुष्ट को कोई दुःख होता है-कोई कष्ट पहुँचता है तो उसका वह जिम्मेदार-वह संत उत्तरदायी होता है या नहीं ?
ऐसे ही यदि कोई दुर्जन-दुर्विचारी-दुष्ट विचार वाला आदमी किसी संत से दुराग्रह-दुर्भावना रखता है और उसके अपने ही दुर्भावना का कोई प्रतिकार होता है-प्रतीकारात्मक दुःख होता है- कष्ट पहुँचता है तो उस दुःख-कष्ट का दायित्व उस संत पर जायेगा या नहीं ? पुनः उसी प्रकार संत को कोई दुर्जन-दुष्ट दुष्टता पूर्व वचन बोलता-दुर्वचन बोलना, बार-बार समझाने-बुझाने पर भी नहीं मानता-दुर्वचन बोलते ही जाता है
जिसके प्रतिकार रूप उसे (दुर्जन को) कटु वचन-दुःखदायी बचन-कष्टदायी मिलता है तो संत दोषी होगा या नहीं ? बन्धुओं विचारणीय बात यह ही है, विचारणीय ही नहीं, बल्कि गहन विचारणीय बात है कि संत उन (तनसे-मन से एवं वाणी से) प्रतिकारात्मक दुःख-कष्ट के लिये क्या दोषी होता है ?
तो मेरे प्यारे भाइयों -
तुलसीदास जी ने ही उसी वैराग्य संदीपनी में ही लिखा है कि -
निज संगी निज सम करत दुर्जन मन दुःख दून ।
मलयाचल हैं संत जन तुलसी दोष विहून ।।
अर्थात् निज संगी- जो संत के संग में रहेगा उसे संत अपने समान कर देता है- संत उसे अपने समान बना देता है- उसे भी सद्भावी, उसे भी सद्विचारी, उसे भी सद्व्यवहारी, उसे भी सदाचारी- उसे भी सत्कर्मी एवं उसे भी भगवद् समर्पित-शरणागत भगवद् भक्त ही बना देता है, संसार से वैरागी तथा भगवान् में अनुरागी बना देता है जिससे दुर्भावों, दुर्विचारी, दुव्र्यवहारी दुराचारी, दुष्कर्मी एवं भगवद् विरोधी नास्तिक सांसारिक दुष्टों के मन का दुःख जो है दुगुना हो जाता है- दुगुना बढ़ जाता है, तो इससे क्या संत दोषी हो जायेगा ?
तो आगे अगली पंक्ति में ही-वहीं पर कहा गया है कि
मलयाचल हैं संत जन तुलसी दोष विहून ॥
अर्थात् संतजन मलयाचल चंदन (के समान) होता है कि वायु के अनुकूल दिशा में उस चंदन के बगल में कोई काठ (लकड़ी) रहेगा तो उसे भी वह सुगन्धित कर देता है- वह भी सुगन्धित है, ठीक उसी प्रकार जो संत का संग करता है वह भी संत ही जैसा हो जाता है । इसलिये तुलसीदास जी कहते हैं कि संत सदा-सर्वदा ही दोषहीन होता-रहता है, वह कभी भी दोषी नहीं होता-रहता । संत तो सदा-सर्वदा सभी दोषों से ही परे होता-रहता है ।
COMMENTS