भगवान हनुमानजी जिनसे सभी बल, बुद्धि,बिद्या देने की कामना करते हैं। हनुमानजी की शिक्षा के लिए उनकी माता कितनी चिंतित थी ये तो उनका इतिहा...
भगवान हनुमानजी जिनसे सभी बल, बुद्धि,बिद्या देने की कामना करते हैं। हनुमानजी की शिक्षा के लिए उनकी माता कितनी चिंतित थी ये तो उनका इतिहास पढ़ने से ही पता चलता है। कई एसी पौराणिक कथाएं है जिनसे हम उनके बारे में पढ़ सकते हैं। जैसे माता अखिल ब्रह्माण्ड की अदम्य शक्ति स्वरूपा होती है। समग्र सृष्टि का स्वरूप माता की गोद में ही अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित एवं विकसित होता है। विश्व का उज्ज्वल भविष्य माता के स्नेहांचल में ही फूलता-फलता है। यदि कहा जाए कि निखिल संसार की सर्जना-शक्ति माता है, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।
बालक जन्म से पूर्व गर्भ में ही माता से संस्कार ग्रहण करने लग जाता है और जन्म के बाद वह माता के संस्कार का अनुगामी हो जाता है। बालक के बचपन का अधिकांश समय माता की वात्सल्यमयी छाया में ही व्यतीत होता है। करणीय-अनुकरणीय, उचित-अनुचित, हित-अहित सभी संस्कारों का प्रथमाक्षर वह माता से ही सीखता है।
सन्तान के चरित्र-निर्माण में माता की भूमिका आधारशिलास्वरूप है इसीलिए महीयसी “माता को प्रथम गुरु” का सम्मान दिया गया है। अंजनादेवी परम सदाचारिणी, तपस्विनी एवं सद्गुण-सम्पन्न आदर्श माता थीं। वे अपने पुत्र श्रीहनुमानजी को श्लाघनीय तत्परता से आदर्श बालक का स्वरूम प्रदान करने की दिशा में सतत जगत और सचेष्ट रहती थीं। पूजनोपरान्त और रात्रि में शयन के पूर्व वे अपने प्राणाधिक प्रिय पुत्र को पुराणों की प्रेरणाप्रद कथाएं सुनाया करतीं थीं। वे आदर्श पुरुषों के चरित्र श्रीहनुमानजी को पुनः-पुनः सुनातीं और अपने पुत्र का ध्यान उनकी ओर आकृष्ट करती रहतीं।
माता अंजनादेवी जब भगवान् श्रीरामजी के अवतार की कथा सुनाना प्रारम्भ करतीं, तब बालक श्रीहनुमानजी का सम्पूर्ण ध्यान उक्त कथा में ही केन्द्रित हो जाता। निद्रा एवं क्षुधा उनके लिए कोई अर्थ नहीं रखतीं। सहजानुराग से श्रीहनुमानजी पुनः-पुनः श्रीराम-कथा का श्रवण करते और खो जाते । माता को चिंता सताने लगी। श्री हनुमानजी की आयु भी विद्याध्ययन के योग्य हो गई थी। माता अंजनीदेवी एवं वानरराज केसरी ने विचार किया- ‘अब हनुमान को विद्यार्जन के निमित्त किसी योग्य गुरु के हाथ सौंपना ही होगा। अतएव माता अंजना और कपीश्वर केसरी ने श्रीहनुमानजी को ज्ञानोपलब्धि के लिए गुरु-गृह भेजने का निर्णय किया।
अपार उल्लास के साथ माता-पिता ने अपने प्रिय श्रीहनुमानजी का उपनयन-संस्कार कराया और उन्हें विद्यार्जन के लिए गुरु-चरणों की शरण में जाने का स्नेहिल आदेश किया, पर समस्या यह थी कि श्रीहनुमानजी किस सर्वगुण-सम्पन्न आदर्श गुरु का शिष्यत्व अंगीकृत करें। माता अंजना ने प्रेमल स्वर में कहा- ‘‘पुत्र ! सभी देवताओं में आदि देव भगवान् भास्कर को ही कहा जाता है और फिर, सकलशास्त्रमर्मज्ञ भगवान् सूर्यदेव तुम्हें समय पर विद्याध्ययन कराने का कृपापूर्ण आश्वासन भी तो दे चुके हैं। अतएव, तुम उन्हीं के शरणागत होकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक शिक्षार्जन करो।’’
श्रीहनुमानजी माता-पिता के श्रीचरणों में अपने प्रणाम सादर निवेदित कर आकाश में उछले तो सामने “सूर्यदेव के सारथि अरुण” मिले। श्रीहनुमानजी ने पिता का नाम लेकर अपना परिचय दिया और अरुण ने उन्हें अंशुमाली के पास जाने को कहा। आंजनेय ने अतीव श्रद्धापूर्वक भगवान् सूर्यदेव के चरणों का स्पर्श करते हुए उन्हें अपना हार्दिक नमन निवेदित किया।
विनीत श्रीहनुमानजी को बंद्धाजलि खड़े देख भगवान् भुवनभास्कर ने स्नेहिल शब्दों में पूछा- ‘बेटा ! आगमन का प्रयोजन कहो।’ श्रीहनुमानजी ने विनम्र स्वर में निवेदन किया- ‘प्रभो ! मेरा यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाने पर माता ने मुझे आपके चरणों में विद्यार्जन के लिए भेजा है। आप कृपापूर्वक मुझे ज्ञानदान कीजिए।’ सूर्यदेव बोले- ‘‘बेटा ! मुझे तुम्हें अपना शिष्य बनाने में अमित प्रसन्नता होगी, पर तुम तो मेरी स्थिति देखते ही हो। मैं तो अहर्निश अपने रथ पर सवार दौड़ता रहता हू। सूर्यदेव की बात सुनकर पवनात्मज बोले-‘प्रभो ! वेगपूर्वक चलता आपका रथ कहीं से भी मेरे अध्ययन को बाध्त नहीं कर सकेगा। हां आपको किसी प्रकार की असुविधा नहीं होनी चाहिए। मैं आपके सम्मुख रथ के वेग के साथ ही आगे बढ़ता रहंगा।’
श्रीहनुमानजी सूर्यदेव की ओर मुख करके उनके आगे-आगे स्वभाविक रूप में चल रहे थे -
भानुसों पढ़न हनुमान गए भानु मन,
अनुमानि सिसुकेलि कियो फेरफार सो।
पाछिले पगनि गम गगन मगन-मन,
क्रम को न भ्रम, कपि बालक-बिहार सो।।
सूर्यदेव को ये देख हैरानी नहीं हुई क्योंकि वे जानते थे कि हनुमानजी खुद बुद्धिमान हैं लेकिन प्रथा के अनुसार गुरु द्वारा शिक्षा गृहण करना जरुरी है इसलिए सूर्यदेव ने कुछ ही दिनों में उन्हें कई विद्याएं सिखा दी जिससे वे विद्वान कहलाएं।
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