बलि के पुत्र बाणासुर की कथा । शिव और कृष्ण का भयंकर युद्ध । अनिरुद्ध और ऊषा का विवाह ।

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    दानवीर दैत्यराज बलि के सौ प्रतापी पुत्र थे, उनमें सबसे बड़ा बाणासुर था। बाणासुर ने भगवान शंकर की बड़ी कठिन तपस्या की। शंकरजी ने उसके तप ...

   दानवीर दैत्यराज बलि के सौ प्रतापी पुत्र थे, उनमें सबसे बड़ा बाणासुर था। बाणासुर ने भगवान शंकर की बड़ी कठिन तपस्या की। शंकरजी ने उसके तप से प्रसन्न होकर उसे सहस्त्रबाहु तथा अपार बल दे दिया। उसके सहस्त्रबाहु और अपार बल के भय से कोई भी उससे युद्ध नहीं करता था। इसी कारण से बाणासुर अति अहंकारी हो गया। बहुत काल व्यतीत हो जाने के पश्चात् भी जब उससे किसी ने युद्ध नहीं किया तो वह एक दिन शंकर भगवान के पास आकर बोला, "हे चराचर जगत के ईश्वर! मुझे युद्ध करने की प्रबल इच्छा हो रही है किन्तु कोई भी मुझसे युद्ध नहीं करता। अतः कृपा करके आप ही मुझसे युद्ध करिये।" 

  उसकी अहंकारपूर्ण बात को सुनकर भगवान शंकर को क्रोध आया किन्तु बाणासुर उनका परमभक्त था इसलिये अपने क्रोध का शमन कर उन्होंने कहा, "रे मूर्ख! तुझसे युद्ध करके तेरे अहंकार को चूर-चूर करने वाला उत्पन्न हो चुका है। जब तेरे महल की ध्वजा गिर जावे तभी समझ लेना कि तेरा शत्रु आ चुका है।"

  बाणासुर की उषा नाम की एक कन्या थी। एक बार उषा ने स्वप्न में श्रीकृष्ण के पौत्र तथा प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को देखा और उसपर मोहित हो गई। उसने अपने स्वप्न की बात अपनी सखी चित्रलेखा को बताया। चित्रलेखा ने अपने योगबल से पहले प्रद्युम्न का चित्र बनाया और उषा को दिखा कर पूछा कि "क्या इसी को तुमने स्वप्न में देखा था"? तब उषा बोली कि इसकी सूरत तो उससे मिलती है किन्तु ये वो नहीं है।" तब चित्रलेखा ने श्रीकृष्ण का चित्र बनाया। अनिरुद्ध श्रीकृष्ण का प्रतिरूप ही था। श्रीकृष्ण की तस्वीर देख कर उषा ने कहा- "हाँ ये वही है किन्तु पता नहीं क्यों इसे देख कर मेरे मन में पितृ तुल्य भाव आ रहे हैं।"

    ये सुनकर चित्रलेखा समझ गयी कि उषा ने स्वप्न में अनिरुद्ध को देखा है। तब उसने अनिरुद्ध का चित्र बनाया और उषा को दिखाया। उसे देखते ही उषाने ने लज्जा से अपना सर झुका लिया और कहा- "हाँ! इसी को मैंने स्वप्न में देखा था। मैं इससे प्रेम करने लगी हूँ और अब मैं इनके बिना नहीं रह सकती।" अपनी सखी को कामवेग से ग्रसित देख चित्रलेखा द्वारका पहुँची और सोते हुये अनिरुद्ध को पलंग सहित उषा के महल में पहुँचा दिया। नींद खुलने पर अनिरुद्ध ने स्वयं को एक नये स्थान पर पाया और देखा कि उसके पास एक अनिंद्य सुन्दरी बैठी हुई है। अनिरुद्ध के पूछने पर उषा ने बताया कि वह बाणासुर की पुत्री है और अनिरुद्ध को पति रूप में पाने की कामना रखती है। अनिरुद्ध भी उषा पर मोहित हो गये और वहीं उसके साथ महल में ही रहने लगे।

  कुछ समय पश्चात प्रहरियों को सन्देह हो गया कि उषा के महल में अवश्य कोई बाहरी मनुष्य आ पहुँचा है। उन्होंने जाकर बाणासुर से अपने सन्देह के विषय में बताया। उसी समय बाणासुर ने अपने महल की ध्वजा को गिरी हुई देखा। उसे निश्चय हो गया कि कोई मेरा शत्रु ही उषा के महल में प्रवेश कर गया है। वह अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित होकर उषा के महल में पहुँचा। उसने देखा कि उसकी पुत्री उषा के समीप पीताम्बर वस्त्र पहने बड़े बड़े नेत्रों वाला एक साँवला सलोना पुरुष बैठा हुआ है। वाणासुर ने क्रोधित हो कर अनिरुद्ध को युद्ध के लिये ललकारा। उसकी ललकार सुनकर अनिरुद्ध भी युद्ध के लिये प्रस्तुत हो गये और उन्होंने लोहे के एक भयंकर मुद्गर को उठाकर उसी के द्वारा बाणासुर के समस्त अंगरक्षकों को मार डाला। वाणासुर और अनिरुद्ध में घोर युद्ध होने लगा। बाणासुर अपार बल का स्वामी था और शिव का पुत्र माना जाता था। अंततः उसने युद्ध में अनिरुद्ध को पराजित कर दिया और बंदी बना लिया।

   इधर द्वारिका पुरी में अनिरुद्ध की खोज होने लगी और उनके न मिलने पर वहाँ पर शोक छा गया। तब देवर्षि नारद ने वहाँ पहुँच कर अनिरुद्ध का सारा वृत्तांत कहा। इस पर श्रीकृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न, सात्यिकी, गद, साम्ब आदि सभी वीर चतुरंगिणी सेना के साथ लेकर बाणासुर के नगर शोणितपुर पहुँचे। उन्होंने आक्रमण करके वहाँ के उद्यान, परकोटे, बुर्ज आदि को नष्ट कर दिया। श्रीकृष्ण ने एक बाण से बाणासुर के महल की ध्वजा गिरा दी। आक्रमण का समाचार सुन बाणासुर भी अपनी सेना को साथ लेकर आ गया जिसका नेतृत्व उसका सेनापति कुम्भाण्ड कर रहा था।

   श्रीबलराम जी कुम्भाण्ड तथा कूपकर्ण राक्षसों से जा भिड़े, प्रद्युम्न एक साथ कई योद्धाओं से भीड़ गए और श्रीकृष्ण बाणासुर के सामने आ डटे। घनघोर संग्राम होने लगा। चहुँओर बाणों की बौछार हो रही थी। बलराम ने कुम्भाण्ड और कूपकर्ण को मार डाला। बाणासुर ने जब अपने महल की ध्वजा को कटा देखा तो उसे महादेव के कथन का ध्यान हो आया। उसने अपनी पूरी शक्ति से श्रीकृष्ण पर हमला किया। दोनों महान वीर थे और भिन्न-भिन्न दिव्यास्त्रों से एक दूसरे पर प्रहार कर रहे थे। बाणासुर से तो स्वयं रावण जैसा महारथी भी बच कर रहता था। उसपर भी बाणासुर के बल की एक सीमा थी किन्तु श्रीकृष्ण के बल की क्या सीमा? जल्द ही बाणासुर को ये पता चल गया कि वो वासुदेव को परास्त नहीं कर सकता। 

   उधर कृष्ण लगातार बाणासुर के योद्धाओं का अंत कर रहे थे। अब बाणासुर को लगा कि अगर युद्ध ऐसे ही चलता रहा तो उसका विनाश निश्चित है। तब उसे अपने आराध्य भगवान शंकर की याद आयी जिन्होंने उसे वरदान दिया था कि वे उसकी हर आपदा से रक्षा करेंगे। तब बाणासुर ने महादेव का स्मरण किया। बाणासुर की पुकार सुनकर भगवान शिव ने कार्तिकेय के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित अन्य शिवगणों को बाणासुर की सहायता के लिए भेज दिया। कार्तिकेय के नेतृत्व में शिवगणों ने श्रीकृष्ण की सेना पर चारो ओर से आक्रमण कर दिया। ऐसा भीषण आक्रमण देख कर श्रीकृष्ण की सेना पलायन करने लगी।

    अपनी सेना का मनोबल टूटता देख कर श्रीकृष्ण ने महादेव द्वारा प्रदान किया गया सुदर्शन चक्र का आह्वान किया। १००० आरों वाला वो महान दिव्यास्त्र भयंकर प्रलयाग्नि निकलता हुआ शिवगणों को तप्त करने लगा। श्रीकृष्ण के के समक्ष शिवगण टिक नहीं पाए किन्तु शिवपुत्र कार्तिकेय इससे प्रभावित ना होकर युद्ध करते रहे। तब श्रीकृष्ण के साथ बलराम ने भी अपने दिव्य हल से कार्तिकेय पर धावा बोला। सुदर्शन और हल से कार्तिकेय का अहित और शिवगणों की प्राणहानि तो नहीं हुई किन्तु उसके समक्ष ही बाणासुर की सेना का नाश होता रहा। कृष्ण ने अपने धनुष "शार्ङ्ग" से अनेकानेक महारथियों का वध कर दिया। अब कार्तिकेय को लगा कि वो इस प्रकार बाणासुर को नहीं बचा पाएंगे इसीलिए उन्होंने शिवगणों के साथ अपने पिता का आह्वान किया।

  अपने पुत्र और शिवगणों की पुकार सुनकर और अपने भक्त की रक्षा हेतु अब स्वयं भगवान महारुद्र रणभूमि में आये। भगवान शंकर को वहाँ आया देखकर श्रीकृष्ण ने बलराम सहित अपने शस्त्रों को त्यागकर उन्हें प्रणाम किया और उनकी अभ्यर्थना की। भगवान शंकर ने श्रीकृष्ण को आशीर्वाद दिया और मधुर स्वर में कहा- "हे वासुदेव! आप जिस बाणासुर का वध करने को उद्यत हैं वो मेरा भक्त है और कार्तिकेय के सामान ही मैंने मेरे पुत्र समान है। मैंने उसकी रक्षा का वचन उसे दिया है इसीलिए आप उसके वध का विचार त्याग कर वापस चले जाएँ।"

   तब श्रीकृष्ण ने करबद्ध होकर कहा- "हे महेश्वर! जिस प्रकार बाणासुर आपका भक्त है उसी प्रकार मैं भी तो आपका भक्त ही हूँ। मेरा बल और शक्ति आपके द्वारा ही प्रदत्त है। ये सुदर्शन, जो शत्रुओं का नाश कर रहा है, स्वयं आपके तीसरे नेत्र से उत्पन्न हुआ है। इसे आपने ही भगवान विष्णु को असुरों के नाश के लिए दिया था। मैं कौन हूँ और ये चक्र मुझे कैसे प्राप्त हुआ, ये रहस्य तो आप भली-भांति जानते हैं। अब युद्ध से पीछे हट कर मैं स्वयं आपका अपमान नहीं कर सकता हूँ।" जब श्रीकृष्ण किसी तरह भी पीछे हटने को तैयार नहीं हुए तो विवश होकर भगवान शिव ने अपना त्रिशूल उठाया। कार्तिकेय और शिवगणों सहित बाणासुर और श्रीकृष्ण की समस्त सेना और सभी देवताओं सहित परमपिता ब्रह्मा भी इस महान युद्ध को देखने के लिए रुक गए।

   महारूद्र के भीषण तेज से ही श्रीकृष्ण की सारी सेना भाग निकली। केवल श्रीकृष्ण ही उनके सामने टिके रहे। अब तो दोनों में भयंकर युद्ध होने लगा। बाणासुर ने जब देखा की कृष्ण महादेव से लड़ने में व्यस्त हैं तो उसने श्रीकृष्ण की बांकी सेना पर आक्रमण किया। दूसरी ओर श्रीकृष्ण ने अपने समस्त दिव्यास्त्रों का प्रयोग महादेव पर किया पर उससे महाकाल का क्या बिगड़ता? उन दोनों के बीच का युद्ध इतना भयानक हो गया कि देवताओं को सृष्टि की चिंता होने लगी। श्रीकृष्ण ने भगवान विष्णु से प्राप्त अपना महान "श्राङ्ग" धनुष धारण किया और महादेव ने अपना महान धनुष "पिनाक" उठाया। इससे दोनों में ठीक उसी प्रकार युद्ध होने लगा जैसे कालांतर में परमपिता ब्रह्मा की मध्यस्थता में भगवान शिव और भगवान विष्णु के बीच हुआ था। दोनों का युद्ध समय के साथ भीषण होता जा रहा था। अंत में भगवान शिव के त्रिशूल और वासुदेव के सुदर्शन के बीच द्वन्द हुआ किन्तु दोनों सामान शक्ति वाले ही सिद्ध हुए।

    श्रीकृष्ण भगवान विष्णु के परमावतार माने जाते हैं जो उनकी सभी १६ कलाओं के साथ अवतरित हुए थे। इसी कारण उन्हें उन सभी महास्त्रों का स्वतः ही ज्ञान था जो ज्ञान नारायण को था। हरिवंश पुराण में ये वर्णन है कि उन्होंने युद्ध को समाप्त करने के लिए नारायण का सर्वाधिक शक्तिशाली अस्त्र "विष्णुज्वर" का संधान किया। ये महास्त्र अत्यंत ठण्ड उत्पन्न करता है जिससे समस्त प्राणियों का नाश हो जाता है। विष्णुज्वर भयानक नाद करता हुआ भगवान शिव की ओर बढ़ा। तब महादेव ने भी अपना एक महान अस्त्र "शिवज्वर" का संधान किया और उसे विष्णुज्वर के निवारण के लिए छोड़ा। विष्णुज्वर के उलट शिवज्वर भयानक ताप उत्पन्न करता है जिससे सृष्टि का नाश हो जाता है। इन दोनों महास्त्रों से अधिक शक्तिशाली त्रिलोक में कोई और दिव्यास्त्र नहीं था। दोनों महास्त्रों का ताप ऐसा था कि मनुष्य तो मनुष्य, स्वयं देवता भी मूर्छित हो गए।

    अब परमपिता ब्रह्मा ने देखा कि अब उनकी सृष्टि का नाश निश्चित है। उन्हें इस युद्ध को रोकने के लिए युद्धक्षेत्र में आना पड़ा। उन्होंने दोनों के बीच मध्यस्थता करवाते हुए कहा- "हे कृष्ण! हे महादेव! आप दोनों क्यों सृष्टि के नाश को तत्पर है? आपको भली भांति ज्ञात है कि अगर ये दोनों महास्त्र आपस में टकराये तो त्रिभुवन का नाश संभव है। जब सृष्टि ही नहीं रहेगी तो आप रक्षा किसकी करेंगे? हे महादेव! आपने ही बाणासुर को उसके अभिमान नष्ट होने का श्राप दिया था। श्रीकृष्ण आपके ही श्राप के अनुमोदन के लिए बाणासुर से युद्ध कर रहे हैं। अतः आप अपना क्रोध शांत करें और इस युद्ध का अंत करें।"

   परमपिता को इस प्रकार बोलते देख श्रीकृष्ण ने भी महादेव से करबद्ध हो कहा- "हे महाकाल! आपने स्वयं ही बाणासुर को कहा था की उसे मैं परस्त करूँगा किन्तु आपके रहते तो ये संभव नहीं है। बाणासुर आपका भक्त अवश्य है किन्तु आततायी है। फिर क्यों आप उसकी रक्षा कर रहे हैं? महाबली रावण भी तो आपका भक्त था किन्तु उसका वध करने के लिए आपने श्रीराम की सहायता ही की। मुझपर भी अपनी कृपादृष्टि रखें। सभी को ये पता है की आपका वचन मिथ्या नहीं हो सकता। इसीलिए हे प्रभु! अब आप ही अपने वचन की रक्षा करें।" श्रीकृष्ण की ये बात सुनकर महादेव उन्हें आर्शीवाद देकर युद्ध क्षेत्र से हट गए।

   महादेव के जाने के बाद श्रीकृष्ण पुनः बाणासुर पर टूट पड़े। बाणासुर भी अति क्रोध में आकर उनपर टूट पड़ा और अपनी १००० भुजाओं में विभिन्न प्रकार के अस्त्र लेकर उनपर प्रहार करने लगा। अंत में श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र निकला और बाणासुर की भुजाएं कटनी प्रारंभ कर दी। एक-एक करके उन्होंने बाणासुर की ९९८ भुजाएँ काट दी। उन्होंने क्रोध में भरकर बाणासुर को मारने की ठान ली। बाणासुर के प्राणों का अंत निश्चित जान कर भगवान रूद्र एक बार फिर रणक्षेत्र में आ गए। उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा कि वे बाणासुर की रक्षा का वचन दे चुके हैं इसी कारण उसे मरने नहीं दे सकते।

   उन्होंने कृष्ण से कहा- "वासुदेव! बाणासुर को पर्याप्त दंड मिल चूका है और उसका अभिमान समाप्त हो गया है। अब उसकी केवल दो भुजाएँ ही शेष है इसी लिए अब उसे प्राणदान दें। अगर आप अब भी इसकी मृत्यु की कामना करते हों तो पुनः मुझसे युद्ध कीजिये।" भगवान शिव की आज्ञा मानकर श्रीकृष्ण ने बाणासुर को मारने का विचार त्याग दिया। उन्होंने महादेव से कहा- "हे भगवन! जो आपका भक्त हो उसे इस ब्रह्माण्ड में कोई नहीं मार सकता। किन्तु इसने अनिरुद्ध को बंदी बना रखा है जिसे लिए बिना मैं वापस नहीं लौट सकता।" ये सुनकर भगवान शंकर ने बाणासुर से अनिरुद्ध को मुक्त करने की आज्ञा दी। उनकी आज्ञा मानते हुए बाणासुर ने ना केवल अनिरुद्ध को मुक्त किया बल्कि अपनी पुत्री उषा का विवाह भी उससे कर दिया। फिर कुछ काल तक वही सुखपूर्वक रहने के पश्चात श्रीकृष्ण अनिरुद्ध और उषा के साथ द्वारिका लौट गए।

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भागवत दर्शन: बलि के पुत्र बाणासुर की कथा । शिव और कृष्ण का भयंकर युद्ध । अनिरुद्ध और ऊषा का विवाह ।
बलि के पुत्र बाणासुर की कथा । शिव और कृष्ण का भयंकर युद्ध । अनिरुद्ध और ऊषा का विवाह ।
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