एक बार की बात है एक आदमी को लगा कि कहीं वह मर तो नहीं गया? कारण यह था कि उसने देखा कि उसकी पत्नी उसकी छाती पर पड़ी है और अपने हाथों से अपन...
एक बार की बात है एक आदमी को लगा कि कहीं वह मर तो नहीं गया?
कारण यह था कि उसने देखा कि उसकी पत्नी उसकी छाती पर पड़ी है और अपने हाथों से अपनी छाती पीट रही है। बच्चे भी वहीं बैठे बदहवास रो रहे हैं। अड़ोसी पड़ोसी भी पास खड़े खुसरफुसर कर रहे हैं।
असल में जब वह पैदा हुआ, तब वह नहीं जानता था कि मौत किसे कहते हैं? जैसे जैसे वह बड़ा हुआ उसने लोगों से सुना कि जब कोई हिलना डुलना देखना बोलना बंद कर दे, निष्प्राण हो जाए, तब समझ लेना चाहिए कि वह मर गया। फिर उसने अपने जीवन में बहुतों को ऐसे ही निष्प्राण हुए देखा और उनका अंतिम संस्कार किया, तो उसकी यह मान्यता दृढ़ हो गई थी।
अब तो वह घबरा गया। उसने हिलने का प्रयास किया, पर उसने देखा कि वह हिल नहीं पा रहा है। इतने में तो कुछ नातेदार बाँस और रस्सी ले आए, लगे अर्थी बनाने।
तब वह जोर जोर से बोला- "अरे मूर्खों! मुझे जिन्दा जला कर मानोगे क्या? मैं मरा नहीं हूँ। बस कुछ गड़बड़ हो रही है जो मैं हिल नहीं पा रहा हूँ।"
पर मानो किसी ने भी उसकी आवाज पर ध्यान नहीं दिया। पत्नी वैसे ही छाती पीटती रही, बच्चे बदहवास रोते रहे और अड़ोसी पड़ोसी खड़े खड़े खुसरफुसर करते रहे।
"ओह! लगता है ये सब बहरे हो गए हैं। ये तो मेरी आवाज ही नहीं सुन पा रहे हैं। आज तो मैं मरा।" ऐसा सोचते हुए वह अपने भगवान को याद करने लगा और अपने जीवन की रक्षा करने की प्रार्थना करने लगा।
पर परिवार में तो अफरातफरी मची थी। "जल्दी करो! जल्दी करो! ए राजू! सब सामान आ गया क्या?" कोई किसी से पूछ रहा था। "हाँ आ गया।" "तो चलो! देर क्यों हो रही है?" और उसके देखते देखते उसे अर्थी पर बाँध कर, एक बड़ा जुलूस उसके पीछे पीछे चलने लगा। पैसे और खील फेंके जा रहे थे और सब एक सुर में बोल रहे थे
राम नाम सत्य है
वह आदमी लाख प्रयास करने पर भी उन्हें समझा नहीं पाया। आखिर थक कर, कि अब कर भी क्या सकते हैं? वह चुप हो गया। और उसे चिता पर चढ़ा कर जला दिया गया।
पर उसे यह देख कर बड़ी हैरानी हुई कि वह जला नहीं। अब उसने जाना कि ओह! शरीर तो जल गया, पर मैं तो नहीं जला। तो मैं शरीर नहीं था?
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥
हे भगवान! यही बात तो गुरू जी समझाया करते थे। तब समझ लिया होता तो कल्याण हो गया होता। पर अब समझ आया है जब समझने का कोई लाभ नहीं है।
ध्यायतो विषयान्पुंसः सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥
वह आदमी आज भी उसी श्मशान घाट में बैठा एक के बाद एक जन्म मृत्यु रूप स्वप्न देख रहा है। और इस समय वह देख रहा है कि उसका नाम फला है, वह फला नगर में रहता है।
श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शांतिमचिरेणाधिगच्छति ॥
इसलिए कबीरदास जी कहते हैं -
हम न मरै मरिहै संसारा
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