श्रीकृष्ण और गोपियों की रासक्रीड़ा रातभर होती रही, ब्राह्ममुहूर्त्त होने पर गोपियाँ घर जाने की इच्छा न होने पर भी बड़े कष्ट से अपने-अपने घर को चली गयीं,गोपियों की वृत्ति भगवान में लगी रहती थी। उन्हें जब अवसर मिलता तभी वे वन को चली जाती थीं और भगवान श्रीकृष्ण एवं बलराम जी के साथ अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं के आनन्द का अनुभव करती थीं। और शुकदेव जी कहते हैं -
श्रीशुक उवाच
गोप्यः कृष्णे वनं याते तमनुद्रुतचेतसः ।
कृष्णलीलाः प्रगायन्त्यो निन्युर्दुःखेन वासरान्।।
भगवान श्रीकृष्ण के गौओं को चराने के लिये प्रतिदिन वन में चले जाने पर उनके साथ गोपियों का चित्त भी चला जाता था, उनका मन श्रीकृष्ण का चिन्तन करता रहता और वे वाणी से उनकी लीलाओं का गान करती रहतीं,इस प्रकार वे बड़ी कठिनाई से अपना दिन बितातीं,गोपियों के दिन प्रकार आनन्द से बीतते थे, किन्तु गोपियाँ प्रायः वन को नहीं जा सकती थीं और इस समय इनको अपार विरह-वेदना होती थी, एक समय इन गोपियों ने युग्मश्लोकों से (दो-दो श्लोकों से) भगवान् के विरह में गीत गाये जिसे युगल गीत कहा जाता है ।
सम्पूर्ण युगलगीत में स्वागता छन्द का प्रयोग किया गया है। जिसका लक्षण है - स्वागतेति रनभाद्गुरु युग्मम् ।
इस छन्द में प्रत्येक चरण में 11 वर्ण होते हैं । गणक्रम र, न, भ और दो गुरु(ऽऽ) होता है। श्रीमद्भागवतजी में 10.35.1 से अर्थात केवल युगलगीत में स्वागता छन्द है, अतः पहचानने में आसानी होती है। विराम चरण के अन्त में होता है। यथा -
ऽ । ऽ। । । ऽ। । ऽ ऽ
वामबाहुकृतवामकपोलो
श्रीगोप्य ऊचुः
वामबाहुकृतवामपकपोलो
वल्गितभ्रुरधरार्पितवेणुम्।
कोमलांगुलिभिराश्रितमार्ग
गोप्य ईरयति यत्र मुकुन्दः।।
व्योमयानवनिताःसह सिद्धै-
र्विस्मितास्तदुपधार्य सलज्जाः।
काममार्गणसमर्पितचित्ताः
कश्मलं ययुरपस्मृतनीव्यः।।
हे गोपियो! बायें कन्धे पर बायाँ कपोल रखे हुए एवं भौहों को नचाते हुए भगवान कृष्ण जब कोमल अंगुलियों को सातों स्वरों के छेदों पर रखकर ओठ पर रखी हुई वंशी को बजाते हैं तब विमान पर बैठी हुई सिद्धों की स्त्रियाँ अपने पतियों के साथ रहने पर भी जिनके वंशी गीत को सुनकर पहले तो आश्चर्य में पड़ जाती है फिर कामविवश होकर लज्जित होती हुई इस प्रकार मोहित हो जाती है कि उन्हें अपने वस्त्रों तक की सुधि नहीं रहती,ऐसे कृष्ण के विरह को हम कैसे सह सकती हैं?।
हन्त चित्रमबलाः श्रृणुतेदं
हारहास उरसि स्थिरविद्युत।
नन्दसूनुरयमार्तजनानां
नर्मदो यर्हि कूजितवेणुः।।
वृन्दशो व्रजवृषा मृगगावो
वेणुवाद्यहृतचेतस आरात्।
दन्तदष्टकवला धृतकर्णा
निद्रिता लिखितचित्रमिवासन्।।
अरी अबलाओं! यह चमत्कार सुनो,हार के समान जिनका हास्य है, जिनके हृदयस्थल में स्थिर बिजली के समान लक्ष्मी जी रहती हैं, ऐसे ये नन्दसुत जब अपने विरह से दुःखित हुई हम को सुख देन के लिए वेणु बजाते हैं तब दूर से वंशी का शब्द सुनकर जिनका चित्त हरा गया है ऐसे व्रज के बैल, मृग गौओं के झुंड के झुंड दाँतों से काटे गये ग्रास को ज्यों का त्यों मुँह में रखे हुए, कान खड़े किये हुए और नेत्र मूँदकर सोते हुए-से चित्रलिखित के समान निश्चल खड़े हो गये,ऐसे कृष्ण के विरह को हम कैसे सहें? ।।
बर्हिणस्तबकधातुपलाशै-
र्बद्धमल्लपरिबर्हविडम्बः।
कर्हिचित्सबल आलि स
गोपैर्गाः समाह्वयति यत्र मुकुन्दः।।
तर्हि भग्नगतयः सरितो वै
तत्पदाम्बुजरजोऽनिलनीतम्।
स्पृहयतीर्वयमिवाबहुपुण्याः
प्रेमवेपितभुजाः स्तिमितापः।।
अरी सखि! मोर के पर, गेरु आदि धातु और कोमल पत्तों से मल्लों की वेषभूषा का अनुसरण करने वाले कृष्ण भगवान बलरामजी से युक्त होकर जब कभी गोपों के साथ गायों को अपने वंशीगीत से बुलाते हैं तब वंशीका शब्द सुनने से पवन से उड़ायी गयी भगवान के चरण कमल की धूलि की मानो आकांक्षा करती हुई नदियों का संचार रुक जाता है; सचमुच वे भी हमारी भाँति अल्पपुण्या हैं, क्योंकि उस धूलि को पाती नहीं हैं, केवल उनकी तरंगमयी भुजाएं प्रेम से काँपती हैं और उनका जल निश्चल हो जाता है। हम गोपियाँ भी ऐसी ही अल्पपुण्या हैं। पवन से उड़ायी गयी भगवान् के चरणधूलि की इच्छा करती हुई प्रतिबद्धगति होकर खड़ी रहती हैं, हमारी भुजाएं प्रेम से काँपने लगती हैं और हमारी आँखों में जल निश्चल रूप से भर जाता है,ऐसे कृष्ण के विरह को हम कैसे सहें?।
स्थावरों में भी अत्यंत आश्चर्य देखा जाता है, इस आशय से कहती हैं--------
अनुचरैः समनुवर्णितवीर्य
आदिपूरुष इवाचलभूतिः।
वनचरो गिरितटेषु चरन्ती-
र्वेणुनाह्वयति गाः स यदा हि।।
वनलतास्तरव आत्मनि विष्णुं
व्यंजयन्त्य इव पुष्पफलाढ्याः।
प्रणतभारविटपा मधुधाराः
प्रेमहृष्टतनवः ससृजुः स्म।।
हे गोपियों! निश्चल लक्ष्मी से युक्त आदि पुरुष के समान जिनकी कीर्ति अनुचरों द्वारा गायी जाती हैं, वे वन में फिरने वाले भगवान्, गोवर्धन पर्वत के चारों ओर चरने वाली गौओं को जब वंशी की ध्वनि से नाम लेकर बुलाते हैं तब जिनकी शाखाएं भार से नम्र हैं, जो फल और फूलों से लदी हुई हैं तथा मारे प्रेम के, जिनके काँटेरूपी रोमांच खड़े हुए हैं ऐसी वनलताएँ अपने में उत्पन्न विष्णु को (पूर्णानन्द को) सूचित करती हुई जिस प्रकार आँसू बहाती हैं वैसे ही वृक्ष अर्थात उन लताओं के पत्तियों को भी वैसा ही आनन्द होता है,ऐसे श्रीकृष्ण के विरह को हम कैसे सहें?।।
दर्शनीयतिलको वनमाला-
दिव्यगन्धतुलसीमधुमत्तैः।
अलिकुलैरलघुगीतमभीष्ट-
माद्रियन्यर्हि सन्धितवेणुः।।
सरसि सारसहंसविहंगा-
श्चारुगीतहृतचेतस एत्य।
हरिमुपासत ते यतचित्ता
हन्तमीलितदृशो धृतमौनाः।।
सुंदर पुरुषों में सर्वश्रेष्ठ भगवान श्रीकृष्ण वनमाला में पिरोयी हुई दिव्य सुगंधवाली तुलसी के मधु से मत्त हुए भौरों के झुंडों द्वारा ऊँचे स्वर से गाये गये और अपने अनुकूल गान (भ्रमरगान) का सत्कार करते हुए जब अपने अधरोष्ठ में वंशी को रखते हैं अर्थात भ्रमर- स्वर से वंशी बजाते हैं तब सरोवरों में के सारस, राजहंस और अन्यान्य पक्षी जिनका चित्त सुंदर गीत से खिंच गया है, भगवान के समीप आकर मौनव्रत धारण किये हुए (सुखाकारवृत्ति होने से) नेत्र बंद करके एकाग्रचित्त से श्रीहरि की उपासना करते हैं- यह कैसा आश्चर्य है,ऐसे श्रीकृष्ण के विरह को हम कैसे सहें?।
सहबल: स्रगवतंसविलासः
सानुषु क्षितिभृतो व्रजदेव्यः।
हर्षयन्यर्हि वेणुरवेण जातहर्ष
उपरम्भति विश्वम्।।
महदतिक्रमणशंकितचेता
मन्दमन्दमनुगर्जति मेघः।
सुहृदमभ्यवर्षत्सुमनोभि-
श्छायया च विदधत्प्रतपत्रम्।।
हे गोपियों! कानों में फूलों की माला के आभूषणों से अलंकृत एवं बलराम जी के साथ गोवर्धन पर्वत के शिखरों पर स्थित श्रीकृष्ण स्वयं हर्षयुक्त होकर जब तमाम प्राणिमात्र को आनन्द देते हुए वंशी बजाते हैं तब मेघ, यह सोचकर कि कहीं महापुरुष भगवान कृष्ण का लंघन न हो जाय, मन ही मन भयभीत हुआ सामने नहीं आता और जोर से गर्जता भी नहीं है, किन्तु वहीं पर स्थित होकर मुरली की ध्वनि के पीछे-पीछे बहुत धीमी गर्जना करता है और अपने ही समान संसार के संताप को दूर करने वाले होने के कारण अपने समानधर्मा मित्र कृष्ण भगवान के ऊपर फूलों की वृष्टि करता है (अदृश्य देवताओं द्वारा की गयी वृष्टि का मेघ में आरोप करके यह कहा गया है) अथवा फूलरूपी छोटी-छोटी बूँदों की वृष्टि करता है एवं अपनी घटा से उनके ऊपर छत्र-छाया करता है,ऐसे श्रीकृष्ण के विरह को हम कैसे सहें?।
विविधगोपचरणेषु विदग्धो
वेणुवाद्य उरुधा निजशिक्षाः।
तव सुतः सति यदाधर
बिम्बे दत्तवेणुरनयत्स्वरजातीः।।
सवनशस्तदुपधार्य सुरेशाः
शक्रशर्वपरमेष्ठिपुरोगाः।
कवय आनतकन्धरचित्ताः
कश्मलं ययुरनश्चिततत्त्वाः।।
हे साध्वी यशोदे! नाना प्रकार की गोप क्रीड़ाओं में चतुर आपका पुत्र (श्रीकृष्ण) जब अपने बिम्बतुल्य अधरों में वेणु लगाकर अपने ही द्वारा आविष्कृत (ऋषभ, गान्धारादि) स्वरभेदों का आलाप करता है तब इन्द्र, शिव और ब्रह्मा आदि (गायनशास्त्र के) देवाधिदेव जिधर से वह मंद, मध्यम और ऊँचा स्वर आता है उस ओर अपनी गर्दन झुकाकर निश्चल भाव से उस गान को सुनकर स्वयं गानशास्त्रवेत्ता होते हुए भी उसके तत्त्व न समझने के कारण मोह को प्राप्त होते हैं,ऐसे श्रीकृष्ण के विरह को हम कैसे सहें?।
निजपदाब्जदलैर्ध्वजवज्र-
नीरजांकुशविचित्रललामैः।
व्रजभुवः शमयन्खुरतोदं
वर्ष्मधुर्यगतिरीडितवेणुः।।
व्रजति तेन वयं सविलास-
वीक्षणार्पितमनोभववेगाः।
कुजगतिं गमिता न विदामः
कश्मलेन कबरं वसनं वा।।
गजराज के समान गतिवाले श्रीकृष्णभगवान् ध्वजा, वज्र, कमल, अंकुश दि अनेक प्रकार के चिह्नों से युक्त कमल पत्र क समान चरणों से, व्रजभूमि को गौओं के खुरों से खुदने के कारण उत्पन्न हुए कष्ट को दूर करते हुए वेणु बजाते हुए जब चलते हैं और विलास के साथ देखते हैं तब उनकी चाल से और विलासयुक्त कटाक्ष से तीव्र इच्छावाली और वृक्षों के समान निश्चेष्ट दशा को प्राप्त हुई हम गोपियाँ मोहित होकर अपने वस्त्रों और अलकों को संभालना भूल जाती हैं, ऐसे कृष्ण विरह को हम कैसे सहें?।
मणिधरः क्वचिदागणयन्गा
मालया दयितगंधतुलस्याः।
प्रणयिनोऽनुचरस्य कदां से
प्रक्षिपन्भुजमगायत यत्र।।
क्वणितवेणुरववंचितचित्ताः
कृष्णमन्वसत कृष्णगृहिण्यः।
गुणगणार्णमनुगत्य हरिण्यो
गोपिका इव विमुक्तगृहाशाः।।
मनोहर गंधयुक्त तुलसी की माला से शोभायमान तथा (गौओं की गिनती करने के लिए बनायी गयी) मणियों की माला धारण कर गौओं की गिनती करते हुए कृष्ण प्यारे सखा के कंधे में हाथ रखकर, किसी स्थान पर भुजाएँ उठाकर जब वेणु बजाते हैं तब बजायी गयी उस वंशी के नाद से जिनता चित्त आकृष्ट हो गया ऐसे काले हिरनों की स्त्रियाँ (हिरनियाँ) हम गोपियों के समान अपने गृह की आशा छोड़कर मधुरता आदि गुणसमूहों के समुद्र श्रीकृष्ण भगवान के पास आकर चारों ओर निश्चल खड़ी रहती हैं। ऐसे कृष्णविरह को हम कैसे सहें?।
कुन्ददामकृतकौतुकवेषो
गोपगोधनवृतो यमुनायाम्।
नन्दसूनुरनघे तव वत्सो
नर्मदः प्रणयिनां विजहार।।
मन्दवायुरनुवात्यनुकूलं
मानयन्मलयजस्पर्शेन।
वन्दिनस्तमुपदेवगणा ये
वाद्यगीतबलिभिः परिवव्रुः।।
किसी गोपी ने कहा हे पवित्र यशोदे! तुम्हारे पुत्र नन्द-नन्दन, कुन्द के पुष्पों की मालाओं से कुतौकी वेश बनाकर गौ और गोपों से घिरकर अपने प्रेमियों को हर्षित करते हुए जब यमुना तट पर क्रीड़ा करते हैं और तब मन्द पवन चंदन की सुगंधि और शीतल स्पर्श से श्रीकृष्ण का सत्कार करता हुआ अनुकूल चलने लगता है और गन्धर्वादि उपदेवताओं के समूह, बंदियों के समान गाना-बजाना और पुष्पों की वर्षा से उनकी सेवा करते हैं। ऐसे कृष्म के विरह को हम कैसे सहें?।
भगवान् को आते हुए देखकर प्रसन्न हुई गोपियाँ एक दूसरे से कहती हैं-----
वत्सलो व्रजगवां यदगध्रो
वन्द्यमानचरणः पथि वृद्धैः।
कृत्स्नगोधनमुपोह्य दिनान्ते
गीतवेणुरनुगेडितकीर्तिः।।
उत्सवं श्रमरुचापि दृशीना-
मुन्नयन्खुररजश्छुरितस्रक्।
दित्सयैति सुहृदाशिष
एष देवकीजठरभूरुडुराजः।।
संपूर्ण व्रज और गौओं पर दया करने वाले एवं गोवर्धन पर्वत को धारण करने वाले श्रीकृष्ण सायंकाल के समय सब गौओं को इकट्ठा करके वंशी बजाते हुए और अनुचर गोपों द्वारा अपना यशोगान सुनते हुए आ रहे हैं, राह में वृद्ध (ब्रह्मादि) पुरुष उनके चरणों की वंदना करते हैं। देवकी के उदर से उत्पन्न हुए ये चंद्रमारूप श्रीकृष्ण यद्यपि गोधूली से धूसरित माला धारण किये हुए एवं श्रान्त हैं, अपने शरीर की कान्ति से हमारे नेत्रों को परम आनन्दित करते हुए हम सुहृदों के मनोरथ को देने की इच्छा से आ रहे हैं,ऐसे कृष्ण के विरह को हम कैसे सहें?।
अति संभ्रम से समीप में आये हुए भगवान को देखकर कहने लगी--------
मदविघूर्णितलोचन ईषन्मानदः
स्वसुहृदां वनमाली।
बदरपाण्डुवदनो मृदुगण्डं
मण्डयन्कन ककुण्डललक्ष्म्या।।
यदुपतिर्द्विरदराजविहारो
यामिनीपतिरिवैष दिनान्ते।
मुदितवक्त्र उपयाति दुरन्तं
मोचयन्व्रजगवां दिनतापम्।।
जिनके नेत्र मद से किश्चित् झूम रहे हैं, जो अपने प्रेमियों का आदर करने वाले हैं, जो वनमाला पहने हुए हैं, जिनका मुख पके हुए बेर के समान पाण्डुवर्ण है ऐसे श्रीकृष्ण जी सुकुमार कपोलों को सुवर्ण के कुण्डलों से शोभित करते हुए आ रहे हैं, जिनका चलना गजराज के समान है- जिनका मुख चंद्र के समान प्रसन्न है ऐसे यदुपति (श्रीकृष्ण) व्रज के गौओं तथा हमारे दिनताप और विरहताप को दूर करते हुए अत्यंत समीप आ रहे हैं, जैसे दिन के ताप को दूर करने के लिए सायंकाल में चंद्रमा का उदय होता है वैसे ही इनका उदय हुआ है,ऐसे कृष्ण के विरह को हम कैसे सहें?।
गवाम् शब्द संस्कृत के गो शब्द से व्युत्पन्न है, जिसके दो अर्थ हैं—“गाय” तथा “इन्द्रियाँ।”
इस तरह श्रीकृष्ण ने व्रज लौटकर वृन्दावन के वासियों को दिन-भर अपने से विलग रहने से उत्पन्न उनकी आँखों तथा अन्य इन्द्रियों की पीड़ा को हर लिया।
श्रीशुक उवाच
एवं व्रजस्त्रियो राजन् कृष्णलीलानुगायतीः ।
रेमिरेऽहःसु तच्चित्ताः तन्मनस्का महोदयाः ॥
बड़भागिनी गोपियों का मन श्रीकृष्ण में ही लगा रहता था। वे श्रीकृष्णमय हो गयी थीं। जब भगवान् श्रीकृष्ण दिन में गौओं को चराने के लिये वन में चले जाते, तब वे उन्हीं का चिन्तन करती रहतीं और अपनी-अपनी सखियों के साथ अलग-अलग उन्हीं की लीलाओं का गान करके उसी में रम जातीं,इस प्रकार उनके दिन बीत जाते।
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