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मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुबीर । अस बिचारि रघुबंस मणि हरहु विषम भव भीर ॥ भक्ति का मार्ग अनुकूल क्यों नहीं होता?

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   जैसे लोभी को धन सम्पदा प्राणों से भी प्रिय लगती है और वह सतत उसी का चिन्तन -मनन करता है वैसे ही प्रत्येक जीवधारी यदि सतत अपने परमसत्यस्व...

   जैसे लोभी को धन सम्पदा प्राणों से भी प्रिय लगती है और वह सतत उसी का चिन्तन -मनन करता है वैसे ही प्रत्येक जीवधारी यदि सतत अपने परमसत्यस्वरूप "इष्ट" का ध्यान करे ,"उनका" निरंतर स्मरण और चिन्तन करते हुए समस्त जगत -व्यवहार करे ,तो वह चाह कर भी पाप-कर्म नहीं कर पायेगा , वह केवल सत्कर्म ही करेगा !  तभी जीव की जय होगी , मानवता की विजय होगी , जग जीवन सार्थक होगा ।

एहि कलि काल न साधन दूजा ।

जोग  न जग्य जप  तप व्रत पूजा ॥

रामहि सुमिरिअ गाइअ रामहि ।

संतत सुनिअ राम गुण गायहि ॥

    तुलसीदास जी ने एक शाश्वत सत्य उजागर किया है ! उन्होंने कहा कि "इस कलिकाल में योग , यज्ञ , जप, तप , व्रत , और पूजन आदि ईशोपासन क़ा और कोई साधन कारगर नहीं होगा ! केवल श्रीराम  (आपके अपने इष्ट) क़ा नाम स्मरण करने और  निरंतर उनक़ा गुण गान करने और उनके गुण समूहों के सुनने से मानव को वही सुफल प्राप्त हो जाएगा जो योगियों को वर्षों की गहन तपश्चर्या के उपरांत मिलता है ! रे मूर्ख मन कुटिलता को त्याग कर तू श्री राम का भजन कर !"

पाई न केहिं गति पतित पावन राम भजि सुनु सठ मना।

गनिका अजामिल ब्याध गीध गजादि खल तारे घना॥

आभीर जमन किरात खस स्वपचादि अति अघरूप जे।

कहि नाम बारक तेपि पावन होहिं राम नमामि ते ॥

   रे पगले मन सुन , पतितों को भी पवित्र करने वाले श्री राम को भजकर किसने परम गति नहीं पाई ? श्री राम ने गनिका, अजामील, गीध आदि अनेकों दुष्टों को तार दिया ! यवन ,किरात ,चंडाल आदि   भी एक बार उनका नाम लेकर पवित्र हो जाते हैं ।

रघुबंस भूषन चरित यह नर कहहिं सुनहिं जे गावहीं।

कलि मल मनोमल धोइ बिनु श्रम राम धाम सिधावहीं॥

सत पंच चौपाईं मनोहर जानि जो नर उर धरै।

दारुन अबिद्या पंच जनित बिकार श्री रघुबर हरै ॥

  जो मनुष्य रघुवंश भूषन श्री रामजी का चरित्र कहते,सुनते और गाते हैं ,वे कलियुग के पाप और अपने मन का मल धोकर बिना कोई श्रम किये "उनके" धाम चले जाते हैं ।

  अधिक क्या कहें यदि मनुष्य उनके चरित्र की पांच सात चौपाइयां ह्रदय में धारण कर लें तो उनके पांचो प्रकार की अविद्या तथा उनसे उत्पन्न विकारों को रामजी हर लेते हैं ।

सुंदर सुजान कृपा निधान अनाथ पर कर प्रीति जो।

सो एक राम अकाम हित निर्बानप्रद सम आन को॥

जाकी कृपा लवलेस ते मतिमंद तुलसीदास हूँ।

पायो परम बिश्रामु राम समान प्रभु नाहीं कहूँ ॥

   केवल श्री राम जी ही ऐसे हैं जो बिना किसी शर्त के अनाथों से प्रेम करते हैं ! "वह" परम  सुंदर ,सुजान, और कृपानिधान  हैं !उनकी लेशमात्र कृपा से ही मंदबुद्धि तुलसीदास ने  परम शांति पाली !  श्री रामजी के समान  कोई और प्रभु है ही नहीं ।

कामिहि नारि पियारि जिमि लोभिहि प्रिय जिमि दाम।

तिमि रघुनाथ निरंतर प्रिय लागहु मोहि राम ॥

जैसे कामी को स्त्री प्रिय लगती है और लोभी को जैसे धन प्यारा लगता है वैसे ही हे रघुनाथजी ! हे रामजी आप निरन्तर मुझे प्रिय लगिए।

लेकिन ऐसा होता नहीं है इसके लिए प्रभु एवं संतों का सान्निध्य चाहिए। कई भक्तों का प्रश्न होता है  कि भक्ति-भाव में भी बहुत सारे विघ्न-वाधा आते रहते हैं?  भक्ति का मार्ग अनुकूल क्यों नहीं होता? बहुत ही अच्छा प्रश्न  है

    मेरा मानना है, मार्ग चाहे कोई भी हो, सबसे पहली परिभाषा उसकी प्रतिकूलता ही है। अगर सब कुछ अनुकूल-अनुकूल रहे तो वो मार्ग कहाँ कहलायेगा, वो तो मंजिल ही हो जाएगी। मंजिल दूर है इसलिए तो रास्ते की जरुरत होती है। वर्ना फिर कहेंगें, रास्तों पर चलने की भी क्या जरुरत सीधे-सीधे मंजिल ही माल जये। मंजिल अगर आसानी से मिल जाए, तो फिर मंजिल का क्या महत्व रह जायेगा। बात अनुकूलता या प्रतिकूलता की की तो है ही नहीं, बात ये है की मंजिल से कितना प्यार है। मंजिल पाने की कितनी चाहत है। उससे मिलने की कितनी बेकरारी है। अनुकूलता या प्रतिकूलता तो सब मन की बात है। आप जिसे प्रतिकूल कह रहें हैं, शायद वो किसी के लिए अनुकूल हो। और भगवत-भक्ति के मार्ग में रास्तों पर चलना ही मंजिल है। आपने सुना होगा, 'जब भगवान् पूछते हैं, माँगो भक्त क्या वर माँगते हो?  तो भक्त कहता है, प्रभु अगर देना ही है तो अपनी भक्ति दे दीजिये। ऐसा कुछ दीजिये जिससे सदा-सदा मैं आपके चरणों का अनुरागी बना रहूँ। तुलसीदास जी ने बहुत ही सुन्दर ढंग से कहा है -

अब नाथ करि करुना बिलोकहु देहु जो बर मागउँ।

जेहिं जोनि जन्मौं कर्म बस तहँ राम पद अनुरागऊँ ॥

  "हे नाथ! अब मुझपर दयादृष्टि कीजिये और मैं जो वर माँगता हूँ उसे दीजिये । मैं कर्मवश जिस योनि में जन्म लूँ,वहीं श्रीरामजी (आप) के चरणों में प्रेम करूँ। 

  साधना में सफलता या असफलता, इस बात पर निर्भर नहीं करता कि रास्तों में अनुकूलता या प्रतिकूलता कितनी रहीं, बल्कि वो इस बात पर निर्भर करता है कि कितनी ईमानदारी से प्रयास किया गया।

  एक बात और, आपने पूछा भगवत-भक्ति के मार्ग में भी वाधा-विघ्न क्यों होता है। मेरा तो मानना है, भक्ति के मार्ग में ही वाधायें आतीं हैं, वर्ना संसार में तो जीव हमेशा से भटकता ही आ रहा है, भगवान की माया ऐसी ही है कि संसार में चित का लगाना तो बहुत ही सहज है। ऊपर उठने के लिए ही आपको प्रयास करने जी जरुरत होती है, नीचे गिरने के लिए तो कुछ करना ही नहीं। आप सहज ही नीचे गिरते जातें हैं। गिरने के लिए कहाँ परिश्रम करना होता है।

  एक बात, अगर मार्ग में प्रतिकूलता आ रही है, इसका मतलब आप सही रास्ते पर चल रहें हैं। अगर वाधायें आ रहीं हैं तो अब मंजिल दूर नहीं है। अब पहुँचने ही वाले हैं। परमपिता परमेस्वर आप के साथ हैं तो फिर किस बात का डर। सबका उद्धार करने वाले जब साथ में हों तो डूबने की कहाँ चिंता। और ऐसे भी हमारा काम है बस भगवत-भक्ति के मार्ग पर चलना, मंजिल तक पहुचाने का काम तो उनका है। अब वो जाने कि हमें मंजिल तक कैसे ले जाना है, हम तो सब कुछ सौंप कर, बस निकल पड़े हैं। रह दिखाना, मंजिल तक ले जाना सब उनका काम है। पर हाँ, अपनी ओर से पूर्ण शरणागति होनी चाहिए, अनन्य भक्ति होना चाहिए, श्रद्धा और विस्वास बन के चलना चाहिए। धीरे-धीरे परिस्थितियाँ अनुकूल होगीं, समय परवर्तित होगा, भगवान अवश्य ही मिलेगें। आप भगवत-भक्ति के मार्ग पर बस अनवरत चलते रहें, भगवान् कब मिलेगें, कैसे मिलेगें ये सब भी भगवान् पर ही छोड़ दे, परम कल्याण होगा, सब मंगलमय होगा।

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भागवत दर्शन: मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुबीर । अस बिचारि रघुबंस मणि हरहु विषम भव भीर ॥ भक्ति का मार्ग अनुकूल क्यों नहीं होता?
मो सम दीन न दीन हित तुम समान रघुबीर । अस बिचारि रघुबंस मणि हरहु विषम भव भीर ॥ भक्ति का मार्ग अनुकूल क्यों नहीं होता?
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