मम माया संभव संसारा। जीव चराचर बिबिधि प्रकारा॥ सब मम प्रिय सब मम उपजाए। सब ते अधिक मनुज मोहि भाए

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  भगवान कहते हैं कि यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। (इसमें) अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं, क्योंकि सभी मेरे उ...

  भगवान कहते हैं कि यह सारा संसार मेरी माया से उत्पन्न है। (इसमें) अनेकों प्रकार के चराचर जीव हैं। वे सभी मुझे प्रिय हैं, क्योंकि सभी मेरे उत्पन्न किए हुए हैं। (किंतु) मनुष्य मुझको सबसे अधिक अच्छे लगते हैं । 

  प्रभु-कृपा से जो यह मनुष्य जन्म मिला है, इसको हमें सफल करना है । अगर पशुओं की तरह खाने-पीने, सोने-जागने आदि में ही समय बरबाद कर दिया तो मनुष्य जन्म सफल नहीं हुआ । मनुष्य जन्म तभी सफल होगा, जब भगवान्‌ का भजन किया जाय । भजन के बिना मनुष्य मुर्दे की तरह है।

 प्राणों के चलने से ही जीना नहीं होता। लुहार की धौंकनी भी फू-फा, फू-फा करती है, पर वह जीना नहीं कहलाता । अतः केवल श्वास लेने-छोड़ने से हमारा जीना सिद्ध नहीं होगा । जीना तभी सिद्ध होगा, जब हम मनुष्य के योग्य काम करें । चाहे मनुष्य कहो, चाहे भगवत्प्राप्ति का अधिकारी कहो, एक ही बात है । भगवत्प्राप्ति मनुष्य जन्म में ही हो सकती है और बड़ी सुगमतासे हो सकती है ।

 हम सब साक्षात् भगवान्‌के अंश हैं । भगवान् स्वयं कहते हैं‒

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः। 

मनः षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।। 

 हम सब भगवान्‌के ही उत्पन्न किये हुए उनके प्यारे अंश हैं । ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है, जो भगवान्‌ का प्यारा न हो । हमें यहाँ भगवान्‌ ने ही जन्म दिया है । 

  न केवल मनुष्य तथा कुत्ते-बिल्ली जैसे जीव, अपितु इस भौतिक जगत् के बड़े-बड़े नियन्ता-यथा ब्रह्मा-शिव तथा विष्णु तक, परमेश्र्वर के अंश हैं । ये सभी सनातन अभिव्यक्तियाँ हैं, क्षणिक नहीं । कर्षति (संघर्ष करना) शब्द अत्यन्त सार्थक है । बद्धजीव मानो लौह शृंखलाओं से बँधा हो । वह मिथ्या अहंकार से बँधा रहता है और मन मुख्य कारण है जो उसे इस भवसागर की ओर धकेलता है । जब मन सतोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप अच्छे होते हैं । जब रजोगुण में रहता है, तो उसके कार्यकलाप कष्टकारक होते हैं और जब वह तमोगुण में होता है, तो वह जीवन की निम्न योनियों में चला जाता है । लेकिन इस श्लोक से यह स्पष्ट है कि बद्धजीव मन तथा इन्द्रियों समेत भौतिक शरीर से आवरित है और जब वह मुक्त हो जाता है तो यह भौतिक आवरण नष्ट हो जाता है । लेकिन उसका आध्यात्मिक शरीर अपने व्यष्टि रूप में प्रकट होता है 

  कोई भी व्यक्ति यह नहीं बता सकता कि मैंने अपनी मरजी से यहाँ जन्म लिया है । पालन-पोषण भी भगवान् ही करते हैं । रक्षा भी भगवान् ही करते हैं । किसी में यह कहने की हिम्मत नहीं है कि मैं इतने वर्ष ही जीऊँगा, इतने वर्ष ही यहाँ रहूँगा । तात्पर्य है कि हम भगवान्‌ की मरजी से यहाँ आये हैं, भगवान्‌ की मरजी से जी रहे हैं और भगवान्‌ की मरजी से जायँगे । इसलिये हम भगवान्‌ के ही हैं ।

"स वा एष ब्रह्मनिष्ठ इदं शरीरं मर्त्यमतिसृज्य ब्रह्माभिसम्पद्य ब्रह्मणा पश्यति ब्रह्मणा शृणोति ब्रह्मणैवेदं सर्वमनुभवति ।"

   यहाँ यह बताया गया है कि जब जीव अपने इस भौतिक शरीर को त्यागता है और आध्यात्मिक जगत् में प्रवेश करता है, तो उसे पुनः आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है, जिससे वह भगवान् का साक्षात्कार कर सकता है । यह उनसे आमने-सामने बोल सकता है और सुन सकता है तथा जिस रूप में भगवान् हैं, उन्हें समझ सकता है । स्मृति से भी यह ज्ञात होता है। 

  वसन्ति यत्र पुरुषाः सर्वे वैकुण्ठ-मूर्तयः।। 

  वैकुण्ठ में सारे जीव भगवान् जैसे शरीरों में रहते हैं । जहाँ तक शारीरिक बनावट का प्रश्न है, अंश रूप जीवों तथा विष्णु मूर्ति के विस्तारों (अंशों) में कोई अन्तर नहीं होता । दूसरे शब्दों में, भगवान् की कृपा से मुक्त होने पर जीव को आध्यात्मिक शरीर प्राप्त होता है ।तुलसीदास जी लिखते है कि -

ईस्वर अंस जीव अबिनासी।

चेतन अमल सहज सुख रासी।। 

जीव ईश्वर का अंश है। (अतएव) वह अविनाशी, चेतन, निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है॥

 एक सन्त से किसी ने पूछा कि किधर जाओगे ? तो वे बोले कि फुटबाल को क्या पता कि वह किधर जायगा ? खिलाड़ी जिधर ठोकर लगायेगा, वहीं जायगा । इसी तरह भगवान्‌ जहाँ भेजेंगे, वहीं जायँगे, जैसा रखेंगे, वैसे रहेंगे‒ऐसा विचार करके निश्चित हो जायँ । 

  हालांकि यह आसान नहीं है वह भी आज के परिवेश में, यहां तो धन संपत्ति के लिए भाई भाई का दुश्मन है। लेकिन संभव हो तो कोशिश करें । अपनी कोई इच्छा न रखें; न जीने की, न मरने की । भगवान्‌ चाहे नरकों में भेजें, चाहे स्वर्ग में भेजें, चाहे वैकुण्ठ में भेजें, चाहे मनुष्यलोक में भेजें, जैसी उनकी मरजी, हम उनके भरोसे निश्चिन्त हो जायँ । अपनी अलग कोई इच्छा न रखकर भगवान्‌ की इच्छा में अपनी इच्छा मिला दें । केवल इतने से ही हमारा जीवन सफल हो जायगा, लम्बी-चौड़ी बात ही नहीं है । बैठे हैं तो भगवान्‌ की मरजी से, जाते हैं तो भगवान्‌ की मरजी से । हमें कोई दुःख नहीं, कोई सन्ताप नहीं । अगर अभी मर जायँ तो क्या हर्ज है ?

  महाभारत काल में यक्ष ने युधिष्ठिर से कुल लगभग साठ प्रश्न पूछे थे, उसमें एक प्रश्न यह भी था कि -

 किम् आचार्यम्?

  इस दुनिया में सबसे आश्चर्यजनक बात क्या है?" युधिष्ठिर ने उत्तर दिया:

अहन्यहनि भूतानि गच्छन्तीह यमालयम्।

 शेषा स्थिरत्वमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्।।(महाभारत)

“हर पल लोग मर रहे हैं। जो जीवित हैं वे इस घटना को देख रहे हैं, और फिर भी वे यह नहीं सोचते कि एक दिन उन्हें भी मरना होगा। इससे ज्यादा आश्चर्यजनक और क्या हो सकता है?”

जातस्य हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च। 

तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि।। 

  जिसने जन्म लिया है उसकी मृत्यु निश्चित है, और जो मर गया है उसका पुनर्जन्म अवश्यम्भावी है। इसलिए, आपको अपरिहार्य पर विलाप नहीं करना चाहिए।

 श्री कृष्ण इस श्लोक में समझाते हैं कि जीवन अनिवार्य रूप से एक मृत अंत है, और इसलिए एक बुद्धिमान व्यक्ति अपरिहार्य पर शोक नहीं करता है।

  अर्थात जब जन्म एवं मृत्यु सब ईश्वर के हाथ में है तो हमारे हाथ में क्या? किस बात कि घमंड करते हैं हम ? 

पुनरपि जननं पुनरपि मरणं,

पुनरपि जननी जठरे शयनम् ।

इह संसारे बहुदुस्तारे,

कृपयाऽपारे पाहि मुरारे

भजगोविन्दं भजगोविन्दं, 

गोविन्दं भजमूढमते। 

नामस्मरणादन्यमुपायं, 

नहि पश्यामो भवतरणे।। 

 बार-बार जन्म, बार-बार मृत्यु, बार-बार माँ के गर्भ में शयन, इस संसार से पार जा पाना बहुत कठिन है, हे कृष्ण कृपा करके रक्षा करो गोविंद को भजो, गोविन्द का नाम लो, गोविन्द से प्रेम करो । क्योंकि भगवान के नाम जप के अतिरिक्त इस भवसागर से पार जाने का अन्य कोई मार्ग नहीं है । इस लिए प्रभु राम नवधा भक्ति में माता शवरी से कहते हैं कि -

कहु रघुपति सुनि भामिनि बाता। 

मानौ एक भगति का नाता ।

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