दंडक बन प्रभु कीन्ह सुहावन । जन मन अमित नाम किए पावन।। निसिचर निकर दले रघुनंदन। नामु सकल कलिकलुष निकंदन।।

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
0

  

dandakvan
dandakvan

   प्रभु श्री रामजी ने (भयानक) दण्डक वन को सुहावना बनाया, परन्तु राम नाम ने असंख्य मनुष्यों के मनों को पवित्र कर दिया। 

  श्री रघुनाथजी ने राक्षसों के समूह को मारा, परन्तु "राम" नाम तो कलियुग के सारे पापों की जड़ उखाड़ने वाला है।

  देखा जाए तो चित्रकूट के वन में आनंद ही आनंद था। और दण्डकारण्य में समस्याएँ ही समस्याएँ हैं। व्यक्ति वन में किसी मुनि के आश्रम में पहुँच जाए तो वन में भी जाकर उसे प्रसन्नता की अनुभूति होती है, पर व्यक्ति वन में यदि अकेला हो और भटक जाए, उसे कोई मार्ग समझ में न आए, तो ऐसी स्थिति में वन उसके लिए आनंद के स्थान पर दुख की ही सृष्टि करेगा। वन की ये दोनों स्थितियाँ मनुष्य के भी भीतर विद्यमान होती हैं गोस्वामीजी यही कहते हैं कि

रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारू ।

   चित्रकूट चित्त की भूमि है। दण्डकारण्य के लिए वे कहते हैं कि-

दंडक बनु प्रभु कीन्ह सुहावन।

जन मन अमित नाम किए पावन।। 

    दण्डकारण्य मन की भूमि है । चित्त की स्थिति में पहुँच जाने पर एक शुद्ध आनंद का साक्षात्कार होता है और व्यक्ति जब मन के धरातल पर होता है तो दुखों से अछूता नहीं रह सकता।

 राम जी को वन में निवास करने के लिए ही कहा था, अतः किसी भी वन में प्रभु रह लेते तो उनकी आज्ञा का पालन हो जाता। पर प्रभु स्वयं चित्रकूट की प्रेम और आनंदमई भूमि को छोड़कर आगे दण्डकारण्य की ओर प्रस्थान करने का निर्णय करते हैं।

  गोस्वामीजी ने प्रभु के चित्रकूट निवास की अवधि के आनंद का वर्णन 'मानस' में किया है।

 गोस्वामी जी मानो जानते थे कि लोगों के मन में यह प्रश्न स्वाभाविक रूप से उठ सकता है कि 'सीताजी राजमहल में पली-बढ़ी थीं, जहाँ दिव्य कोमल शय्या आदि सुख- सुविधा के सभी साधन उपलब्ध थे, अतः वन में उन्हें बड़े कष्ट उठाने पड़े होंगे ? इसीलिए गोस्वामीजी कहते हैं कि-

सिय मनु राम चरम अनुरागा ।

अवध सहस सम बनु प्रिय लागा।। 

  चित्रकूट की यह भूमि सीताजी के लिए हजारों अयोध्या से भी अधिक सुख देने वाली थी। गोस्वामीजी यह भी कहते हैं कि -

सोइ रघुनाथ करहिं सोइ कहहीं ।

    भगवान प्रतिदिन यही प्रयास करते हैं कि जिससे श्रीसीताजी व लक्ष्मणजी को सुख मिले और वे प्रसन्न रहें। इस प्रकार जब ईश्वर ही निरंतर सुख देने के लिए व्यग्र हो जाए, तो फिर उस सुख और आनंद का कौन वर्णन कर सकता है ? गोस्वामीजी ने चित्रकूट की बड़ी प्रशंसा की है। किसी ने उनसे पूछ दिया कि आप चित्रकूट की इतनी प्रशंसा क्यों करते हैं ? उसमें ऐसी क्या विशेषता है ? गोस्वामीजी ने कहा कि-

"क्यों कहौं चित्रकूट- गिरि, संपत्ति, 

महिमा - मोद मनोहरताई।

तुलसी जहँ बसि लखन राम सिय 

आनँद अवधि अवध बिसराई ।"

  जिस वन में रहकर भगवान राम आनंद की भूमि अयोध्या को भूल गए, उस चित्रकूट की महिमा का वर्णन भला मैं क्या कर सकता हूँ ? 

  पर ऐसी दिव्य और आनंदमई चित्रकूट - भूमि का परित्याग कर भगवान राम ने दण्डकारण्य में जाने का निर्णय क्यों किया ? 

  दण्डकारण यदि सुतीक्ष्ण और मुनि शरभंग जैसे। भक्त है तो दूसरी ओर सूर्पनखा, खर-दूषण - त्रिसरा जैसे पात्र हैं।

   एक ओर यदि इसमें वासना की घनीभूत रूप सूर्पनखा है तो दूसरी ओर भक्ति स्वरूपा शबरी जी हैं। जो महनीय वंदनीय भावनामयी शबरी मां हैं।

  सूर्पनखा जनकनंदनी और प्रभु के वियोग का कारण बनती है, प्रभु श्री राम इन्हें पाने के लिए शबरी से ही प्रश्न करते हैं। 

जनकसुता कइ सुधि भामिनी। 

जानहि कहु करिबर गामिनी।। 

  क्या आप सीताजी की सुधि जानती हैं ? और यदि जानती हैं तो बताएँ कि उन्हें पाने का उपाय क्या है ? भगवान राम का प्रश्न सुनकर शबरीजी बड़े संकोच और विनम्रता से उन्हें जो उपाय बताती हैं, भगवान राम उसका पालन करते हैं और अंततोगत्वा सीताजी को पाने में सफल होते हैं। इस प्रसंग के माध्यम से जो संकेत-सूत्र हमें प्राप्त होते हैं वे बड़े महत्वपूर्ण हैं। मनुष्य के सामने जो एक शाश्वत समस्या रही है, वह समस्या है। दुख की । प्रत्येक व्यक्ति सुख ही सुख पाना चाहता है, पर न चाहने पर भी दुख आ ही जाते हैं। ऐसी स्थिति में 'दुख के कारण क्या हैं तथा उसके निवारण के क्या उपाय हैं ?' यह जानने की जिज्ञासा व्यक्ति के हृदय में स्वाभाविक रूप से होती है। 'मानस' में भगवान राम और लक्ष्मणजी के संवाद के माध्यम से इसी की ओर संकेत किया गया है।

 समाज में एक बड़ा प्रचलित शब्द है- 'माया' और यह माना जाता है कि माया ही दुख का कारण है। भगवान राम भी लक्ष्मणजी के प्रश्नों का उत्तर यही कहकर देते हैं कि माया का एक रूप ऐसा भी है जो दुख का मूल कारण है। वे कहते हैं कि-

तेहि कर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ। 

बिद्या अपर अबिद्या दोऊ ।।

  और इस तरह इस काण्ड में सूर्पनखा और शबरी के माध्यम से अविद्या और भक्ति तत्व की व्याख्या की जाती है।

  प्रत्येक व्यक्ति व्यवहार में बार-बार इस 'माया' शब्द का प्रयोग करता रहता है, पर सचमुच इसका स्वरूप क्या है ?

 क्या यह कोई ऐसी नारी है जो व्यक्ति को अपने बंधन में बाँधकर कष्ट दिया करती है ? कई बार उसे एक साकार रूप में भी आरोपित कर दिया जाता है। पर वस्तुतः भगवान राम लक्ष्मणजी से माया की जो व्याख्या करते हैं उसका पूरा का पूरा लक्षण सूर्पणखा के चरित्र में दिखाई देता है। इसी प्रकार भगवान राम ने जिस भक्ति को सुख का मूल बताया था, उसका साकार रूप शबरीजी के चरित्र में दिखाई देता है। इसका तात्पर्य है कि माया रूपी सूर्पणखा दुख का कारण बनती है और भक्तिरूपा शबरी वह उपाय बताती हैं कि जिससे दुखों को दूर करने वाली भक्ति की प्राप्ति होती है।

न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा: । 

माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिता: ।। 

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

thanks for a lovly feedback

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top