अत्यंत कृपालु देवों के देव चन्द्रशेखर महादेव :- "जरत सकल सुर बृंद बिषम गरल जेहिं पान किय। तेहि न भजसि मन मंद को कृपाल संकर सरिस॥"

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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   भावार्थ है:-- "जिस भीषण हलाहल विष से सब देवतागण जल रहे थे, उसको जिन्होंने स्वयं पान कर लिया, रे मन्द मन! तू उन शंकरजी को क्यों नहीं भजता ? उनके समान कृपालु (और) कौन है ? 

     भगवान् शिवजी पंचदेवों में प्रधान, अनादि सिद्ध परमेश्वर, एवम् निगमागम, सभी शास्त्रों में महिमा- मण्डित महादेव हैं। वेदों ने अव्यक्त, अजन्मा, सबका कारण, विश्वपंच का स्रष्टा, पालक एवम् संहारक कहकर उनका गुणगान किया है। श्रुतियों ने सदा शिवजी को स्वयम्भू, शान्त, परात्पर, परमतत्त्व, ईश्वरों के भी परम महेश्वर कहकर स्तुति की है। शिव का अर्थ ही है-- कल्याणस्वरूप और कल्याण- प्रदाता। भगवान् शिवजी देवों के भी देव हैं।

     भगवान् शिवजी वैसे तो परिवार के देवता कहे गयें है, लेकिन फिर भी पहाड़ो में निवास करते हैं। भगवान् शिवजी के सांसारिक होते हुए भी पहाड़ों में निवास करने के पीछे जीवन मंत्र का एक गूढ़ सूत्र छिपा है। संसार मोह- माया का प्रतीक है, जबकि पहाड़ वैराग्य का।

   भगवान् शिवजी कहते हैं कि संसार में रहते हुये अपने कर्तव्य पूरे करो लेकिन मोह- माया से दूर रहो। क्योंकि, ये संसार तो नश्वर है। एक न एक दिन ये सबकुछ नष्ट होने वाला है। इसलिये संसार में रहते हुए भी किसी से मोह मत रखो और अपने कर्तव्य पूरे करते हुए वैरागी की तरह आचरण करो।

   शिवजी को संहार का देवता कहा गया है। अर्थात जब मनुष्य अपनी सभी मर्यादाओं को तोड़ने लगता है, तब शिवजी उसका संहार कर देते हैं। जिन्हें अपने पाप कर्मों का फल भोगना बचा रहता है, वे ही प्रेतयोनि को प्राप्त होते हैं।

  चूंकि शिवजी संहार के देवता हैं, इसलिये पापियों को दंड भी वे ही देते हैं। इसलिये शिवजी को भूत- प्रेतों का देवता भी कहा जाता है। दरअसल यह जो भूत-प्रेत है, वह कुछ और नहीं बल्कि सूक्ष्म शरीर का प्रतीक है। भगवान् शिवजी का यह संदेश है कि हर तरह के जीव जिससे सब घृणा करते हैं या भय करते हैं, वे भी शिवजी के समीप पहुंच सकते हैं। केवल शर्त है कि वे अपना सर्वस्व भगवान् शिवजी को समर्पित कर दें।

  भगवान् शिवजी जितने रहस्य मंडित हैं, उनके वस्त्र व आभूषण भी उतने ही विचित्र हैं। सांसारिक लोग जिनसे दूर भागते हैं, भगवान् शिवजी उसे ही अपने साथ रखते हैं। भगवान शिवजी एकमात्र ऐसे देवता हैं, जो गले में नाग धारण करते हैं। देखा जाये तो नाग बहुत ही खतरनाक प्राणी है। लेकिन वह बिना कारण किसी को नहीं काटता। नाग पारिस्थितिक तंत्र का महत्वपूर्ण जीव है और जाने-अंजाने में ये मनुष्यों की सहायता ही करता है।

   कुछ लोग डर कर या अपने निजी स्वार्थ के लिए नागों को मार देते हैं। अध्यात्म दृष्टिकोण से देखा जाये तो भगवान् शिवजी नाग को गले में धारण कर ये संदेश देते हैं, कि जीवन चक्र में हर प्राणी का अपना विशेष योगदान है। इसलिये बिना वजह किसी प्राणी की हत्या न करें।

    त्रिशूल भगवान् शिवजी का प्रमुख अस्त्र है। यदि त्रिशूल का प्रतीक चित्र देखें तो उसमें तीन नुकीले सिरे दिखते हैं। यूं तो यह अस्त्र संहार का प्रतीक है, पर वास्तव में यह बहुत ही गूढ़ बात बताता है; यथा-  संसार में तीन तरह की प्रवृत्तियां होती हैं-- सत्व, रज: और तम। 'सत्व' मतलब सात्विक, 'रज:' मतलब सांसारिक और 'तम' मतलब तामसी अर्थात निशाचरी प्रवृति। हर मनुष्य में ये तीनों प्रवृत्तियां पायीं जाती हैं। फर्क सिर्फ इतना है कि इनकी मात्रा में अंतर होता है। त्रिशूल के तीन नुकीले सिरे इन तीनों प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। त्रिशूल के माध्यम से भगवान शिव यह संदेश देते हैं कि इन गुणों पर हमारा पूर्ण नियंत्रण हो। यह त्रिशूल तभी उठाया जाये जब कोई मुश्किल आये और तभी इन तीन गुणों का आवश्यकता अनुसार उपयोग हो।

    देवताओं और दानवों द्वारा किये गयें समुद्र मंथन से निकला विष भगवान् शंकरजी ने अपने कंठ में धारण किया था। विष के प्रभाव से उनका कंठ नीला पड़ गया और वे 'नीलकंठ' के नाम से प्रसिद्ध हुयें। समुद्र मंथन का अध्यात्म अर्थ है-- अपने मन को मथना, विचारों का मंथन करना। मन में असंख्य विचार और भावनायें होती हैं। उन्हें मथ कर निकालना और अच्छे विचारों को अपनाना। कोई जब अपने मन को मथेंगी तो सबसे पहले बुरे विचार ही निकलेंगे और यही है 'विष' यानी विषया विष हैं।

   विष बुराइयों का प्रतीक है। शिवजी ने उसे अपने कंठ में धारण किया, मगर उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। शिव का विष पीना यह दैवी संदेश देता है कि बुराइयों को अपने ऊपर हावी नहीं होने देना चाहिये। बुराइयों का हर कदम पर सामना करना चाहिये। शिवजी द्वारा विष पीना यह भी सीख देता है कि यदि कोई बुराई पैदा हो रही हो, तो उसे दूसरों तक नहीं पहुंचने दें।

   भगवान् शंकरजी का वाहन नंदी यानी बैल है। बैल बहुत ही मेहनती जीव होता है। वह शक्तिशाली होने के बावजूद शान्त एवम भोला होता है। वैसे ही भगवान् शिवजी भी परमयोगी एवं शक्तिशाली होते हुये भी परम शान्त एवम् इतने भोले हैं कि उनका एक नाम 'भोलेनाथ' भी जगत में प्रसिद्ध है। भगवान् शंकरजी ने जिस तरह कामदेव को भस्म कर उस पर विजय प्राप्त की थी, उसी तरह उनका वाहन भी कामी नही होता अर्थात उसका काम पर पूरा नियंत्रण होता है। साथ ही नंदी को पुरुषार्थ का भी प्रतीक माना गया है।

    कड़ी मेहनत करने के बाद भी बैल कभी थकता नहीं। वह लगातार अपने कर्म करते रहता है। इसका अर्थ है कि मनुष्य भी सदैव अपना कर्म करते रहना चाहिये। कर्म करते रहने के कारण-- जिस तरह नंदी, शिवजी को प्रिय है, उसी प्रकार इंसान भी भगवान् शंकरजी की कृपा पा सकते हैं।

    भगवान् शिवजी का एक नाम 'भालचंद्र' भी प्रसिद्ध है। भालचंद्र का अर्थ है-- मस्तक पर चंद्रमा धारण करने वाला। चंद्रमा का स्वभाव शीतल होता है। चंद्रमा की किरणें भी शीतलता प्रदान करती हैं। जीवन मंत्र के दृष्टिकोण से देखा जाये तो भगवान् शिवजी कहते हैं कि-- जीवन में कितनी भी बड़ी समस्या क्यों न आ जाये, दिमाग हमेशा शान्त ही रखना चाहिये। यदि दिमाग शान्त रहेगा तो बड़ी से बड़ी समस्या का हल भी निकल आयेगा। ज्योतिष शास्त्र में चंद्रमा को मन का कारक ग्रह माना गया है, क्यों कि मन की प्रवृत्ति बहुत चंचल होती है।

   चन्द्रशेखर भगवान् शिवजी का चंद्रमा को धारण करने का अर्थ है कि मन को सदैव अपने काबू में रखना चाहिये। क्यों कि मन भटकेगा तो लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो पायेगी। जिसने मन पर नियंत्रण कर लिया, वह अपने जीवन में कठिन से कठिन लक्ष्य भी आसानी से पा लेता है।

   धर्म ग्रंथों के अनुसार, सभी देवताओं की दो आंखें हैं, लेकिन एकमात्र शिवजी ही ऐसे देवता हैं, जिनकी तीन आंखें हैं। तीन आंखों के कारण भगवान् शिवजी को 'त्रिनेत्रधारी' भी कहते हैं। जीवन मंत्र की दृष्टि से देखा जाये तो शिवजी का तीसरा नेत्र प्रतीकात्मक है। आंखों का काम होता है रास्ता दिखाना और रास्ते में आने वाली मुसीबतों से सावधान करना। जीवन में कई बार ऐसे संकट भी आ जाते हैं, जिन्हें समझना कठिन है। ऐसे समय में विवेक और धैर्य ही एक सच्चे मार्गदर्शक के रूप में सही- गलत की पहचान कराते हैं। यह विवेक अत:प्रेरणा के रूप में मनुष्य के अंदर ही रहता है। यहीं है तीसरा नेत्र। बस जरूरत है-- उसे जगाने की।

  धर्म शास्त्रों में जहां सभी देवी- देवताओं को वस्त्र- आभूषणों से सुसज्जित बताया गया है, वहीं भगवान् शंकरजी को सिर्फ मृग चर्म लपेटे और भस्म लगाये बताया गया है। भस्म शिवजी का प्रमुख वस्त्र भी है। क्योंकि शिवजी का पूरा शरीर ही भस्म से ढंका रहता है। शिवजी का भस्म रमाने के पीछे कुछ वैज्ञानिक तथा आध्यात्मिक कारण भी हैं। भस्म की एक विशेषता होती है कि यह शरीर के रोम छिद्रों को बंद कर देती है। इसका मुख्य गुण है कि इसको शरीर पर लगाने से गर्मी में गर्मी और सर्दी में सर्दी नहीं लगती। ये भस्म त्वचा संबंधी रोगों में भी दवा का काम करती है। भस्म धारण करने वाले शिवजी यह संदेश भी देते हैं, कि परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढालना ही मनुष्य का सबसे बड़ा गुण है।

    भगवान् शिवजी को भांग- धतूरा मुख्य रूप से चढ़ाया जाता है। ऐसा माना जाता है कि भगवान् को भांग- धतूरा चढ़ाने से वे प्रसन्न होते हैं। भांग व धतूरा नशीले पदार्थ हैं। आमजन इनका सेवन नशे के लिये करते हैं। जीवन मंत्र के अनुसार, भगवान शिव को भांग- धतूरा चढ़ाने का अर्थ है-- अपनी बुराइयों को भगवान को समर्पित करना, यानी अगर कोई किसी प्रकार का नशा करते हैं तो इसे भगवान् को अर्पित करे दें, और भविष्य में कभी भी नशीले पदार्थों का सेवन न करने का संकल्प लें। ऐसा करने से भगवान् की कृपा सतत बनी रहेगी और जीवन सुखमय होगा।

   शिवपुराण और सभी ग्रंथों में भगवान् शिवजी को पूजन के समय बिल्व पत्र चढ़ाने का विशेष महत्व बताया गया है। तीन अक्षत पत्तों वाला बिल्व पत्र ही शिवजी के पूजन में उपयुक्त माना गया है। जीवन मंत्र के दृष्टिकोण से देखा जाये तो बिल्व पत्र के ये तीन पत्ते चार पुरुषार्थों में से तीन का प्रतीक हैं-- 'धर्म', 'अर्थ' व 'काम'। जब ये तीनों निस्वार्थ भाव से भगवान् शिवजी को समर्पित कर देते हैं, तो चौथा 'पुरुषार्थ' यानी 'मोक्ष' अपने आप ही प्राप्त हो जाता है।

     शिवपुराण के अनुसार, भगवान् शिवजी कैलाश पर्वत पर निवास करते हैं। पर्वतों पर आम लोग नहीं आते-जाते, सिद्ध पुरुष ही वहां तक पहुंच पाते हैं। इसिलए भगवान् शिवजी कैलाश पर्वत पर योग में लीन रहते हैं। जीवन मंत्र की दृष्टि से देखा जाए तो पर्वत प्रतीक है एकान्त व ऊँचाई का। यदि कोई किसी प्रकार की सिद्धि पाना चाहते हैं, तो इसके लिये उनको एकांत स्थान पर ही साधना करनी चाहिये। ऐसे स्थान पर साधना करने से मन भटकेगा नहीं और साधना की उच्च अवस्था तक पहुंच जाओगे।

   भगवान् शिवजी के नाम का स्मरण और पूजा से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है। तथा इस जीवन में बड़े-बड़े उत्कृष्ट भोगों का उपभोग करके, अन्त में 'शिवलोक' को प्राप्त कर लेता है।

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