एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान। पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान॥

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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 अर्थ :-  एक तो मैं यों ही मंद हूँ, दूसरे मोह के वश में हूँ, तीसरे हृदय का कुटिल और अज्ञान हूँ, फिर हे दीनबंधु भगवान्‌! प्रभु (आप) ने भी मुझे भुला दिया। 

  श्री हनुमान जी ने ये नहीं कहा की मै हनुमान हूँ, अंजनी पुत्र हूँ, पवनसुत हूँ, शंकर सुवन केसरीनंदन हूँ अपितु अपनी इस देह का परिचय ना देकर, अपने दोषों को प्रगट करते हुए कहते हैं की प्रभु मैं आपको पहिचान नहीं सका। उनके इस तरह से परिचय देने से श्रीराम समझ गए कि हनुमानजी में देह अभिमान ना होकर देह होने का भी भान नहीं है। (वैसे भी वायु की कोई देह नहीं होती ) और फिर श्रीराम ने निर्णय किया कि जिसको देह अभिमान नहीं है वह ही वैदेही का पता लगा सकता है। यह जानकर ही अपनी अंगूठी श्रीहनुमानजी को दी।

 जब वह अंगूठी श्रीहनुमानजी ने मुंह में डाली तो श्रीराम ने कारण पुछा तो श्रीहनुमान जी बोले प्रभु भक्ति माता को खोजने के लिए मुंह में राम का नाम होना आवश्यक है। अगर मुहं में रामनाम होगा तभी भक्ति देवी प्राप्त होंगी।

उद्भवस्थितिसंहारकारिणीं क्लेशहारिणीम्‌।

सर्वश्रेयस्करीं सीतां नतोऽहं रामवल्लभाम्‌॥

  उत्पत्ति, स्थिति (पालन) और संहार करने वाली, क्लेशों को हरने वाली तथा सम्पूर्ण कल्याणों को करने वाली श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री सीताजी को मैं नमस्कार करता हूँ।

  आज के समय में भी हर व्यक्ति शक्ति, भक्ति और लक्ष्मी की खोज में लगा है, सारे प्रयास इनको प्राप्त करने में ही लग रहें हैं ये केवल आज की ही बात नहीं है। परन्तु ये भक्ति ,शक्ति और लक्ष्मी श्रीहनुमानजी जैसे देह अभिमान से ऊपर उठे व्यक्ति को ही प्राप्त होगी।

  लंका में श्रीहनुमान जी अशोकवृक्ष पर बैठकर माता सीता का विलाप सुनते हैं जब माता सीता अशोकवृक्ष से अंगार मांगती हैं तब श्रीहनुमान जी मन में विचार करके अंगूठी डाल देते हैं यह सोचकर कि माता सीता को अंगार की अपेक्षा राम ही माँगना चाहिए| श्रीराम का प्राप्त होना ही सब दुखों का निवारण है। 

  माता सीता इस ब्रहमांड के सबसे बड़े वेदांत परम्परा को मानने वाले श्री जनक की पुत्री है। वेदांत को मानने वाले देह अभिमान से ऊपर होते हैं| माता सीता का जन्म वैसे भी किसी देह से उत्पन्न नहीं हुआ था तभी हम माता सीता को वैदेही भी कहते हैं और जनकपुर में सब व्यक्ति ब्रहमज्ञानी हैं इसी कारण वश उस राज्य को विदेहराज भी कहा जाता है।

   उस राज्य में कोई भी निवासी देह का अभिमान करने वाला नहीं होता सब इस देह अभिमान से उपर उठे होते हैं।इसी कारणवश माता सीता जिनको हम लक्ष्मी, भक्ति और शक्ति भी कहते हैं उन्हें बिना किसी प्रयास के प्राप्त हो गयीं। हनुमान जी में अहंकार नहीं है। वे राम भक्त है।

ता पर मैं रघुबीर दोहाई।

जानउँ नहिं कछु भजन उपाई।। 

सेवक सुत पति मातु भरोसें।

रहइ असोच बनइ प्रभु पोसें॥

  उस पर हे रघुवीर! मैं आपकी दुहाई (शपथ) करके कहता हूँ कि मैं भजन-साधन कुछ नहीं जानता। सेवक स्वामी के और पुत्र माता के भरोसे निश्चिंत रहता है। प्रभु को सेवक का पालन-पोषण करते ही बनता है (करना ही पड़ता है)॥

अस कहि परेउ चरन अकुलाई।

 निज तनु प्रगटि प्रीति उर छाई॥

तब रघुपति उठाई उर लावा।

निज लोचन जल सींचि जुड़ावा ।। 

 ऐसा कहकर हनुमान्‌जी अकुलाकर प्रभु के चरणों पर गिर पड़े, उन्होंने अपना असली शरीर प्रकट कर दिया। उनके हृदय में प्रेम छा गया। तब श्री रघुनाथजी ने उन्हें उठाकर हृदय से लगा लिया और अपने नेत्रों के जल से सींचकर शीतल किया॥

अंत में मैं -

यन्मायावशवर्ति विश्वमखिलं ब्रह्मादिदेवासुरा 

यत्सत्त्वादमृषैव भाति सकलं रज्जौ यथाहेर्भ्रमः।

 यत्पादप्लवमेकमेव हि भवाम्भोधेस्तितीर्षावतां 

वन्देऽहं तमशेषकारणपरं रामाख्यमीशं हरिम्‌॥

 जिनकी माया के वशीभूत सम्पूर्ण विश्व, ब्रह्मादि देवता और असुर हैं, जिनकी सत्ता से रस्सी में सर्प के भ्रम की भाँति यह सारा दृश्य जगत्‌ सत्य ही प्रतीत होता है और जिनके केवल चरण ही भवसागर से तरने की इच्छा वालों के लिए एकमात्र नौका हैं, उन समस्त कारणों से पर (सब कारणों के कारण और सबसे श्रेष्ठ) राम कहलाने वाले भगवान श्रीहरि की मैं वंदना करता हूँ।

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