क्यों मनाते हैं महाशिवरात्रि ? महाशिवरात्रि व्रत क्यों, कब और कैसे रखें ? सम्पूर्ण शास्त्रीय विधान सहित

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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  फाल्गुन में दो महारात्रि आती हैं जिनमें एक है अहोरात्रि तथा दूसरी है दारुणरात्रि।

  अहोरात्रि फाल्गुन (पूर्णिमांत) कृष्ण चतुर्दशी को मनाई जाती है जिसमें महाशिवरात्रि का त्यौहार मनाया जाता है।

महाशिवरात्रि से सम्बंधित शास्त्रोक्त जानकारियाँ में आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ।

क्यों मनाते हैं महाशिवरात्रि ? 

  चतुर्दशी तिथि के स्वामी शिव हैं। अत: ज्योतिष शास्त्रों में इसे परम कल्याणकारी कहा गया है।

   वैसे तो शिवरात्रि हर महीने में आती है। परंतु फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि कहा गया है। 

शिवरहस्य में कहा गया है -

चतुर्दश्यां तु कृष्णायां फाल्गुने शिवपूजनम्। 

तामुपोष्य प्रयत्नेन विषयान् परिवर्जयेत।।

शिवरात्रि व्रतं नाम सर्वपापप्रणाशनम्।

  महाशिवरात्रि (निशीथकाल व्यापनी फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी) का त्यौहार क्यों मनाया जाता है और इसमें शिवपूजा क्यों की जाती है इसके बारे में अनेक कथाएं प्रचलित हैं परन्तु शिवपुराण में वर्णित रहस्य ही इसमें प्रमुख है, जिसका ज्ञान प्रत्येक सनातनी को होना चाहिए। 

शिव पुराण में ईशान संहिता के अनुसार -

फाल्गुनकृष्णचतुर्दश्यामादिदेवो महानिशि। 

शिवलिंगतयोद्भूत: कोटिसूर्यसमप्रभ:॥

  अर्थात् फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी की रात्रि में आदिदेव भगवान शिव करोडों सूर्यों के समान प्रभाव वाले लिंग रूप में प्रकट हुए इसलिए इसे महाशिवरात्रि मानते हैं। 

  शिवपुराण में विद्येश्वर संहिता के अनुसार शिवरात्रि के दिन ब्रह्मा जी तथा विष्णु जी ने अन्यान्य दिव्य उपहारों द्वारा सबसे पहले शिव पूजन किया था जिससे प्रसन्न होकर महेश्वर ने कहा था कि -

तुष्टोऽहमद्य वां वत्सौ पूजयाऽस्मिन्महादिने।।९।।

दिनमेतत्ततः पुण्यं भविष्यति महत्तरम्। 

शिवरात्रिरिति ख्याता तिथिरेषा मम प्रिया।।१०।।

एतत्काले तु यः कुर्यात्पूजां मल्लिंगबेरयोः। 

कुर्यात्तु जगतः कृत्यं स्थितिसर्गादिकं पुमान्।।११।।

शिवरात्रावहोरात्रं निराहारो जितेंद्रियः। 

अर्चयेद्वा यथान्यायं यथाबलमवंचकः।।१२।।

यत्फलं मम पूजायां वर्षमेकं निरंतरम्। 

तत्फलं लभते सद्यः शिवरात्रौ मदर्चनात्।।१३।।

मद्धर्मवृद्धिकालोऽयं चंद्रकाल इवांबुधेः। 

प्रतिष्ठाद्युत्सवो यत्र मामको मंगलायनः।।

“आज का दिन एक महान दिन है । इसमें तुम्हारे द्वारा जो आज मेरी पूजा हुई है, इससे मैं तुम लोगोंपर बहुत प्रसन्न हूँ। इसी कारण यह दिन परम पवित्र और महान से महान होगा  । आज की यह तिथि ‘शिवरात्रि’ के नामसे विख्यात होकर मेरे लिये परम प्रिय होगी । इसके समय में जो मेरे लिंग (निष्कल – अंग – आकृति से रहित निराकार स्वरूप के प्रतीक ) वेर (सकल – साकाररूप के प्रतीक विग्रह) की पूजा करेगा, वह पुरुष जगत की सृष्टि और पालन आदि कार्य भी कर सकता हैं । जो महाशिवरात्रि को दिन-रात निराहार एवं जितेन्द्रिय रहकर अपनी शक्ति के अनुसार निश्चलभाव से मेरी यथोचित पूजा करेगा, उसको मिलनेवाले फल का वर्णन सुनो । एक वर्ष तक निरंतर मेरी पूजा करनेपर जो फल मिलता हैं, वह सारा केवल महाशिवरात्रि को मेरा पूजन करने से मनुष्य तत्काल प्राप्त कर लेता हैं । जैसे पूर्ण चंद्रमा का उदय समुद्र की वृद्धि का अवसर हैं, उसी प्रकार यह महाशिवरात्रि तिथि मेरे धर्म की वृद्धि का समय हैं । इस तिथि में मेरी स्थापना आदि का मंगलमय उत्सव होना चाहिये । 

  अर्धरात्रि की पूजा के लिये स्कन्द पुराण में लिखा है कि फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी को -

निशिभ्रमन्ति भूतानि शक्तयः शूलभृद्यतः । 

अतस्तस्यां चतुर्दश्यां सत्यां तत्पूजनं भवेत् ॥

  अर्थात् रात्रिके समय भूत, प्रेत, पिशाच, शक्तियाँ और स्वयं शिवजी भ्रमण करते हैं; अतः उस समय इनका पूजन करने से मनुष्य के पाप दूर हो जाते हैं । 

 शिवपुराण विद्येश्वर संहिता अध्याय 11 में आया है -

कालो निशीथो वै प्रोक्तोमध्ययामद्वयं निशि । 

शिवपूजा विशेषेण तत्काले ऽभीष्टसिद्धिदा ॥

एवं ज्ञात्वा नरः कुर्वन्यथोक्तफलभाग्भवेत्।। 

  अर्थात रात के चार प्रहरों में से जो बीच के दो प्रहर हैं, उन्हें निशीथकाल कहा गया हैं । विशेषत: उसी कालमें की हुई भगवान शिव की पूजा अभीष्ट फल को देनेवाली होती है – ऐसा जानकर कर्म करनेवाला मनुष्य यथोक्त फलका भागी होता है । 

ईशानसंहिता में आया है -

वर्षे वर्षे महादेवि नरो नारी पतिव्रता । 

शिवरात्रौ महादेवं कामं भक्त्या प्रपूजयेत् ॥

  प्रतिवर्ष  नर और पतिव्रता नारी शिवरात्रि के दिन भक्ति से शिव की नित्य पूजा करे। 

  शैवाचार्य उत्पलदेवजी महाराज ने श्री उत्पलस्तोत्रावली में शिवरात्रि का उल्लेख इस प्रकार किया है -

यत्र सोऽस्तमयमेति विस्वासाँश् -

चन्द्रमा प्रभृतिभिः सह सर्वैः।

कपि सा विजयते शिवरात्रिः 

स्वप्रभाप्रसरभास्वररूपा ॥

  जिस (अवस्था) में वह (प्रभा रूपी) सूर्य भगवान् (अपान रूपी) चन्द्रमा आदि सभी (विकल्प रूपी तारागणों) सहित अस्त हो जाता है, वह अपनी (चिद्रूपिणी) कांति के प्रसर से देदीप्यमान रूप वाली अलौकिक शिवरात्रि धन्य है। 

महाशिवरात्रि व्रत क्यों, कब और कैसे रखें  ? 

   तिथितत्त्व के अनुसार शिव को प्रसन्न करने के लिए महाशिवरात्रि पर उपवास की प्रधानता तथा प्रमुखता है क्योंकि भगवान् शंकर ने खुद कहा है - 

न स्नानेन न वस्त्रेण न धूपेन न चार्चया। 

तुष्यामि न तथा पुष्पैर्यथा तत्रोपवासतः।।

'मैं उस तिथि पर न तो स्नान, न वस्त्रों, न धूप, न पूजा, न पुष्पों से उतना प्रसन्न होता हूँ, जितना उपवास से।'

स्कंदपुराण में लिखा है -

सागरो यदि शुष्येत क्षीयेत हिमवानपि।

मेरुमन्दरशैलाश्च रीशैलो विन्ध्य एव च॥

चलन्त्येते कदाचिद्वै निश्चलं हि शिवव्रतम्।

  अर्थात् ‘चाहे सागर सूख जाये, हिमालय भी क्षय को प्राप्त हो जाये, मन्दर, विन्ध्यादि पर्वत भी विचलित हो जाये, पर शिव-व्रत कभी निष्फल नहीं हो सकता।’ इसका फल अवश्य मिलता है। 

परात्परं नास्ति शिवरात्रि व्रतात्परं । 

न पूजयति भक्तयेशं रूद्रं त्रिभुवनेश्वरम् । 

जन्तुर्जन्मसहस्रेषु भ्रमते नात्र संशयः।। 

   शिवरात्रि व्रत परात्पर (सर्वश्रेष्ठ) है, इससे बढ़कर श्रेष्ठ कुछ नहीं है।जो जीव इस रात्रि में त्रिभुवनपति भगवान महादेव की भक्तिपूर्वक पूजा नहीं करता, वह अवश्य सहस्रों वर्षों तक जन्म-चक्रों में घूमता रहता है । 

मम भक्तस्तु यो देवी शिवरात्रि मुपोषकः।

गणत्वमक्षयं दिव्यमक्षयं शिवशासनम्।

सर्वान् भुक्त्वा महाभोगान् ततो मोक्षमवाप्नुयात्।।

  शिवजी कहते हैं: हे देवी, जो मेरा भक्त शिव रात्रि में उपवास करता है, उसे क्षय न होने वाला दिव्य गण बनाता हूं।

  ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार एकादशी को अन्न खाने से पाप लगता है और शिवरात्रि, रामनवमी तथा जन्माष्टमी के दिन अन्न खाने से दुगना पाप लगता है। 

  ब्रह्मवैवर्त पुराण, प्रकृति खंड, अध्याय 31 के अनुसार श्रीकृष्ण जन्माष्टमी, रामनवमी, एकादशी, शिवरात्रि और रविवार व्रत-ये अत्यन्त पुण्य प्रदान करने वाले हैं। जो ये परम पवित्र पाँच व्रत नहीं करते, वे चाण्डाल से भी अधिक नीच मानव ब्रह्महत्या के भागी होते हैं। अतः महाशिवरात्रि का व्रत अनिवार्य है।

  महाशिवरात्रि व्रत कब रखा जाए इसके सम्बन्ध में अनेक ग्रंथों में विभिन्न वाक्य मिलते हैं। किन्हीं वाक्यों में फाल्गुन कृष्ण चतुर्दशी प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिए और किन्हीं वाक्यों में अर्द्धरात्रव्यापिनी लेनी चाहिए। शिवपुराण विद्येश्वर संहिता के अनुसार शिवजी स्वयं कहते हैं -

चतुर्दशी तथा ग्राह्या निशीथव्यापिनी भवेत्। 

प्रदोषव्यापिनी चैव परयुक्ता प्रशस्यते।। 

   मेरे दर्शन-पूजन के लिए चतुर्दशी तिथि निशीथव्यापिनी अथवा प्रदोषव्यापिनी लेनी चाहिए, क्योंकि परवर्तिनी (अमावस्या) तिथि से संयुक्त चतुर्दशी की ही प्रशंसा की जाती है । 

नारद संहिता के अनुसार -

अर्धरात्रयुता यत्र माघकृष्णचतुर्दशी। 

शिवरात्रिव्रतं तत्र सोष्ठश्वमेधफलं लभेत्‌।

  जिस तिथि में अर्द्ध रात्र के समय माघ कृष्णपक्ष की चतुर्दशी हो (पूर्णिमांत से फाल्गुन), तिसमें जो शिवरात्रि व्रत करे उसको अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। 

स्मृत्यंतर में कहा है -

भवेद्यत्र त्रयोदश्यां भूतव्याप्ता महानिशा । 

शिवरात्रिव्रतन्तत्र कुर्याज्जागरणन्तथेति।। 

  जिस त्रयोदशी में आधी रात पर चतुर्दशी हो उसमें शिवरात्रि व्रत तथा रात्रि को जागरण करें। 

कामिक में भी कहा है -

आदित्यास्तमये काले अस्ति चेद्या चतुर्दशी। 

तद्रात्रिः शिवरात्रिः स्यात्सा भवेदुत्तमोत्तमा।। 

  फाल्गुन की चतुर्दशी जिस रात्रिकल में हो वह रात्रि सबमें श्रेष्ठ शिवरात्रि होती है। 

 माधव के मत में ईशानसंहिता का वाक्य है -

व्याप्यार्द्धरात्रं यस्यान्तु लभ्यते या चतुर्दशी । 

तस्यामेव व्रतङ्कार्यं मत्प्रसादार्थिभिर्नरैः।। 

  जिस तिथि में आधी रात के समय छतिरदर्शी मिले तिसमें ही मेरी प्रसन्नता की कामना वाले मनुष्य व्रत करें। 

नागरखण्ड में लिखा है -

माघफाल्गुनयोर्मध्ये असिता या चतुर्द्दशी । 

अनङ्गेन समायुक्ता कर्त्तव्या सा सदा तिथि।। 

  माघ और फाल्गुन के मध्य में जो कृष्णपक्ष की चतुर्दशी है वह अनंग (त्रयोदशी) सहित सदा करनी चाहिए। 

   शिवरात्रि में संपूर्ण रात्रि जागरण करने से महापुण्य फल की प्राप्ति होती है। ध्यान रहे महाशिवरात्रि में रात्रिकाल की ही प्रधानता है। अगर आप इस दिन शिव पूजन, व्रत, रात्रि जागरण कर अगले दिन पारण कर रहे हैं तो व्रत का संकल्प शास्त्रोक्त तरीके से लें। अग्निपुराण तथा गरुड़पुराण में इसके मंत्र मिलते हैं।

प्रातर्देव ! चतुर्दश्यां जागरिष्याम्यहं निशि । 

पूजां दानं तपो होमं करिष्याम्यात्मशक्तितः ॥

चतुर्दश्यां निराहारो भूत्वा शम्भो परेऽहनि । 

भोक्ष्येऽहं भुक्तिमुक्त्यर्थं शरणं मे भवेश्वर ॥

  हे देव! मैं रात्रिभर जागरण करूँगा। प्रात: चतुर्दशी तिथि में यथासामर्थ्य आपकी पूजा, दान और हवन भी करूँगा। हे शम्भो! चतुर्दशी तिधि में निराहार रहकर दूसरे दिन भोजन करूँगा। हे महादेव ! भक्ति और मुक्ति की प्राप्ति के लिए मैं आपकी शरण में हूँ।

अग्निपुराण के अनुसार मंत्र -

शिवरात्रिव्रतं कुर्वे चतुर्दश्यामभोजनं ॥

रात्रिजागरणेनैव पूजयामि शिवं व्रती । 

आवाहयाम्यहं शम्भुं भुक्तिमुक्तिप्रदायकं ॥

नरकार्णवकोत्तारनावं शिव नमोऽस्तु ते । 

नमः शिवाय शान्ताय प्रजाराज्यादिदायिने ॥

सौभाग्यारोग्यविद्यार्थस्वर्गमार्गप्रदायिने । 

धर्मन्देहि धनन्देहि कामभोगादि देहि मे ॥

गुणकीर्तिसुखं देहि स्वर्गं मोक्षं च देहि मे ।

  मैं चतुर्दशी को भोजनका परित्याग करके शिवरात्रि का व्रत करता हूँ।मैं व्रतयुक्त होकर रात्रि-जागरण के द्वारा शिव का पूजन करता हूँ। मैं भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले शंकर का आवाहन करता हूँ। शिव ! आप नरक-समुद्र से पार करानेवाली नौका के समान हैं, आपको नमस्कार है। आप प्रजा और राज्यादि प्रदान करनेवाले, मंगलमय एवं शान्तस्वरूप हैं; आपको नमस्कार है। आप सौभाग्य, आरोग्य, विद्या, धन और स्वर्ग-मार्ग की प्राप्ति करानेवाले है। मुझे धर्म दीजिये, धन दीजिये और कामभोगादि प्रदान कीजिये। मुझे गुण, कीर्ति और सुख से सम्पन्न कीजिये तथा स्वर्ग और मोक्ष प्रदान कीजिये।

सा जिह्वा या शिवं स्तौति तन्मनो ध्यायते शिवम् । 

तौ कर्णौ तत्कथालोलौ तौ हस्तौ तस्य पूजकौ ।। 

ते नेत्र पश्यत: तच्छिर: प्रणतं शिवे। 

तौ पादौ यौ शिवक्षेत्रं भक्त्या पर्यटत: सदा।। 

यस्येंद्रियाणि सर्वाणि वर्तन्ते शिवकर्मसु। 

स निस्तरति संसारं भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ।। 

शिवभक्तियुतो मर्त्यमर्त्याश्चंडाल: पुल्कसोSपि च । 

नारी नरो वा पंढो वा सद्यो मुच्येत संसूते: ।। 

  वही जिह्वा सफल है, जो भगवान शिवकी स्तुति करती है! वही मन सार्थक है, जो भगवान शिव के ध्यान में संलग्न होता है, वे ही कान सफल हैं, जो उनकी कथा सुनाने के लिये उत्सुक रहते हैं और वे ही दोनों हाथ सार्थक हैं, जो शिव की पूजा करते हैं! वे नेत्र धन्य हैं, जो भगवान शिवजी की पूजा का दर्शन करते हैं। वह मस्तक धन्य है, जो भगवान शिव जी के सामने झुक जाता है। वे पैर धन्य हैं, जो भक्तिपूर्वक शिवके क्षेत्रों में सदा भ्रमण करते हैं। जिसकी सम्पूर्ण इन्द्रियाँ भगवान शिवके कार्यों में लगी रहती हैं, वह संसार-सागर से पार हो जाता है और भोग तथा मोक्ष प्राप्त कर लेता है। भगवान शिवकी भक्ति से युक्त मनुष्य चांडाल, पुल्कस, नारी, पुरुष अथवा नपुंसक--कोई भी क्यूँ न हो, तत्काल संसार-बंधन सर मुक्त हो जाता है। जिसके हृदय में भगवान शिव की लेशमात्र भी भक्ति है, वह समस्त देहधारियों के लिये वन्दनीय है। 

  अतः शिवरात्रि व्रत में आखों को शिव दर्शन में, कान को शिव महिमा सुनने में, नाक को शिवमय सुगन्धित वातावरण में लगाएं। शरीर की पवित्रता का ध्यान रखें। जितना ज्यादा हो सके शिव के समीप रहें।दिन में केवल फल खायें और दूध पियें। किसी भी अन्य प्रकार के भोजन से दूर रहे। अपना मन, बुद्धि तथा हृदय शिवमय बना लें। शिव महिमा का गुणगान करें। निम्न शिव के मंत्र का जप करें -

देव-देव महादेव नीलकंठ नमोवस्तु ते।

कर्तुमिच्छाम्यहं देव शिवरात्रिव्रतं तब॥

तब प्रसादाद् देवेश निर्विघ्न भवेदिति।

कामाद्या: शत्रवो मां वै पीडांकुर्वन्तु नैव हि॥

  इस दिन भगवान् शिव का षोडशोपचार पूजन शिवलिङ्ग में करें। रुद्राष्टध्यायी से रुद्राभिषेक  जरूर करें। शिव सहस्त्रार्चन (शिव के १००० नाम बोलते हुए बिल्वपत्र, पुष्प, अक्षत आदि अर्पण) करें। शिवमंदिर जरूर जाएँ। 

  एक गृहस्थ के घर में बाणलिङ्ग अथवा स्फटिकलिङ्ग होना चाहिए। अगर नहीं है तो शिवमंदिर में शिवलिङ्ग पर पूजन करें। आप अपने मित्र से मांग कर भी नर्मदेश्वर ला सकते हैं और पूजन उपरान्त शिवलिङ्ग लौटा दें। दीपदान जरूर करें। 

  ब्रह्मवैवर्त पुराण के अनुसार जो शिवरात्रि के दिन भगवान शंकर को बिल्वपत्र चढ़ाता है, वह पत्र-संख्या के बराबर युगों तक कैलास में सुख पूर्वक वास करता है। पुनः श्रेष्ठ योनि में जन्म लेकर भगवान शिव का परम भक्त होता है। विद्या, पुत्र, सम्पत्ति, प्रजा और भूमि-ये सभी उसके लिए सुलभ रहते हैं।

रात्रि में चार प्रहर की पूजा करें। 

  रात्रि के प्रथम प्रहर में दूध से "ह्रीं ईशानाय नम:" मंत्र बोलते हुए, दूसरे प्रहर में दही से "ह्रीं अधोराय नम:" मंत्र बोलते हुए, तीसरे प्रहर में घृत से "ह्रीं वामदेवाय नम:" मंत्र बोलते हुए, चौथे प्रहर में मधु से "ह्रीं सद्योजाताय नम:" मंत्र बोलते शिव पूजन तथा अभिषेक करें। 

 अगले दिन निन्म मंत्र बोलते हुए पारणा अर्थात् शिव व्रत का समापन करें। 

उपसन्नस्य दीनस्य प्रायश्चित्तकृताञ्जले:।

शरणं च प्रपन्नस्य कुरुष्वाद्य दयां प्रभो।।

परत्र भयभीतस्य भग्रखण्डव्रतस्य च।

कुरु प्रसादं सम्पूर्णं व्रतं सम्पूर्णमस्तु मे।।

तपश्छिद्रं व्रतच्छिद्रं यच्छिद्रं भम्रके व्रते।

तव प्रसादाद्देवेश सर्वच्छिद्रमस्तु न:।। 

अर्थात् , हे ईश्वर! मुझसे व्रत आदि में जो दोष, गलती, अपराध या चूक हो गई है, आपकी कृपा से वह सारे दोष दूर हों व मेरा व्रत पूर्ण हो। मैं आपकी शरण में आया हूं, मुझ पर दया करें। 

गरुड़ पुराण के अनुसार इस प्रकार क्षमा-प्रार्थना करें -

अविघ्नेन व्रतं देव ! त्वत्प्रसदान्मयार्चितम् ।

क्षमस्व जगतां नाथ ! त्रैलोक्याधिपते हर ॥

यन्मयाद्य कृतं पुण्यं यद्रुद्रस्य निवेदितम् ।

त्वत्प्रसादान्मया देव ! व्रतमद्य समापितम् ॥

प्रसन्नो भव मे श्रीमन् गृहं प्रति च गम्यताम् ।

त्वदालोकनमात्रेण पवित्रोऽस्मि न संशयः ॥

  इसके बाद व्रती ध्याननिष्ठ ब्राह्मण को भोजन से संतृप्त कर वस्त्र-छत्रादि दे। तदन्तर वह पुनः इस प्रकार प्रार्थना करे -

देवादिदेव भूतेश लोकानुग्रहकारक ॥

यन्मया श्रद्धया दत्तं प्रीयतां तेन मे प्रभुः ।

  अगर आप द्वादश-वार्षिक व्रत करना चाहते हैं तो आज ही संकल्प लें। बारह व्रत पूर्ण कर द्वादश ब्राह्मणों को भोजन प्रदान करे और दीपदान करे।

  शिवपुराण कोटिरुद्रसंहिता के अनुसार महाशिवरात्रि के शुभ अवसर पर पार्थिव लिङ्ग का निर्माण कर उसकी पूजा और भक्तिभाव से युक्त गीत, वाद्य तथा नृत्य के साथ पूजन प्रशस्त है।

गीतैर्वाद्यैस्तथा नृत्यैर्भक्तिभावसमन्वितः ।

पूजनं प्रथमे यामे कृत्वा मंत्रं जपेद्बुधः ।।

पार्थिवं च तदा श्रेष्ठं विदध्यान्मंत्रवान्यदि ।

कृतनित्यक्रियः पश्चात्पार्थिवं च समर्चयेत् ।।

अंत में -

सदुपायकथास्वपण्डितो हृदये दु:खशरेण खण्डित:।

 शशिखण्डमण्डनं शरणं यामि शरण्यमीरम् ॥

   हे शम्भो! मेरा हृदय दु:ख रूपीबाण से पीडित है, और मैं इस दु:ख को दूर करने वाले किसी उत्तम उपाय को भी नहीं जानता हूँ अतएव चन्द्रकला व शिखण्ड मयूरपिच्छ का आभूषण बनाने वाले, शरणागत के रक्षक परमेश्वर आपकी शरण में हूँ। अर्थात् आप ही मुझे इस भयंकर संसार के दु:ख से दूर करें, ऐसी प्रार्थना करें। 

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