यह जलाने और आग लगाने की संस्कृति किसकी है। कहां से आयी है। भारतीय सभ्यता में सबसे भयंकर शत्रुओं को भी जलाया नहीं जाता था। मतभिन्नता के ल...
यह जलाने और आग लगाने की संस्कृति किसकी है। कहां से आयी है। भारतीय सभ्यता में सबसे भयंकर शत्रुओं को भी जलाया नहीं जाता था। मतभिन्नता के लिए पुस्तकों, ग्रंथों को फाड़ने और जलाने का चलन भारतीय नहीं। रामचरितमानस की प्रतियां जलायी गईं। पन्ने फाड़े गए। भला क्यों? इसलिए कि वह किसी दुष्प्रचार और अर्थ का अनर्थ कर दिए जाने के षड़यंत्र से चालित है। अगर कुछ पंक्तियों का विरोध था तो भी उस महान कृति को जलाने का प्रयास क्यों किया गया।
हजार वर्ष पूर्व जब बख्तियार खिलजी ने भारत के महान विश्वविद्यालयों का ध्वंस किया। कत्लेआम किया तो वह केवल मारने काटने अथवा भवन को तोड़ने पर ही नहीं थमा। उसने विश्वविद्यालय के भवन को फूंक दिया। ऐतिहासिक स्रोतों का कहना है कि नालन्दा विश्वविद्यालय का पुस्तकालय महीनों तक जलता रहा। उसमें इतनी पुस्तकें, ग्रंथ और पाण्डुलिपियां थीं कि छह महीने तक आग थमी ही नहीं। यह आक्रान्ताओं के द्वारा साम्राज्यवाद की नयी परिभाषा दी गई थी। जिसमें हारे हुए समाज सभ्यता के सभी मौलिक अधिकार छीने जाने की क्रूर गर्जना थी। इसी तरह भारतीय सभ्यता के नगर, उसकी विद्याएं, उसकी मानवीय गरिमा, जीने की पवित्र स्वतंत्रता, धर्म को धारण करने के मौलिक अधिकार सब नष्ट किए जाने लगे। नगर के नगर जलाए गए। उत्तर से दक्षिण के विजय नगरम् तक ध्वंस हुआ।
भारतीय जीवनधारा में अग्नि को पवित्र माना गया है। हजारों वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुए यागयज्ञादि कर्म के मूल में यही भाव है। यहां किसी जीवंत वस्तु सत्ता प्राणी को जलाया नहीं जाता। पुस्तकें कभी नहीं जलाई गईं। मृत्यु के बाद देह अग्नि को सौंपी जाती रही है-यह कहते हुए कि इदं आग्नेयं इदं न मम:! हमने पश्चाताप में स्वयं को अग्नि को सौंपा। महान दार्शनिक कुमारिल भट्ट ने अग्नि स्नान कर अपनी इहलीला समाप्त की थी। गहन ग्लानि थी कि अपने गुरु को शास्त्रार्थ में पराजित किया। आदि शंकराचार्य ने जिन विभिन्न मत संप्रदाय के आचार्यों को शास्त्रार्थ में पराजित किया, उनकी रचित पुस्तकें अग्नि में नहीं झोंकी। हम सैकड़ों मतों, सिद्धांतों के साथ सनातन रहे। बहते रहे। कालान्तर में हमने अपने मान, देह की पवित्रता के रक्षण के लिए जौहर किए। भारतीय स्त्रियों ने इस संसार की कठिनतम मृत्यु को चुना। ध्यान रहे, हमने स्वयं को अग्नि को सौंपा। क्योंकि हमें पवित्र रहना था।
आज लोग रामचरितमानस को जला रहे। ये पागल राजनीतिक हथकंडेबाजों की भीड़ है, जिसके पास न तो ग्रंथ को समझने की शक्ति है, न ही उसकी बौद्धिक काट। इसीलिए वे जला कर खुश हो रहे। ये अपने गुरु पेरियार के पदचिन्हों पर चल रहे। पेरियार ने राम और रामायण का अपमान किया था। ये भी राम और रामचरितमानस का अपमान कर रहे। परन्तु ये भूल रहे कि इनसे बड़ा आत्मघाती दूसरा नहीं। समय का चक्र घूम चुका है। ये स्वयं बहिष्कृत होंगे। राम हमारे प्रतीक पुरुष हैं। रामचरितमानस उनकी जीवनगाथा है। उनकी भक्ति में लिखी गई एक अद्वितीय कृति है। उसे जलाने वाले बख्तियार खिलजी के चेले हो सकते हैं। भारतीय तो कभी नहीं हो सकते।
हां, अगर आप कुपित हैं कि रामचरितमानस जलायी जा रही और हमारे राजा जी चुप हैं तो कोप को शांत कीजिए। इन मुट्ठी भर पागलों के लिए हृदय नहीं जलाते। उस अनगढ़ शिला को देखिए। जिससे राम का विग्रह गढ़ा जाना है। उस शिला के लिए समर्पण का सागर उमड़ रहा। वही प्रमाण है। वही सत्य है। राम और रामचरितमानस को जलाने वाले कब तक प्रासंगिक रहेंगे।हमें युद्ध लड़ना होगा। किन्तु वह युद्ध भाला बरछी का नहीं। लोकतंत्र के नायक को चुने जाने का है। आप केवल यह देखिए कि लोकतंत्र के किस काल में राम अयोध्या में पूरी धज के साथ पुनर्प्रतिष्ठित हो रहे। न केवल अयोध्या में, अपितु हृदय में भी ! आपको उत्तर मिल जाएगा।
COMMENTS