पता नहीं आज क्यों अयोध्या के उस उद्यान में भीड़ बढ़ती ही जा रही थी... सन्ध्या का समय बीत चुका था... सूर्य अस्त हो गए थे... निशिनाथ उदित हो...
पता नहीं आज क्यों अयोध्या के उस उद्यान में भीड़ बढ़ती ही जा रही थी... सन्ध्या का समय बीत चुका था... सूर्य अस्त हो गए थे... निशिनाथ उदित होकर समस्त जगत को शीतलता प्रदान कर रहे थे... पर हनुमान जी अपनी आत्मकथा इतना डूब कर सुना रहे थे कि किसी को वहाँ समय का भान ही नहीं था...। शत्रुघ्न कुमार देह भान भूल कर सुन रहे थे… महामन्त्री सुमन्त्र उस जगत में ही पहुँच गए थे । अपनी बात रखने की शैली... या किसी घटना को सुनाने की शैली - हनुमान जी की इतनी अद्भुत है कि कोई भी सुने तो उसे यही लगता कि हम उसी जगत में पहुँच गए हैं ।
भरत भैया ! तभी अशोक वाटिका में दशानन रावण आ गया ।
संग में मन्दोदरी थी... और अन्य दास-दासियाँ भी थीं ।
हनुमान जी जब किसी घटना को सुनाते हैं… तो उसकी धारा टूटने नहीं देते हैं और सुनाते समय स्वयं भी उतार चढ़ाव के साथ इस ढंग से उस चरित्र वर्णन करते हैं... कि सामने वाले को लगता है... हम सुन नहीं रहे... देख रहे हैं ।
अद्भुत वक्ता हैं हनुमान जी
जैसे ही रावण को अपने समीप आते हुए माँ मैथिली ने देखा तो अपनी जंघा से अपने उदर को ढँक लिया… भुजाओं से अपने वक्ष... माँ सिकुड़ गयी थीं... भरत भैया ! उस दृश्य को देखकर मेरा हृदय चीत्कार कर उठा था... मुझे मेरे स्वामी की आज्ञा होती तो मैं अभी दशानन का सिर काट कर अपने पैरों से उस सिर को प्रभु श्री राम के चरणों में पहुँचा देता पर… ।
माँ ने अपने दोनों घुटनों को अपनी भुजाओं से घेरा हुआ था…। अपना सिर नीचे किये हुए रो रही थीं मेरी माँ...।
भरत भैया ! रोते हुए मेरी माँ भय से काँप भी रही थीं...
वे उलझे केश अत्यंत दुबला शरीर... ऐसी दिख रही थीं जैसे- वृक्ष से अलग कोई शाखा सूखती जा रही हो ।
हनुमान जी जब ये वर्णन कर रहे थे तो उनका मुख मण्डल भी लाल हो गया था… फिर नेत्र बह चले थे... भरत जी भी अपने आँसू पोंछते हुए दिखे... शत्रुघ्न कुमार के अधर क्रोध से काँप रहे थे...।
भरत भैया ! मैं तो निकट ही था ना माँ के... क्योंकि मैं तो अशोक वृक्ष के ऊपर ही था… वहाँ से मुझे सब दिखाई दे रहा था और सबकी आवाज भी स्पष्ट सुनाई दे रही थी ।
माँ के ओष्ठ धीरे-धीरे हिल रहे थे मैंने बहुत बार सोचा कि ये कह क्या रही हैं… पर रावण जब माँ के निकट आया... तब उनकी वो ध्वनि बाहर प्रकट हुयी थी… वे "राम राम राम"... निरन्तर यही जपती जा रही थीं ।
हे सुन्दरी ! मैंने तुम्हें जनकपुर के स्वयंवर में ही देखा था...।
तुम्हें याद हो या न हो... पर मुझे तुम्हारा ये रूप सौन्दर्य, तुम्हें अपनी लंका की महारानी बनाने के लिए बाध्य करता रहता है… मैं क्या करूँ ?
हे विश्व सुन्दरी सीते ! मैं गया था उस धनुष यज्ञ में… जनकपुर के धनुष यज्ञ में... जो तुम्हारे पिता जनक ने आयोजन किया था...।
बड़े-बड़े राजा नहीं तोड़ पाये थे उस धनुष को...
धनुष साधारण नहीं था मेरे आराध्य का धनुष था...।
पर मैंने भी मूर्खता की… भला अपने इष्ट के आयुध को कोई तोड़ने का प्रयास करता है !... ये मेरी भारी भूल थी… और उसकी सजा मुझे दी मेरे इष्ट महादेव ने ।
धनुष उठाने की कोशिश करते समय... धनुष में मेरी ऊँगली दब गयी थी ।
आह ! मैं कराह उठा था...।
सब राजाओं ने प्रयास किया पर किसी से धनुष नहीं उठा... और मेरा दर्द बढ़ता जा रहा था... मेरी ऊँगली जो दबी हुयी थी ।
तब राजा जनक ने आज्ञा देकर तुम्हें बुलाने के लिए कहा...।
तुम आयीं… और तुमने आकर... ऐसे उस धनुष को उठा लिया... जैसे कोई बालक अपनी गेंद को उठा लेता है ।
उस समय मैंने तुम्हें देखा था... ओह ! कितना अद्भुत सौंदर्य !
मेरे पास भी सुन्दरता की कमी नहीं है सीते !... देखो ! ये मेरी महारानी है... मन्दोदरी... पर तुम्हारे आगे ये भी कुछ नहीं है ।
मैं उस समय लौट तो आया जनकपुर से अपने देश लंका में... पर तुम्हें भूल नहीं पाया था ।
बोलो ! तुम जो कहोगी ये दशानन वही करेगा...।
ये मन्दोदरी जैसों को मैं तुम्हारी दासी बना दूँगा... इस लंका के वैभव की तुम सम्राज्ञी बनोगी… बोलो..।
बोलो ! हे सीते !
भरत भैया ! मैं देख रहा था ऊपर से… माता सीता ने उस समय एक तिनके को उठा लिया था और उस तिनके को दशानन की ओर करके अपने नेत्रों को एक टक पृथ्वी की ओर ही देखे जा रही थीं ।
नहीं ऐसे मत करो... एक बार मेरी ओर देखो... एक बार !
रावण तड़फ़ उठा था ।
रावण ! तू मेरे लिए इस तिनके के बराबर भी नहीं है...।
माँ मैथिली की आवाज गूँजी उस अशोक वाटिका में ।
रावण स्तब्ध हो गया था मन्दोदरी आदि सब चौंक गए थे ।
रावण ! तू अपने आपको वीर समझता है अरे ! तू अगर वीर होता तो चोर की तरह मुझे यहाँ उठाकर नहीं लाता तू अपने को वीर कहता है... तू इस विश्व का सबसे बड़ा कायर है...।
हनुमान जी ने कहा… भरत भैया ! मुझे बहुत आनन्द आ रहा था अब... जब मेरी माँ मैथिली रावण को जबाब दे रही थीं ।
रावण ! तुझे शर्म नहीं आती… मैंने देखा है तुझे पंचवटी में कैसे सन्यासी के भेष में छुप कर आया था तू... अरे ! आज इन नारियों के सामने तू डींगें हाँक रहा है... इनको बता रहा होगा ना कि तू कितना बड़ा शक्तिशाली है… एक अबला को चुराकर ले आया… और अपने आपको वीर कह रहा है तू... धिक्कार है तुझे !... छी !
मुझे याद है रावण ! जब तू आया था मेरा अपहरण करने तब हवा भी चलती थी तो तू काँप रहा था किसी वृक्ष से पत्ते भी गिरते थे तो तू काँप जाता था… अब यहाँ अपने वीरता का ढोंग दिखा रहा है... ।
भरत भैया ! जब माँ मैथिली ये सब बोल रही थीं तब क्रोध और भय दोनों से उनका वो दुबला पतला शरीर कंपित हो रहा था ।
क्रोध के कारण उनके ओष्ठ सूख गए थे... उनका मुख मण्डल रक्तिम हो गया था... ।
और क्या कहा तूने रावण ! लंका का वैभव मुझे दिखा रहा है… मन्दोदरी को दासी बना दूँगा तुझे लंका की महारानी बनाऊँगा !
अरे ! तेरे लंका में जितना वैभव है... उतना तो मेरे पिता जनक महाराज के राज्य के एक जनपद में है... मेरे मायके में ।… मेरे श्वसुर के गृह में... इतना वैभव है पर मैं उस अयोध्या के वैभव को ठुकराकर... अपने "प्राणधन" के साथ में चल दी थी...।
रावण ! मुझे लालच देने की दृष्टता करता है तू...!
ये सीता है... सीता... अयोध्या के वैभव को ठुकराकर अपने स्वामी के साथ स्वेच्छा से वन आई थी... ।
हट्ट ! रावण !... तूने केवल भोगों में लिप्त... वैभव के लिए कुछ भी करने वाली सुन्दरी राक्षसियाँ देखी होंगी... पर आज तक किसी सती नारी से तेरा पाला नहीं पड़ा था... आज पड़ा है… अब देख ! तेरा चन्द्रहास तलवार शक्तिशाली है या इस सती सीता का ये तृण !
हट्ट ! चला अपना तलवार... देखती हूँ मैं… तेरा तलवार क्या कर लेगा मेरा पर… सावधान रावण !... ये मेरे हाथ का तिनका अगर तेरी लंका में मैंने फेंक दिया ना...
रावण क्रोध में भर गया अपना तलवार उठाया और मारने के लिए जैसे ही दौड़ा मन्दोदरी ने रोक लिया ।
महाराज ! अपने साथ इस राक्षस वंश को निर्मूल मत करो...।
लंका का विनाश देख रही हूँ मैं… मन्दोदरी ने कहा ।
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